गियु ममी अर्थात् गियु का परिरक्षित शव! इसके विषय में मैंने सर्वप्रथम तब पढ़ा था जब मैं अपनी हिमाचल भ्रमण की विस्तृत यात्रा सूची पढ़ रही थी। मुझमें जिज्ञासा अवश्य उत्पन्न हुई थी किन्तु दर्शनीय स्थलों की लम्बी सूची में मेरी यह जिज्ञासा कुछ काल के लिए लुप्त हो गयी। इससे पूर्व ममी से मेरा साक्षात्कार हैदराबाद के आन्ध्र प्रदेश राज्य संग्रहालय में हुआ था जहां मिस्र की एक नवयुवती के परिरक्षित शव के साथ हैदराबाद के निजाम का उपाख्यान था कि कैसे निजाम उस ममी को यहाँ ले कर आया था। मुझे तो वह ममी लकड़ी की एक गुड़िया प्रतीत हो रही थी जिसे उत्तम रीति से सुगंधित लेप लगाकर संरक्षित किया हुआ था।
इसके अतिरिक्त कुछ प्राचीन छवियाँ स्मृति में थीं जिनमें मिस्र की विशेषता के रूप में उनके परिरक्षित शव दर्शाए गए थे। उन चित्रों में शव को श्वेत वस्त्र की पट्टियों से लपेटा गया था। अधिकांशतः उन्हें खड़ी अथवा शयनावस्था में प्रदर्शित किया गया था।
वो तो शिमला में मेरी दो हिमाचली विशेषज्ञों से भेंट हुई जिन्होंने मुझे ममी की आसनस्थ मुद्रा के विषय में जानकारी दी। मुझे गियु ममी के विषय में बताया। गियु ममी के विषय में एक महत्वपूर्ण व विशेष जानकारी दी कि उस शव के ऊपर किसी भी प्रकार का कृत्रिम परिरक्षक द्रव नहीं लगाया गया है। इसका अर्थ है कि उस ममी के परिरक्षण के लिए किसी भी प्रकार के रसायन का प्रयोग नहीं किया गया है।
गियु गाँव की यात्रा
नाको एवं ताबो के मध्य, स्पीति के सेतु को पार करते ही हमने एक विमार्ग लिया तथा उस पर लगभग ७ से ८ किलोमीटर तक यात्रा करने के पश्चात एक छोटे से गियु गाँव पहुंचे। आसपास का सम्पूर्ण भूभाग छोटे छोटे पत्थरों से भरा हुआ था। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो किसी दलन यंत्र की सहायता से चट्टानों के टुकड़े कर टेनिस की गेंद के आकार के छोटे छोटे गोल टुकड़ों को चारों ओर बिखेर दिया गया हो।
गाँव पर प्रथम दृष्टि पड़ते ही एक छोटी पहाड़ी पर हमें एक निर्माणाधीन मठ दृष्टिगोचर हुआ। मेरी अभिलाषा थी कि मैं इस मनमोहक शांत से गाँव के भीतर भ्रमण करूँ, किन्तु इंद्र देव की कृपा कुछ अधिक थी। अतः हमें मठ तक वाहन द्वारा ही पहुँचना पड़ा। वाहन से उतर कर हम उस धार्मिक स्थल की ओर बढे। मार्ग में ही मुझे एक छोर पर स्थित एक लघु कक्ष की ओर जाने का संकेत किया गया तथा भय विहीन होकर कक्ष का द्वार खोलने के लिए कहा गया। वहीं पर वह ममी रखी हुई थी, या यह कहूँ, जीवंत थी।
गियु ममी
उस कक्ष के भीतर एक लघु आकार की देह आसीन मुद्रा में स्थित थी। उसे देख ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो उसकी देह सिकुड़कर लघु आकार की हो गई हो, जैसे उसकी देह के सभी तरल पदार्थ सूख गए हों। उसकी देह का रंग गहरे भूरा था जो कदाचित जीवन के अंत से अब तक के दीर्घ काल का परिणाम था। एक हाथ ध्यान मुद्रा में घुटने पर रखा हुआ था किन्तु दूसरा हाथ मुझे भ्रमित कर रहा था। वह हाथ ठुड्डी के नीचे था या वक्र मुद्रा में रखा था अथवा कुछ अन्य भाग देह से सटाकर रखा था, मैं निश्चित नहीं कर पायी।
ऐसा कहा जाता है कि उसके केश एवं नख अब भी बढ़ते हैं। उसके दांत अब भी अक्षत थे।
ममी की देह पर श्वेत एवं पीत रंग के पारंपरिक भिक्षुक वस्त्र थे। उसे काँच के लघु कक्ष में रखा हुआ था। कक्ष के बाहर दीप एवं पूजा-अर्चना की अन्य वस्तुएं रखी थीं। वह ममी अब भी अपना एकाकी जीवन जी रही थी किन्तु उसके दर्शन करने अनेक पर्यटक स्पीति घाटी के इस भाग में आते हैं।
गियु ममी की खोज
कुछ वर्ष पूर्व, मार्ग का सुधार कार्य करते समय भारत तिब्बत सीमा पुलिस के एक अधिकारी को यह ममी प्राप्त हुई थी। यह ममी गियु गाँव में प्राप्त नहीं हुई थी। वहां से उसे गियु गाँव लाया गया था। कदाचित यह गाँव खोज स्थल से निकटतम रहा होगा। ममी के खोजस्थल की सटीक अवस्थिति की जानकारी किसी को नहीं है।
विएना स्थित रेडियो कार्बन डेटिंग के विशेषज्ञों के एक समूह ने इस ममी की आयु ५५० वर्ष के आसपास बताया है। ऐसी मान्यता है कि यह शव एक बौद्ध भिक्षुक का है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि मृत्यु के समय उसकी आयु चालीस वर्ष के आसपास थी। उन्हें भिक्षुक के शरीर पर किसी भी रसायन के अंश मात्र भी प्राप्त नहीं हुए। उनका निष्कर्ष था कि इस शव का संरक्षण किसी भी रसायन के बिना, पूर्णतः प्राकृतिक रूप से हुआ है। ऐसा माना जाता है कि बौद्ध भिक्षुक गहन ध्यान मुद्रा में बैठे हुए हैं।
इस भिक्षुक के शव के संरक्षण के विषय में सर्व सामान्य व्याख्या जो मैंने सुनी, वह यह है कि यह भिक्षुक कदाचित हिमस्खलन के भीतर दब गया होगा। भारत तिब्बत सीमा पुलिस द्वारा इसकी खोज होने के पूर्व तक, वह एक दीर्घ काल तक बर्फ की अनेक परतों के नीचे दबा रहा। अत्यंत शीत वातावरण के कारण शव का संरक्षण स्वयं ही हो गया। मौखिक परम्पराएं कहती हैं कि इस भिक्षुक का नाम संघा तेनजिन था तथा वह बौद्ध धर्म के गेलुग्पा पंथ का अनुयायी था।
ममी का संरक्षण
इस ममी के दर्शनोपरांत मेरे भीतर एक जिज्ञासा उमड़ रही थी जिसके कारण मैं शरीर के स्वसंरक्षण की जानकारी देते इस संकेतस्थल पर पहुँची। मैंने जाना कि बौद्ध धर्म के कुछ पंथों में बौद्ध भिक्षुओं के शरीर संरक्षण की यह नियोजित परंपरा थी। इस परंपरा के अनुसार बौद्ध भिक्षुक स्वेच्छा से भोजन का त्याग करते थे तथा अपने शरीर को समाधिस्थ कर ममी रूप की ओर प्रस्थान कराते थे। कदाचित उन्हें देह संरक्षण के विज्ञान का भलीभांति ज्ञान था।
सीमित आहार एवं ध्यान के संतुलन से वे देह संरक्षण करते थे। स्वाभाविक रूप से, संरक्षण की सफलता भिक्षुक की आध्यात्मिक योग्यता पर भी निर्भर करती होगी। इससे मुझे जैनियों की संथारा प्रथा का स्मरण हो आया जहां वे स्वेच्छा से भोजन का त्याग कर एवं ध्यान मग्न होकर समाधि ग्रहण कर लेते थे। गियु ममी ने विज्ञान एवं अनुसंधान की एक नवीन शाखा को जन्म दिया है जहां शरीर का संरक्षण बिना किसी रसायन के प्राकृतिक रूप से कैसे किया गया है, इस पर शोध किया जाए।
पर्यटन मानचित्र
गियु ममी ने गियु गाँव को हिमाचल प्रदेश पर्यटन के मानचित्र पर ला कर रख दिया है। यह विशेष रूप से स्पीति घाटी पर्यटक का अभिन्न अंग बनता जा रहा है। इस ममी की जानकारी ना होती तो कदाचित गिने-चुने पर्यटक ही विमार्ग लेकर गियु गाँव पहुँचने का कष्ट उठाते। अब यह गाँव एक ठेठ हिमाचली गाँव है जहां कुछ आवास एवं एक मठ है।
गाँव में भ्रमण करते समय मेरा ध्यान भूमिगत जल नलिका प्रणाली ने खींचा, जो मेरी दृष्टि से अद्भुत है। गाँव में एक मंदिर की संरचना की जा रही है जो कदाचित इस ममी के लिए है। कुछ वर्षों के पश्चात इस मंदिर से भी अनेक अनुष्ठान एवं किवदंतियां जुड़ जायेंगी।
आप सब पर्यटकों से मेरा आग्रह है कि इस ममी के अवलोकन से पूर्व, शरीर संरक्षण के विज्ञान की कुछ जानकारी अवश्य ले कर आयें। सम्पूर्ण विश्व में इस प्राचीन परम्परा एवं इसकी प्रणाली की तुलना करें। हिमाचल प्रदेश पर्यटन से भी मेरा आग्रह है कि वे भी इस विषय में कार्य करें तथा आवश्यक ज्ञान उपलब्ध कराएं।
इस बौद्ध भिक्षुक के जीवन एवं उसके ध्येय के विषय में विचार करूँ तो इस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए बाध्य हो जाती हूँ कि मरणोपरांत ५०० वर्ष पश्चात भी, स्पीति घाटी के अपने छोटे से गाँव की वह अब भी सहायता कर रहा है।