नाथद्वारा है राजस्थान में उदयपुर के उत्तर-पूर्व में स्थित श्रीनाथजी की एक छोटी सी नगरी! बनास नदी के तट पर स्थित एक ऐसी नगरी जहाँ नाथद्वारा एवं श्रीनाथजी समानार्थी हो जाते हैं। सम्पूर्ण नगरी ‘ठाकुर जी की हवेली’ के चारों ओर बसती है।
‘ठाकुर जी की हवेली’! जी हाँ, नाथद्वारा मंदिर को भक्तगण इसी नाम से पुकारते हैं। यह मंदिर विष्णु के कृष्ण अवतार के श्रीनाथजी स्वरुप को समर्पित है। नाथद्वारा एक प्रकार से ब्रज भूमि का इस नगरी में अवतरण है। जी हाँ, कृष्ण एवं कृष्णलीला की भूमि, ब्रज भूमि का छोटा प्रतिरूप है नाथद्वारा।
कृष्ण का श्रीनाथजी अवतार
श्रीनाथजी की प्रतिमाओं तथा चित्रों में उन्हें सदैव गोवर्धन पर्वत को अपने बाएं हाथ की कनिष्ठा से उठाये तथा दायाँ हाथ कटि पर जमाये दिखाया जाता है। यह चित्रण उस घटना की स्मृति में है जब कृष्ण ने इंद्र का गर्व चूर करने के लिए गोवर्धन पर्वत को बाएं हाथ की कनिष्ठा पर उठाया था तथा अतिवृष्टि के प्रकोप से बचाने के लिये ब्रजवासियों को उसके नीचे शरण दी थी। इसी घटना के कारण कृष्ण को गोवर्धन गिरिधारी भी कहा जाता है। गोवर्धन गिरिधारी अर्थात् गोवर्धन पर्वत को धारण करने वाले!
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नाथद्वारा में कृष्ण को बाल रूप में पूजा जाता है। ठाकुरजी की हवेली के सर्व क्रियाकलाप एक ७ वर्षीय बालक के चारों ओर केन्द्रित रहते हैं। उनसे ठीक वैसा ही व्यवहार किया जाता है जैसे एक माता अपने बालक से करती है। जैसे माता अपने बालक का श्रृंगार करती है, उसे भोजन कराती है। नगरवासियों के लिए यह एक मंदिर नहीं, अपितु श्रीनाथजी का निवास स्थान है। इसीलिए वे इसे मंदिर नहीं, अपितु ठाकुरजी की हवेली कहते हैं।
हवेली के शीर्ष पर स्थित कलश एवं चक्र, यह दो ही ऐसे चिन्ह हैं जिन्हें देख इसे मंदिर कहा जा सकता है।
नाथद्वारा के श्रीनाथजी मंदिर का इतिहास
कहा जाता है कि १७ वी. शताब्दी के अंत में औरंगजेब सभी हिंदू मंदिरों को नष्ट करने के अभियान पर था। इससे बचाने के लिए, श्रीनाथजी की प्रतिमा को रथ पर बिठाकर मथुरा के समीप स्थित गोवर्धन से स्थानांतरित कर आगरा के जाया गया था। तत्पश्चात उनके रथ को दक्षिण दिशा में आगे बढ़ाया गया। कहा जाता है कि नाथद्वारा पहुंचते ही रथ के पहिये रुक गए। भक्तों ने इसे संकेत जाना कि भगवान् कृष्ण अर्थात् भगवान् श्रीनाथजी ने यहाँ बसने का निश्चय किया है। उनके लिए हवेली का निर्माण किया गया। इसके भीतर उनकी प्रतिमा स्थापित की गयी। सन् १६७२ से वे यहीं निवास करते आ रहे हैं। मेवाड़ के महाराणाओं ने मंदिर को संरक्षण प्रदान किया था।
जिस रथ पर सवार वे नाथद्वारा आये थे, वह रथ आप अब भी मंदिर परिसर के भीतर देख सकते हैं। श्रीनाथजी की प्रतिमा काले संगमरमर की एकल शिलाखंड पर तराशी गयी है।
भक्तों की आस्था है कि जैसे ही उनके लिए उपयुक्त मंदिर की रचना हो जायेगी, श्रीनाथजी अपनी ब्रजभूमि अथवा गोवर्धन अवश्य लौटेंगे।
नाथद्वारा मंदिर एवं उसके अनुष्ठान
मंदिर के पुजारियों में से एक, हर्ष पांडे जी ने मुझे मंदिर दिखने की कृपा की। उन्होंने मुझे मंदिर के सभी भाग दिखाए तथा मंदिर में किये जाने वाले दैनिक अनुष्ठानों के विषय में भी जानकारी दी। मंदिर के दैनन्दिनी कार्यकलापों को पूर्ण करते अधिकारियों से भी मैंने भेंट की।
पण्डे जी ने मुझे भक्ति का पुष्टिमार्ग समझाया तथा वल्लभाचार्य के कुल की जानकारी दी जो इस मंदिर की देखरेख करते हैं।
उन्होंने मुझे मंदिर के विभिन्न कक्ष भी दिखाए जो इस प्रकार हैं:
• दूधघर – दूध संचय कक्ष
• पानघर – पान के पत्तों का संचय कक्ष
• मिश्रीघर – मिश्री का संचय कक्ष
• पेडाघर – पेडे का संचय कक्ष
• फूलघर – पुष्प संचय कक्ष
• रसोईघर – पाक कक्ष
• गहनाघर – गहनों का कक्ष
• अश्वशाला – घुड़साल
• बैठक – बैठने का कक्ष
• चक्की – सोना एवं चांदी द्वारा निर्मित चक्की जिसका अब भी मंदिर का भोजन बनाने में प्रयोग किया जाता है।
श्रीनाथजी के दर्शन
भक्तगण मंदिर में श्रीनाथजी के ८ विभिन्न दर्शन प्राप्त सकते हैं। ये ८ दर्शन बालक श्रीनाथजी के एक दिवस के ८ विभिन्न क्रियाकलापों तथा उन्हें अर्पित ८ भोजन से साम्य रखता है। कृष्ण को यहाँ एक प्रतिमा नहीं, अपितु एक जीता-जागता बालक माना जाता है। एक बालक के सामान उन्हें प्रातः उठाया जाता है, खिलाया जाता है तथा स्नान, श्रृंगार, क्रीड़ा एवं निद्रा जैसी दैनिक क्रियाएं कराई जाती हैं। श्रीनाथजी के ये ८ दर्शन जो भक्तगण प्राप्त कर सकते हैं, इस प्रकार हैं:
मंगल दर्शन
ये दिवस का प्रथम दर्शन है। इस दर्शन के लिए मंदिर के मुख्य द्वार नहीं खोले जाते क्योंकि बालक कृष्ण अभी अभी निद्रा से जागे हैं। इस समय आवश्यकता है कि बालक श्रीनाथजी का ध्यान ना भटके तथा उनका मन बाहर खेलने जाने के लिए ना मचले। इसी प्रकार बाहर एकत्र भक्तों के जमावड़े से वे विचलित भी ना हों। ऋतु के अनुसार उन्हें वस्त्र पहनाये जाते हैं, ग्रीष्म ऋतु में हलके सूती वस्त्र तथा शीत ऋतु में गर्म ऊनी वस्त्र। तत्पश्चात, रात्रि के अन्धकार की दुष्ट आत्माओं को दूर करने के लिए आरती की जाती है।
श्रृंगार दर्शन
मंगल दर्शन के एक घंटे के उपरांत श्रीनाथजी का श्रृंगार किया जाता है। उन्हें सुन्दर वस्त्र एवं आभूषणों द्वारा अलंकृत किया जाता है। अलंकार के समय उन्हें दर्पण दिखाया जाता है ताकि वे स्वयं को निहार सकें। उन्हें सूखे मेवे तथा मिष्टान्न अर्पित किये जाते हैं। इन सबके पश्चात ही उन्हें उनकी प्रिय बांसुरी दी जाती है।
ग्वाल दर्शन
इस समय भगवान् श्रीनाथजी को सूचना दी जाती है कि उनके गौशाला की सर्व गायें स्वस्थ हैं। श्रीनाथजी को माखन मिश्री तथा अन्य दुग्ध-जन्य खाद्य पदार्थ चढ़ाए जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि इस समय वे अपने सखाओं के संग क्रीड़ा करते हैं।
राजभोग दर्शन
यह सम्पूर्ण दिवस की सर्वाधिक विस्तृत आरती है जब बाल गोपाल को दिवस का प्रमुख भोज अर्पित किया जाता है। मेरा सौभाग्य था कि मैं राजभोग दर्शन के समय इस मंदिर में उपस्थित थी। सर्वत्र इत्र एवं सुगन्धित पदार्थों का छिड़काव करते हुए छत से इस दर्शन की घोषणा की जाती है। इस दर्शन के उपरांत आगामी तीन घंटे मंदिर बंद रखा जाता है ताकि भगवान् तनिक विश्राम कर सकें।
उत्थापन दर्शन
दोपहर के समय, बाल श्रीनाथजी को, निद्रा उपरांत, शंख ध्वनि द्वारा जगाया जाता है। यह दर्शन संकेत है कि ग्वालों एवं गौओं के वापिस घर लौटने का समय हो चुका है।
भोग दर्शन
इस दर्शन के समय स्वामिनीजी को हल्का भोजन अर्पित किया जाता है। चौंक गए ना? यहाँ स्वामिनीजी राधाजी हैं या कदाचित यमुनाजी हैं। उन्हें यहाँ श्रीनाथजी के संग दर्शाया जाता है। पुष्टि मार्ग के अनुयायी यमुना जी को ही श्रीनाथ जी की पटरानी मानते हैं।
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आरती
यह दर्शन संध्या के समय प्राप्त होते हैं जब भगवान् ग्वाले के रूप में जंगल में गाएं चराकर घर वापिस लौटते हैं। तब माता उन पर पड़ी किसी भी दुष्ट आत्मा की परछाई दूर करने हेतु उनकी आरती करती है। उन्हें हल्का भोजन अर्पित किया जाता है। उन्हें उनकी बांसुरी दी जाती है जिससे वे स्वयं एवं वहां उपस्थित लोगों का मनोरंजन करते हैं।
शयन
अब निद्रा का समय हो चला है। इसकी घोषणा रसोइये को अगले दिवस शीघ्र आने की सूचना द्वारा की जाती है। भोजन के साथ पान-बीड़ा अर्पण किया जाता है। ये दर्शन वर्ष में केवल छः मास ही की जाती है। ऐसा मान्यता है कि वर्ष के शेष छः मास श्रीनाथजी ब्रजवासियों को दर्शन देने ब्रज चले जाते हैं।
सर्व दर्शनों के समय दिवस के समयानुसार उपयुक्त राग-रागिनी गाई एवं बजायी जाती है। प्रत्येक दर्शन हेतु सम्बंधित भक्ति कवि हैं। इनके विषय में आप मंदिर के वेबस्थल से जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
मुझे रसोईघर के भीतर झांकने का भी अवसर मिला। मैंने देखा भक्तगण ढेर सारी तरकारियाँ स्वच्छ कर उन्हें काट रहे थे। पाण्डे जी ने मुझे बताया कि मंदिर में भगवान् को अर्पण करने हेतु केवल स्थानीय मौसमी भाजी-तरकारियाँ ही पकाई जाती हैं। यह भोजन श्रीनाथजी की सेवा करने वाले पुजारियों एवं उनके परिवारजनों को भी परोसा जाता है।
पिछवाई चित्रकला एवं अन्य कलात्मक क्रियाकलाप
श्रीनाथजी की काली प्रतिमा ने एक नवीन चित्रकला की शैली को जन्म दिया जिसे पिछवाई के नाम से जाना जाता है। पिछवाई चित्रकला का अक्षरशः अर्थ है पीछे लटकाना। इन्हें नाथद्वारा चित्रकारी भी कहा जाता है क्योंकि इस प्रकार की चित्रकला का सम्बन्ध नाथद्वारा से जोड़ा जाता है।
पिछवाई चित्र बड़े आकार के चित्र होते हैं जिन्हें प्राकृतिक रंगों का प्रयोग कर सूती कपड़ों पर किया जाता है। कृष्ण लीलाओं को चित्रित करते इन चित्रों को भगवान् श्रीनाथ जी की प्रतिमा के पीछे लटकाया जाता है। जब आप यहाँ की सड़कों में घूमेंगे तब आपको यहाँ कई चित्रकार कागज, लकड़ी अथवा कपड़े पर चित्रकारी में मग्न दृष्टिगोचर होंगे। इन चित्रों की विषय-वस्तु सदैव श्रीनाथजी ही होते हैं। पिछवाई चित्रकारी की शैली को मेवाड़ के सूक्ष्म चित्रकारी शैली की ही एक शाखा माना जाता है। अंतर केवल चित्रकारी का माध्यम है जो पिछवाई चित्रकला में कपड़ा है।
इस चित्रकला में मुख्यतः काले एवं सुनहरे रंगों का प्रयोग किया जाता है।
कहा जाता है कि मुगल साम्राज्य के समय मूर्तिपूजा पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। भक्तगण श्रीनाथजी की छवि को रंगों द्वारा कपड़ों पर उतारते थे एवं उनकी पूजा करते थे। कालान्तर में यह चित्रकला शैली एक महत्वपूर्ण कला शैली में परिवर्तित हो गयी।
मंदिर की भित्तियों पर चित्रकारी
मंदिर की भित्तियों पर बने रंगबिरंगे चित्रों ने भी मुझे मोहित कर दिया। इनमें से कुछ चित्र आप मंदिर के बाहर स्थित मार्ग की भित्तियों पर भी देख सकते हैं। मैने नाथद्वारा का भ्रमण दीपावली से तुरंत पूर्व किया था। इस समय मंदिर की सर्व भित्तियों को रंगने का कार्य किया जाता है। मैंने यहाँ कई चित्रकारों को कई तलों पर बैठकर मंदिर की भित्तियों पर नवीन चित्रकारी करते देखा। वे भित्तियों की नवीन श्वेत सतह पर रंगबिरंगे चित्र बना रहे थे।
यह वार्षिक नियम दर्शाता है कि यह एक जीवंत मंदिर है जिसका नियमपूर्वक वार्षिक रखरखाव किया जाता है। मैंने एक अधिकारी से पुराने चित्रों के विषय में जानना चाहा तो वे अट्टहास करने लगे। उन्होंने कहा कि जब हमारे चित्रकार प्रत्येक वर्ष नवीन चित्रकारियाँ करते हैं तो उन्हें पुराने चित्र संजोकर रखने की क्या आवश्यकता है? उनके उत्तर ने मुझे सोच में डाल दिया। क्या अद्भुत सोच थी उनकी। मंदिर की इस चित्र कला शैली एवं इसमें निपुण चित्रकारों के संरक्षण का क्या यह सर्वोत्तम मार्ग नहीं है? चित्रकारों को जीविका सदैव प्राप्त होती रहेगी तथा भित्तियों पर चित्र भी सदैव नवीन होंगे।
मंदिर के बाहर मैं एक चित्रकार से मिली जो लकड़ी पर श्रीनाथजी की ३-आयामी छवि बना रहा था।
मार्ग में मैं उन कलाकारों से भी मिली जो चावल के दाने पर आपका नाम लिख सकते हैं। मेरा अनुमान था कि यह एक कठिन कार्य है, किन्तु उस कलाकार ने दो ही मिनटों में मेरा नाम एक दाने पर लिख दिया। हाँ, उस दाने का सही छायाचित्र कैमरा में लेने के लिए मुझे अवश्य कई मिनट लग गए।
नाथद्वारा की पुदीना चाय
ठाकुरजी की हवेली के चारों ओर, घुमावदार गलियों में आप कई ठेले देखेंगे जो पुदीना चाय बिक्री करते हैं। वे पुदीना चाय अनोखे आकार के कुल्हड़ों में पिलाते हैं। यह एक साधारण चाय है जिसे ताजे पुदीने के पत्तों से स्वादिष्ट बनाया जाता है। इससे अधिक तरोताजगी भरी चाय मैंने आज तक नहीं पी थी। पुदीने की ताजी पत्तियाँ आपकी जिव्हा पर स्वाद जा जादू कर देती हैं। सम्पूर्ण थकान एवं निद्रा अदृश्य हो जाती है। मुझे ज्ञात नहीं कि वे किसी विशेष पुदीने की पत्तियों का प्रयोग करते हैं, किन्तु उनकी चाय अवश्य विशेष है।
आप जब भी यहाँ आयें, पुदीना चाय अवश्य पियें।
नाथद्वारा के होटल एवं अतिथिगृह
नाथद्वारा भ्रमण के समय मैं एक नवीन निर्मित जस्टा होटल में ठहरी थी। यह मंदिर के समीप, पैदल दूरी पर स्थित है। बनास नदी के समक्ष, एक पहाड़ी पर ठेठ मेवाड़ी वास्तुशैली में निर्मित यह अतिथिगृह समृद्ध यात्रियों को सर्व सुख-सुविधा प्रदान करने में सक्षम है। जस्टा होटल की एक विशेषता जिसने मुझे अत्यंत प्रभावित किया, वह था इसका जलपान गृह जहां केवल शाकाहारी भोजन परोसा जाता है। मेरे जैसे शाकाहारी यात्रियों के लिए यह एक वरदान से कम नहीं जब हमें मेनु में गोते लगा लगा कर शाकाहारी भोजन ढूँढना ना पड़े।
एक तीर्थ नगरी होने के कारण यहाँ अतिथिगृहों की कमी नहीं है। सस्ते अतिथिगृहों से लेकर जस्टा होटल जैसे समृद्ध होटलों तक कई विकल्प यहाँ उपलब्ध हैं।
नाथद्वारा यात्रा के लिए सुझाव :
• आप उदयपुर में ठहरकर नाथद्वारा की एक-दिवसीय यात्रा कर सकते हैं अथवा नाथद्वारा में भी ठहर सकते हैं। यदि आप मंदिर के सम्पूर्ण दिवस का अनुष्ठान देखना चाहते हैं तो नाथद्वारा में ही कम से कम २ दिनों तक ठहरना उत्तम होगा।
• नाथद्वारा में ठहरकर आप हल्दी घाटी एवं एकलिंगी के भी दर्शन कर सकते हैं। यहाँ तक कि चित्तोड़गढ़ एवं बूंदी भी यहाँ से दूर नहीं हैं।
• यह एक देवनगरी है। यहाँ के निवासियों की भावनाओं का आदर करें जो हृदय से इस मंदिर से जुड़े हुए हैं तथा जिनका जीवनचक्र मंदिर के चारों ओर ही घूमता रहता है। यहाँ के कुछ रीति-रिवाज आपके लिए मायने ना रखते हों, किन्तु उन पर श्रद्धा रखने वालों के लिए वे अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
• मंदिर परिसर में छायाचित्रण प्रतिबंधित है। मंदिर के भीतर कैमरा अथवा मोबाइल ना ले जाएँ।