बोईता बंदना – ओडिशा का कार्तिक पूर्णिमा उत्सव

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कार्तिक मास हिन्दू पंचांग का एक विशेष मास होता है जो सम्पूर्ण भारतवासियों के लिए पवित्र भावनाओं एवं शुभ क्रियाकलापों का संदेश लेकर आता है। ओडिशा राज्य के लिए भी कार्तिक मास का विशेष महत्व है। इस मास में ओडिशा में भी विविध धार्मिक अनुष्ठान किये जाते हैं। उनमें से एक है, बोईता बन्दना। यह ओडिशा का एक प्रसिद्ध उत्सव है जो कार्तिक मास की पूर्णिमा तिथि पर आयोजित किया जाता है। यह उत्सव अंग्रेजी दिनसारिणी के अनुसार लगभग अक्तूबर-नवंबर मास में पड़ता है।

यद्यपि सम्पूर्ण कार्तिक मास को धार्मिक दृष्टि से एक पावन मास माना जाता है, तथापि कार्तिक मास की पूर्णिमा तिथि सर्वाधिक शुभ मानी जाती है। इस तिथि में सम्पूर्ण भारत में विविध अनुष्ठान आयोजित किये जाते हैं। उनमें कुछ समान तो कुछ क्षेत्र विशेष आयोजन होते हैं। वाराणसी में इसे देव दीपावली के रूप में मनाया जाता है तो गोवा में त्रिपुरारी पूर्णिमा तथा तमिल नाडु में इसे कार्तिगई दीपम के नाम से मनाया जाता है।

कार्तिक पूर्णिमा के दिवस भारत के विभिन्न क्षेत्रों की सर्वसामान्य प्रथा है, दीप प्रज्ज्वलित करना तथा भगवान की भक्ति में लीन हो जाना।

ओडिशा का बोईता बंदना

भारत के तटीय राज्य ओडिशा में कार्तिक पूर्णिमा का उत्सव विशेष रीति से संपन्न किया जाता है। पूर्णिमा के दिन, सूर्योदय से पूर्व, भोर फूटते ही ओडिशा वासी ओडिशा के विविध जल स्त्रोतों के तट पर बड़ी संख्या में एकत्र होते हैं। सम्पूर्ण दृश्य अप्रतिम हो जाता है। जहाँ तक हमारी दृष्टि जाती है, रंगों से ओतप्रोत व जीवंत दृश्य हमारे नयनों में समाने लगते हैं। विविध जलस्त्रोतों के जल पर रंग-बिरंगी छोटी छोटी नौकाएं तैराई जाती हैं। इन तैरती नौकाओं में दीप प्रज्ज्वलित किये जाते हैं। साथ ही चढ़ावे की विविध वस्तुएं रखी जाती हैं।

बोइता बन्दना

सम्पूर्ण वातावरण दीपों के प्रकाश एवं धूप की सुगंध से भक्तिमय हो जाता है। चारों ओर से जप के स्वर सुनाई पड़ते हैं। स्त्रियाँ अपने मुँह से उल्हास के पारंपरिक स्वर व्यक्त करती हैं जिसे उलूलु, हुलहुली अथवा हुला हुली कहते हैं।

बोईता बंदना के वैकल्पिक नाम  

बोईता बंदना तैरती नौकाओं का एक उत्सव है जिसे डांगा भासा भी कहते हैं। डांगा का अर्थ है नौका तथा भासा का अर्थ है तैरना, अर्थात नौकाओं का तैरना। यह एक शुभ पूजा अनुष्ठान है जिसे नौका यात्रा आरंभ करने से पूर्व किया जाता है। इस अनुष्ठान को बाली जात्रा भी कहते हैं जिसका अर्थ है, इंडोनेशिया के बाली द्वीप की यात्रा।

बाली जात्रा
बाली जात्रा

यह उत्सव ओडिशा में तो मनाया ही जाता है। साथ ही विश्व के भिन्न भिन्न भागों में निवास करते प्रवासी उड़िया मूल के नागरिक भी, अपने प्रतिष्ठित पूर्वजों की स्मृति में, उनके द्वारा प्रदत्त विरासत का इस उत्सव के द्वारा सम्मान करते हैं।

बोईता बंदना उत्सव का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अनुष्ठान है, छोटी छोटी हस्त निर्मित नौकाओं को जल पर तैराना। ये नौकाएं सामान्यतः केले के तनों अथवा अन्य समरूप प्राकृतिक तथा पारंपरिक वस्तुओं द्वारा निर्मित होती हैं। इन नौकाओं में चढ़ावे की विविध सामग्रियाँ भरी जाती हैं, जैसे पुष्प, सिक्के, कौड़ियाँ, पान के पत्ते, सुपारी आदि। साथ ही इन में प्रज्ज्वलित दीप रखे जाते हैं। तदनंतर इन्हे जल में प्रवाहित किया जाता है। इसके साथ प्रार्थना के विशेष शब्द उद्घोषित किये जाते हैं, जैसे “आ का मा बाई पान गुआ थोई”।

साधबा की स्मृति का पर्व

बोईता बंदना उत्सव भूतकाल की सामूहिक चेतना एवं स्मृतियों को गुंजायमान करता है। इस पर्व द्वारा कलिंग साधबा की विरासत का स्मरण किया जाता है। प्राचीन काल में उड़िया नाविक व्यापारियों को साधबा कहा जाता था। सैकड़ों वर्षों तक इन साधबाओं के हिन्द महासागर में स्थित भिन्न भिन्न द्वीप समूहों एवं राज्यों से व्यापारिक संबंध थे।

भारत के प्राचीन कालीन समुद्र व्यापार की धरोहर पर आधारित यह उत्सव एक प्रकार से उड़िया लोगों द्वारा व्यक्त, कलिंग साधबा व्यापारियों के विलक्षण एवं अदम्य साहस का सम्मान है तथा उन्हे अर्पित श्रद्धांजलि है। हमारे इन्ही उड़िया पूर्वजों ने हिन्द महासागर में स्थित दूर-सुदूर क्षेत्रों पर कलिंग का वर्चस्व स्थापित किया था, यह इतिहास सर्व विदित है।

कार्तिक पूर्णिमा हमारे उन्ही पूर्वज, कलिंग साधबा व्यापारियों की धरोहर से संबंधित एक विशेष पर्व है। कार्तिक पूर्णिमा के दिवस साधबा व्यापारी दूर-सुदूर द्वीपों व महाद्वीपों से व्यापार करने के लिए जल मार्ग द्वारा यात्रा आरंभ करते थे। इस काल में उन्हे अपनी पाल नौकाओं को खेने के लिए बंगाल की खाड़ी एवं हिन्द महासागर के ऊपर से बहते मानसून पवन की दिशा का लाभ प्राप्त होता था। इस काल के मानसून पवन की दिशा नौकाओं को श्री लंका, इंडोनेशिया के द्वीपों तथा दक्षिण-पूर्वी एशियाई मुख्य भूमि में स्थित विभिन्न क्षेत्रों की ओर जाने में सहायक होती थीं।

कलिंग साधबा

दूर-सुदूर द्वीपों व महाद्वीपों से व्यापार करने के लिए जल मार्ग द्वारा यात्रा आरंभ करने से पूर्व विविध धार्मिक अनुष्ठान किये जाते थे। अथाह समुद्र के माध्यम से नौकाओं द्वारा यात्रा करते हुए वे सुरक्षित रहें, ऐसी कामनाओं के साथ उन्हे विदा किया जाता था।

नौका के कर्मी अपनी अपनी नौकाओं को भिन्न भिन्न उत्पादों से भरते थे। कपास, वस्त्र, हीरे, जवाहरात, मणि, विविध रत्न, मोती, लोबान, मोम, नीलकंठ के पंख, हस्तिदंत, हाथी, घोड़े आदि का व्यापार किया जाता था। वे अपनी नौकाओं को दीर्घ काल की जलयात्रा के लिए सज्ज करते थे।

साधबा व्यापारियों के परिवार की स्त्रियाँ अपने प्रियजनों की सुरक्षित यात्रा की कामना करते हुए विविध अनुष्ठान करती थीं। कलिंग क्षेत्र के जलमार्गों के तट एवं बंदरगाह इन सभी गतिविधियों से जीवंत हो उठते थे।

कलिंग क्षेत्र की समृद्धि, नाम एवं प्रसिद्धि इन उद्यमी व कर्मठ साधबा व्यापारियों के व्यापार कौशल व साहस के कारण ही संभव हो सका था। उन्होंने विस्तृत हिन्द महासागर के पार, भिन्न भिन्न मानव समुदायों के संग सौहार्दपूर्ण संबंध स्थापित किया तथा उनके संग व्यापारिक सहयोग को पोषित किया।

साधबा व्यापारियों द्वारा समुद्र पार के क्षेत्रों के संग किये गये व्यापार से प्राप्त धन ने कलिंग को दीर्घ काल तक समृद्ध किया था। कलिंग समुद्र तट पर बसे बंदरगाहों एवं नगरों ने इन व्यापारिक गतिविधियों में महत्वपूर्ण योगदान प्रदान किया था।

कलिंग जलपोत

साधबा यात्रा विवरणों में विशाल बहुतलीय जलपोतों का उल्लेख किया गया है। ये उस काल में विकसित एवं फलीभूत हुए व्यापार एवं जल परिवहन की ओर संकेत करते हैं।

साधबाओं के बोईताओं अथवा नौकाओं में कार्यरत कर्मियों में नौनिर्देशक, नाविक कर्मी, जल पर्यवेक्षक, रखरखाव दल, फुटकर कर्मी आदि सम्मिलित होते थे जिनके नेतृत्व का दायित्व उनके मुखिया या कप्तान पर होता था। इनके अतिरिक्त विविध प्रकार के अन्य यात्री भी सम्मिलित होते थे जिनमें कलाकार, शिल्पकार, चित्रकार, विविध विषयों के विद्वान, विविध क्षेत्रों के कुशल श्रमिक आदि होते थे। मानवी जीवन एवं मालमत्ते की सुरक्षा के लिए पर्याप्त संख्या में सुरक्षा कर्मी अथवा योद्धा भी जलपोतों पर सवार होते थे।

आकाश दीप

इस कार्तिक पूर्णिमा डांगा भासा धरोहर उत्सव के अतिरिक्त एक अन्य बहुप्रचलित प्राचीन उत्सव था, आकाश दीप।

मिट्टी के मटके में ऊपर की ओर छोटे छोटे छिद्र किये जाते थे। उसके भीतर रेती भरकर उसके ऊपर प्रज्ज्वलित दीप रखा जाता था। तत्पश्चात इस घट को बाँस की ऊंची डंडी पर बांधा जाता था। यह दीप रात्रि में प्रज्ज्वलित किया जाता था जो सम्पूर्ण रात्रि टिमटिमाता रहता था।

कलिंग क्षेत्र के समुद्र तटीय क्षेत्रों, नदी के तटीय क्षेत्रों तथा खाड़ी के तटीय क्षेत्रों पर स्थित अधिकांश आवास गृहों पर सम्पूर्ण कार्तिक मास काल में ये दीप प्रज्ज्वलित किये जाते थे। ये दीप कलिंग नदियों एवं कलिंग समुद्री मार्गों पर अग्रसर नौकाओं तथा जलपोतों को रात्रि में दिशा निर्देशन में सहायक होते थे।

आकाश दीप की यह परंपरा कलिंग साधबाओं के समुद्री यात्रा धरोहर का प्रमुख अवशेष है।

एक अन्य मान्यता के अनुसार पित्रपक्ष काल में हमारे स्वर्गवासी पूर्वज अपने परिवारजन से भेंट करने के लिए तथा उनका कुशलक्षेम जानने के लिए पित्रलोक से धरतीलोक पर पधारते हैं। तब ये टिमटिमाते दीप उन्हे सही मार्ग ढूँढने में सहायता करते हैं। आकाश दीप की यह परंपरा कुछ दशकों पूर्व तक अत्यधिक प्रचलित थी। जीवनशैली में आये परिवर्तन के साथ शनैः शनैः यह परंपरा भी अब लुप्त होने लगी है।

भारत के पूर्वी तटीय क्षेत्रों में प्रचलित डांगा भासा (तैरती नौकाएं) तथा आकाश दीप जैसी परम्पराएं भिन्न रूपों में भारत के पश्चिमी तटीय क्षेत्रों अथवा कोंकण तटीय क्षेत्रों में भी प्रचलन में हैं। इन क्षेत्रों की परंपराओं में मूलाग्र समानता होने के पश्चात भी किंचित भिन्नता है जो उस क्षेत्र की विशेषताओं एवं लोकपरम्पराओं पर निर्भर करती हैं।

बोईता बंदना एवं जगन्नाथ

सदियों पूर्व से ओडिशा में भिन्न भिन्न स्वदेशी संप्रदायों व मान्यताओं का प्रचलन रहा है, जैसे वैष्णव, शैव, बौद्ध, जैन, सबारा आदि। ऐसी मान्यता है कि ओडिशा की जगन्नाथ संस्कृति इन सभी संप्रदायों व पंथों का समृद्ध सम्मिश्रण है।

जगन्नाथ का नागार्जुन वेष
जगन्नाथ का नागार्जुन वेष

अधिकांश उड़िया नागरिक कार्तिक मास के भिन्न भिन्न परंपराओं का पूर्ण श्रद्धा से पालन करते हैं, विशेषतः घर के बड़े-बूढ़े, स्त्रियाँ आदि। ये परम्पराएं विशेषतः इस क्षेत्र की भिन्न भिन्न प्रथाओं एवं विविध अनुष्ठानों पर निर्भर होते हुए जगन्नाथ संस्कृति का पालन करती हैं।

श्री मंदिर अथवा जगन्नाथ पुरी मंदिर के भीतर स्थापित देवों के विग्रहों को भव्य आभूषणों एवं सुंदर वस्त्रों से अलंकृत किया जाता है। इस अलंकरण को भेस अथवा भेष कहा जाता है। यद्यपि यह प्रथा सम्पूर्ण वर्ष निभाई जाती है, तथापि कार्तिक के पावन मास में उनका विशेष भेष होता है। जिस वर्ष कार्तिक मास में पाँच के स्थान पर छः दिवसों का पंचक होता है, उस वर्ष मंदिर के विग्रहों को दुर्लभ व अद्वितीय “नागार्जुन भेष’ से अलंकृत किया जाता है। उन्हे नागार्जुन के अनुरूप सज्जित किया जाता है।

भक्तगण सम्पूर्ण कार्तिक मास में कार्तिक व्रत का पालन करते हैं। इसके अंतर्गत वे प्रातः शीघ्र उठकर सूर्योदय से पूर्व स्नान आदि से निवृत्त हो जाते हैं। तत्पश्चात मंदिर जाकर देवी-देवताओं के दर्शन करते हैं। अधिकांश भक्तगण पुरी तथा अन्य पावन स्थलों की यात्रा करते हैं तथा श्रद्धा पूर्वत कार्तिक व्रत का पालन करते हैं।

कार्तिक मास में जिस प्रकार भारत के अन्य स्थलों में पावन तुलसी की आराधना की जाती है, उसी प्रकार ओडिशा में भी कार्तिक मास में तुलसी की वंदना की जाती है। स्कन्द पुराण के कार्तिक माहात्म्य का पठन अथवा श्रवण भी पावन कार्य माना जाता है। जो ग्रहस्थ कार्तिक मास में श्री क्षेत्र अथवा अन्य तीर्थस्थलों की यात्रा करने में असमर्थ होते हैं वे अपने गृहों में ही कार्तिक मास के भिन्न भिन्न अनुष्ठानों का श्रद्धा से पालन करते हैं।

व्रत

कार्तिक मास में जिस प्रकार एक अनुशासित जीवन शैली अपनायी जाती है, वही अनुशासन कार्तिक मास में ग्रहण किये जाने वाले भोजन में भी परिलक्षित होती है। इस मास में व्रत एवं हबीसा का पालन किया जाता है जिसमें व्रत का पालन करने वाले भक्तगण, जिन्हे हबीस्याली कहते हैं, व्रत करते हैं तथा व्रत की गत रात्रि को हबीसा ग्रहण करते हैं। हबीसा एक विशेष व्यंजन होता है जिसमें हल्दी तथा अन्य सामान्य मसालों का प्रयोग नहीं किया जाता। यह व्यंजन सामान्यतः कुछ विशेष प्रकार के स्थानीय, ऋतुजनित तथा स्वदेशी उपज का प्रयोग कर बनाया जाता है।

अनेक उड़िया नागरिक सम्पूर्ण कार्तिक मास में सात्विक भोजन ग्रहण करते हैं जिसमें वे अपने व्यंजनों में प्याज, लहसुन आदि का प्रयोग नहीं करते हैं। अधिकांश उड़िया इस मास में किसी भी प्रकार का सामिष भोजन ग्रहण नहीं करते हैं।

यदि किसी व्यक्ति के लिए सम्पूर्ण कार्तिक मास में इन निषेधों का पालन करना कठिन हो तो वे कार्तिक मास में कम से कम अंतिम पाँच दिवसों में इस व्रत का पालन पूर्ण श्रद्धा से करते हैं। इन पाँच दिवसों को पंचुका अथवा पंचक कहते हैं जब वे केवल शुद्ध शाकाहारी सात्विक भोजन ग्रहण करते हैं। पंचुका को बक-पंचुका भी कहते हैं क्योंकि उड़िया मान्यताओं के अनुसार मछली ग्रहण करने वाले बक पक्षी भी इन पाँच दिवसों में मछली का सेवन नहीं करते हैं।

कार्तिक मास में ओडिशा के निवासी अपने गृहों के आँगन में, तुलसी चौरा के निकट चावल के चूर्ण से रंगोली जैसी कलाकृतियाँ करते हैं जिन्हे कार्तिक मुरुजा कहते हैं। इन कलाकृतियों में स्थानीय शैली की विविध पारंपरिक एवं धरोहर आधारित आकृतियाँ होती हैं जो इस क्षेत्र की सांस्कृतिक धरोहर को प्रदर्शित करती हैं।

इस प्रकार ओडिशा का कार्तिक पूर्णिमा उत्सव इस क्षेत्र के महान समुद्री धरोहर का प्रतीक है।

यह प्रीता राऊत द्वारा प्रदत्त एक अतिथि संस्करण है। प्रीता एक स्वतंत्र शोधकर्ता हैं जो भारत एवं ओडिशा के सामाजिक-सांस्कृतिक धरोहर पर शोधकार्य कर रही हैं। वे ओडिशा के विषय में दुर्लभ तथ्यों को उजागर कर उन्हे प्रकाशित करती हैं।  

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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