चेरियल चित्रकारी – तेलंगाना के चेरियल गाँव की विशेष सौगात

0
2533

कलमकारी कला कौशल के पश्चात कदाचित चेरियल चित्रकारी ही आंध्र क्षेत्र की सर्वोत्तम कला देन है। आंध्र प्रदेश के तेलंगाना क्षेत्र में, जो अब स्वयं एक राज्य है, चेरियल नामक एक गाँव है। हैदराबाद से इसकी दूरी १०० किलोमीटर से भी कम है। वारंगल से वापिस लौटते समय हमने चेरियल में एक लघु पड़ाव लिया था। इस पड़ाव का मुख्य उद्देश्य था, इस प्रसिद्ध पट्टचित्र कलाकृति के विभिन्न कारीगरों से भेंट तथा कदाचित कुछ चित्रों का क्रय। हम राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता कलाकार श्री डी. वैकुण्ठम से संपर्क साधने में सफल हो गए जो चित्रकारों के परिवार से हैं।

तेलंगाना की चेरियल पट्टचित्र कला
तेलंगाना की चेरियल पट्टचित्र कला

गूगल मानचित्र की सहायता से हम चेरियल भी पहुँच गए। वहां श्री डी. वैकुण्ठम के सुपुत्र ने हमसे भेंट की तथा गाँव की संकरी गलियों में हमारा मार्गदर्शन करते हुए हमें उनके कार्यशाला तक ले गए। यह कार्यशाला उनके निवास्थान के भीतर ही एक कक्ष में स्थापित की गयी थी।

राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता

श्री डी. वैकुण्ठम जी के निवास के बाहर लगे सूचना पटल पर लिखा था कि यह राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता का निवासस्थान है। मैंने अनुमान लगाया था कि इस गाँव के अनेक निवासी इस कला से जुड़े होंगे। किन्तु गाँव के कुछ परिवार ही इस कला शैली की चित्रकारी से जुड़े हैं। हम श्री डी. वैकुण्ठम जी के कार्यशाला के भीतर गए। कार्यशाला अत्यंत ही साधारण स्तर की प्रतीत हो रही थी। लकड़ी की एक तिरछी मेज थी जिस के ऊपर बिजली का बल्ब लटक रहा था। भित्ति से टिकी लकड़ी की कुछ अलमारियां थीं जिन के भीतर तैयार चित्र एवं चित्रकारी के लिए आवश्यक सामान रखे हुए थे। भित्तियों पर यहाँ-वहां कुछ पुरस्कार, प्रशस्ति पत्र, कैलेंडर एवं उनकी चित्रकला शैली को दर्शाते कुछ पर्यटन पर्चे लटक रहे थे। श्री डी. वैकुण्ठम का परिवार अत्यंत ही विनम्रता से हमें उनकी कलाकृतियाँ दिखा रहा था। उनका कहना था कि उस समय उनकी कुछ उत्तम कलाकृतियाँ किसी प्रदर्शनी में भेजी गयी थीं। अतः हम उन्हें नहीं देख पाए।

चेरियल चित्रकारी

चेरियल शैली में कृष्ण लीला
चेरियल शैली में कृष्ण लीला

चेरियल चित्रकारी एक प्रकार की पट्टचित्र कला है जो पुराणों की लोकप्रिय पौराणिक कथाओं को दर्शाती सूक्ष्म चित्रकारी जैसी प्रतीत होती है। इन चित्रों की पृष्ठभूमि अधिकतर लाल रंग की होती है। पट्टचित्र का आरम्भ सदा गणपति के चित्र से होता है। उनके पश्चात सरस्वती का चित्र होता है। किसी भी नवीन चित्र का आरम्भ करने से पूर्व चित्रकार इन दोनों देवताओं की आराधना करते हैं। उसके पश्चात कथानक के विभिन्न दृश्य चित्रित किये जाते हैं। पट्टचित्र के आकार के अनुसार एक पंक्ति में एक दृश्य अथवा अनेक दृश्य हो सकते हैं। इस प्रकार की लोक कला भारत के विभिन्न भागों में पायी जाती थी। मेरे विचार से पट्टचित्र की रचना का हेतु किसी संग्रहालय अथवा किसी धनाड्य के निवास की भित्तियों का अलंकरण नहीं होता था। भारत के अन्य प्राचीन लोककला शैलियों के समान यह शैली भी भारतीयों के जीवन का अभिन्न अंग थी।

पारंपरिक कथावाचक

रंगभरी पारंपरिक लोक कथाएं
रंगभरी पारंपरिक लोक कथाएं

प्राचीन काल में पारंपरिक कथावाचक अपनी कथा कहने के लिए गायन के साथ इन पट्टचित्रों का सहारा लेते थे। ऐसी ही परंपरा राजस्थान में भी देखने मिलती है जहां गायक स्थानीय देवता पाबूजी की कथाएं सुनाने के लिए फड़ चित्रों की सहायता लेते थे जो विशाल चित्र होते हैं। मैं सोच रही थी कि अंततः यह कला शैली किस स्थान से किस स्थान पर पहुँची होगी।

चेरियल चित्रकला – ७ जनजातियों की कथा

कला से सम्बंधित मेरे सीमित ज्ञान के आधार पर मैंने यह अनुमान लगाया था कि वे केवल पौराणिक कथाओं, विशेषतः रामायण तथा महाभारत की कथाओं का चित्रण करते हैं। किन्तु श्री डी. वैकुण्ठम जी ने मुझे बताया कि वे वास्तव में इस क्षेत्र की ७ जनजातियों के जीवन को इन चित्रों में सजीव करते हैं। उन जनजातियों में ताड़ी संग्राहक, धोबी, चमार, नाई, बुनकर, मछुआरे तथा किसान सम्मिलित हैं। इन में से कुछ जनजातियों की उपजातियां भी होती हैं जिनके स्वयं के देव, अनुष्ठानिक विधियां तथा कथाएं होती हैं। इन चित्रकारों के चित्रों में इन जनजातियों के दैनन्दिनी जीवन का चित्रण होता है जो उनके कार्य पर आधारित होता है।

और पढ़ें – वारंगल दुर्ग – काकतीय वंश की विरासत

उदहारण के लिए, एक फल विक्रेता का दिवस विभिन्न वृक्षों से फल तोड़कर लाने से आरम्भ होता है। तत्पश्चात वह उन फलों की बिक्रि करता है। उसी प्रकार ताड़ी संग्राहक प्रातः ताड़ के वृक्षों पर चढ़कर उन पर खांचे करता है। उनसे रिसते स्त्राव का संग्रह करने के लिए घड़े लटकाता है। कुछ घंटों के पश्चात ताड़ के रस से भरे उन घड़ों को लाकर अपने आँगन में लटका देता है। कुछ समय पश्चात रस विक्री के लिए सज्ज हो जाता है। इन चित्रों में इन्ही जनजातियों की कथाओं का चित्रण होता है जो उनके दैनिक क्रियाकलापों, अनुष्ठानों, देवी-देवताओं, उनके नायकों इत्यादि पर आधारित होते हैं।

रंग

पारंपरिक रूप से इन चित्रों में प्रयुक्त रंग बहुधा विशेष पत्थरों से प्राप्त होते थे। उन पत्थरों को पीसकर रंग बनाए जाते थे। अब इनमें कृत्रिम रंगों का प्रयोग किया जाता है जो बाजार में आसानी से उपलब्ध होते हैं। उन्हें तैयार करने का कष्ट अब उन्हें नहीं उठाना पड़ता है। किन्तु कुछ अधिकृत कृतियाँ अब भी पारंपरिक रूप से तैयार रंगों द्वारा ही बनाई जाती हैं।

कथा वाचक व गायक

हमें बताया गया कि चेरियल में अब ऐसे गायक कम ही हैं जो अपने गायन द्वारा इन कथाओं को कहते हैं। जो कुछ गायक गाँव में शेष हैं, वे अपनी सेवा की एवज में भारी मेहनताने की अपेक्षा रखते हैं जिनका भुगतान करना गांव वासियों के लिए संभव नहीं होता है।

और पढ़ें – लाड बाजार – हैदराबाद की प्रतिष्ठा,प्रतीक एवं जीविका

हमने जिन कलाकृतियों को देखा, उनमें कला का स्तर अत्यंत प्राथमिक था। उनमें एक दक्ष कारीगर के हाथों की सूक्ष्मताओं का अभाव था। हमें बताया गया कि वे साधारण चित्र थे। उन्हें साधारण प्रदर्शनियों के लिए बनाया गया था। उत्कृष्ट कलाकृतियों के लिए विशेष निविदा की जाती है जिसमें कथानक, रंग इत्यादि का विशेष चुनाव किया जाता है। ऐसी निविदा अधिकतर संग्रहालयों एवं कलाघरों से प्राप्त होती हैं जहां विशेष कथानक पर आधारित चित्रों की मांग की जाती है। कुछ निजी संग्राहक भी ऐसी निविदा देते हैं।

चेरियल चित्रकारी का विडियो

चेरियल चित्रों में निहित कथाओं को दर्शाता यह विडियो अवश्य देखें।

मुझे जैसा चित्र चाहिए था, वैसा चित्र उस समय उपलब्ध नहीं था। आशा है, भविष्य में मैं पुनः इन कारीगरों से भेंट कर सकूं तथा ऐसे चित्र बनवा सकूँ अथवा ले सकूँ जिनके कथानक मेरे हृदय के समीप हैं।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here