बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान बाघों के दर्शन के लिए अत्यंत लोकप्रिय है। अन्य राष्ट्रीय उद्यानों की तुलना में यह एक छोटा राष्ट्रीय उद्यान है जहां बाघों की संख्या प्रशंसनीय है। इस कारण सफारी के समय यहाँ बाघों के दर्शन सामान्य है। इन परिस्थितियों में बाघों के दर्शन ना हो पाना दुर्भाग्य ही कह सकते हैं।
जब हम यहाँ सफारी के लिए आये, हमारा भी कुछ ऐसा ही भाग्य रहा। उद्यान के ताला एवं मगधी क्षेत्र में हमने तीन सफारियाँ की किन्तु हमें एक भी बाघ नहीं दिखा। हमारे साथ आये कुछ अन्य पर्यटकों को बाघ ने अवश्य दर्शन दिए। सत्य ही है, उनके दर्शन कर पाना अथवा ना करना नियति का ही खेल है।
जब हम बाघ दर्शन की आस में जंगल में घूम रहे थे, तब बाघ तो हमसे छुपे रहे किन्तु वन के अन्य वैशिष्ट्य एवं उसके परितंत्र हमारा ध्यान आकर्षित करने में सफल हो रहे थे। हमने बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान के विविध आयामों को सूक्ष्मता से देखा व जाना।
बाघ दर्शन के परे बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान का वन्य-जीवन
वृक्ष
बांधवगढ़ के वनों में मुख्य रूप से चटक हरे पत्तों से आच्छादित साल वृक्ष बहुसंख्य में उपस्थित हैं। इसके पश्चात, बांस वृक्षों की संख्या है। इस क्षेत्र की रेतीली भूमि, जिनमें ये वृक्ष प्रस्फुटित होते हैं, उस काल का स्मरण कराते हैं, जब यह क्षेत्र कदाचित सागर का एक भाग रहा होगा। सागर ने इस भूमि पर बालू से अपने चिन्ह छोड़ दिए हैं।
इस क्षेत्र की एक अन्य विशिष्ठता है, साल वृक्षों का संबल लेते हुए उगती मोटी मोटी लताएँ, जो वृक्ष के तने को ढँक लेती है। यह एक परजीवी बेल होती हैं जो जिस वृक्ष का संबल लेते हुए उगती है, उसी वृक्ष को खा जाती है। वृक्ष के मरते ही शनैः शनैः वह स्वयं भी मृत हो जाती है। दार्शनिक रूप से इसका विश्लेषण करें तो क्या अधिकतर मानवों का व्यवहार ऐसा नहीं होता है? जिन वृक्षों पर उनका जीवन निर्भर होता है, क्या वे उन्ही वृक्षों की कटाई नहीं कर देते? वे यह भूल जाते हैं कि इन वृक्षों के अस्तित्वहीन होने पर उनका स्वयं का अस्तित्व भी शेष नहीं रहेगा।
हमारे गाइड ने वन में उगते अनेक औषधीय पौधों एवं वृक्षों से हमारा परिचय कराया। वनों के आसपास रहते जनजाति के लोग अनेक रोगों के निवारण के लिए इनका प्रयोग करते हैं। उदहारण के लिए, Chloroxylon Swietania नामक पौधे का प्रयोग मलेरिया से छुटकारा पाने के लिए किया जाता है जिसे स्थानिक भीरा का पौधा भी कहते हैं।
यहाँ वृक्ष की एक अन्य प्रजाति है, साजा, जिसका तना राख के रंग का होता है। इसकी सतह पर मगरमच्छ की त्वचा के समान आकृतियाँ होती है। स्थानिक इसे शिव रूप मानते हुए इसकी आराधना करते हैं क्योंकि इसके तने का रंग भस्म निरुपित शिव की त्वचा के रंग के अनुरूप दृष्टिगोचर होती है। वे इस वृक्ष की कटाई कभी नहीं करते हैं। इसके पास से जाते समय वे इसे झुक कर प्रणाम करते हैं।
जामुन के भी अनेक वृक्ष हैं जिनसे टपके हुए जामुनों से निकले रंग पगडंडियों की मिट्टी को लाल व जमुनी कर देते हैं।
बांधवगढ़ के पक्षी
मेरे कैमरे के लिए सर्वाधिक प्रिय दृश्य थे, अपने स्वयं के परिवेश में स्वच्छंद उड़ते रंगबिरंगे पक्षी। नौरंगा (Pitta) एवं नीलकंठ(Indian Roller) अपने पंखों के रंगों का प्रदर्शन करते आकाश में उड़ रहे थे।
शांत बैठे नौरंगा के पंखों के उजले किन्तु सौम्य रंग अत्यंत मनमोहक प्रतीत होते हैं। वही जब आकाश में उड़ान भरता है, उसके पंख मानों विभिन्न रंगों की होली खेलते प्रतीत होते हैं। इसी कारण इसे नौरंगा कहते हैं।
वहीं जब नीलकंठ उड़ान भरता है तब अपना चटक नीला रंग प्रकट करता है तथा जब बैठता है तब उसके नीले पंख राखाड़ी रंग के पंखों के साथ आंखमिचौली खेलने लगते हैं।
कठफोड़वा (Woodpecker) एवं भारतीय सुनहरे पीलक (Oriole) पक्षियों ने मेरे कमरे के संग खूब आंखमिचौली खेली। वे मेरे कमरे में बंद होने के लिए कदापि तत्पर नहीं थे। मानो यह कह रहे हों कि कमरे छोड़िये एवं आँखों से हमें देखकर आनंद उठाइये। आप सब भी यह ध्यान में रखिये।
पक्षियों की विभिन्न प्रजातियाँ
शिकारी अथवा परभक्षी पक्षी, जैसे मधुबाज (Oriental Honey Buzzard), कलगीदार सर्प चील (Crested Serpent Eagle) आदि, वृक्षों की शाखाओं पर आत्मविश्वास से बैठे, अपनी पैनी दृष्टी से शिकार ढूंढ रहे थे। वे उन पर्यटकों से तनिक भी विचलित नहीं थे जो अपने कैमरे के लम्बे लम्बे लेंस उनकी ओर ताने हुए थे।
दूर स्थित घास के मैदानों में बैठे जांघिल सारस (Painted Storks) घास में छुपे कीट-भोज ढूंढ रहे थे। यूँ तो Jungle Babblers अथवा सात भाई पक्षियों के समूह छद्मावरण के कारण मिट्टी के परिवेश में अदृश्य से प्रतीत होते हैं किन्तु निरंतर आंदोलित होते अंगों के कारण वे हमारी दृष्टी को खींच रहे थे। वे सदा समूह में ही रहते हैं।
श्वेत श्याम दहियर (Magpie) भी मेरे कैमरे व मेरे साथ लुका-छुपी का खेल खेल रही थी। उस खेल में अंततः उसकी ही विजय हुई तथा मेरा कैमरा उसके छायाचित्र से वंचित रह गया।
चितरोखा (Spotted dove) जंगल में शांत बैठे रहते हैं। काला बाजा (Black Ibis), भीमराज / बुजंगा (Drongo), जलकाक (Cormorant) तथा टिटहरी (Lap wing) अधिकतर आकाश में ही उड़ते हुए दिखाई पड़ रहे थे। जंगल में मंगल करते व विविध रंग बिखेरते मोर यहाँ-वहाँ दौड़ रहे थे।
वन्यजीव
एक भालू भूमि टटोलता हुआ भोजन ढूंढ रहा था जिसने अनेक क्षणों तक हमारा मनोरंजन किया। उसने उग्रता से दीमकों की एक बाम्बी पर आक्रमण कर दिया। उसके चारों ओर घूमते हुए वह उस पर अनेक दिशाओं से टूट पडा।
विडियो एवं छायाचित्र लेते हम छायाचित्रकारों को उसने निमिष मात्र के लिए अपना मुखड़ा दिखाया, तत्पश्चात बाम्बी को तोड़कर वह दीमकों को ढूंढ ढूंढ कर चट करने लगा।
यत्र-तत्र हमें जंगली सूअर दिख जाते थे। सर्वाधिक अधिक संख्या थी चितकबरे हिरणों की, जो सदा समूहों में दृष्टिगोचर हो रहे थे। कदाचित समूहों में वे स्वयं को परभक्षी पशुओं से सुरक्षित अनुभव करते होंगे। सांभर भी जोड़ों में सतर्क कानों के साथ यहाँ-वहाँ विचरण कर रहे थे।
बन्दर एवं हनुमान लंगूर भी दिखे जिनमें कुछ अपने शिशुओं को सीने से चिपटाए कूद-फांद रहे थे तो कुछ वृक्षों पर लटके हुए थे। अनेक बन्दर एक विशाल समूह में समीप स्थित एक जलाशय से जल ग्रहण कर रहे थे तथा जल में अपना प्रतिबिम्ब देख इतरा रहे थे।
बांधवगढ़ में रीछ का एक चलचित्र
राष्ट्रीय उद्यान में रीछ का एक सुन्दर विडियो लेने में मैं सफल हुई। आप इसे अवश्य देखें।
रीछ का एक जोड़ा हमने सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान में हमारे रात्रि सफारी में भी देखा था। सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान में रात्रि सफारी के विषय में अवश्य पढ़ें।
तितलियाँ एवं अन्य कीट
छोटे छोटे श्वेत पुष्पों से लदे एक विशेष वृक्ष को मैंने गूंजता हुआ वृक्ष, यह नाम प्रदान कर दिया क्योंकि उस पर तितलियों एवं कीटों की अनेक प्रजातियाँ गुंजन कर रही थीं।
हमने प्रातः एवं संध्या, दो सफारियों में उस वृक्ष के नीचे अनेक क्षण व्यतीत किये। प्रातःकालीन एवं संध्याकालीन सफारियों में तितलियों एवं कीटों की प्रजातियों की भिन्नता देख हम दंग रह गए।
बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान के ३ क्षेत्र अथवा जोन
राष्ट्रीय उद्यान को ३ प्रमुख क्षेत्रों में बाँटा गया है, खतौली, मगधी एवं ताला।
उनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण क्षेत्र ताला है, तत्पश्चात मगधी है। ये दोनों जोन विशाल चट्टानी पहाड़ी के ऊपर स्थित प्राचीन बांधवगढ़ दुर्ग के दोनों ओर स्थित हैं। एक दूसरे से सटे होने के पश्चात भी उन दोनों क्षेत्रों में तीव्र भिन्नता है।
ताला क्षेत्र अत्यंत सघन क्षेत्र है जिसमें मगधी जोन की तुलना में अधिक घने वृक्ष तथा मनमोहक परिदृश्य हैं। मैंने मगधी जोन में दो तथा ताला क्षेत्र में एक सफारी की। यद्यपि मगधी क्षेत्र में बाघों के दर्शन की संभावना अधिक रहती है, तथापि मैं मगधी क्षेत्र की तुलना में ताला क्षेत्र की अधिक अनुशंसा करूंगी।
हाथियों के लिए विशेष रोटियाँ
वन विभाग के पास कुछ हाथी हैं जिन पर बैठकर वन रक्षक वन के भीतर विचरण करते हैं। वे बाघों की उपस्थिति एवं उनके क्रियाकलापों की जानकारी रखते हैं तथा उन पर किसी संकट के अंदेशा का अनुमान लगाते हैं। बाघों की उपस्थिति ज्ञात होते ही वे सफारी के जीपों को सूचना देते हैं ताकि जीपें पर्यटकों को वहां ले जा सकें। यदि बाघ वन में भीतर हों जहाँ जीप ना पहुँच सके तब वे पर्यटकों जो हाथी पर बिठाकर उनके समीप तक ले जाते हैं।
हमने देखा, विभाग के कर्मी उन हाथियों के लिए मोटी व बड़ी बड़ी रोटियाँ बना रहे थे। प्रत्येक रोटी में लगभग एक किलो आटे का प्रयोग किया जा रहा था। उसके पश्चात भी, हाथी के समक्ष रोटियाँ कितनी लघु प्रतीत हो रही थीं। कर्मियों ने हमें बताया कि एक हाथी को प्रतिदिन दो ऐसी रोटियां प्रातः जलपान के लिए दी जाती हैं। तत्पश्चात भोजन में आठ ऐसी रोटियाँ दी जाती हैं। उसके पश्चात भी वह वन में चरने के लिए स्वतन्त्र होता है।
यहाँ-वहाँ वृक्षों के तने पर से आर्किड प्रस्फुटित हो रहे थे। मुझे बैगा जनजाति का एक व्यक्ति दिखा जो भूमि पर पड़ी कुछ वस्तुएं चुन रहा था। उसे देख मुझे अत्यंत आनंद हुआ कि कैसे वनों के आसपास जीवन व्यतीत करती जनजातियाँ वनों के प्रति श्रद्धा रखती हैं तथा आदर पूर्वक वही स्वीकारती हैं जो वन उन्हें स्वयं देते हैं।
हमें वन में बाघ भले ही नहीं दिखे किन्तु हमारी सफारी व्यर्थ नहीं थी। बाघों के ना दिखने पर हम निराश हुए बिना वन को अधिक सूक्ष्मता से निहार पाए। बाघों का ना दिखना एक प्रकार से वरदान ही सिद्ध हुआ जिसके कारण हमें इस वन की अन्य विशेषताओं की भी जानकारी प्राप्त हुई। इसके पश्चात भी इस वन के विषय में जानना अभी शेष है क्योंकि अनेक वन्य जीव एवं पक्षी वन के भीतर छुप कर बैठे थे जिनमें बाघ भी सम्मिलित हैं। कदाचित उन्हें देखने का अवसर मुझे पुनः शीघ्र ही प्राप्त होगा।