कैलाशनाथ मंदिर, कांचीपुरम का तीसरा विशालतम मंदिर तथा प्राचीनतम शिव मंदिर। इससे पूर्व मैंने कांचीपुरम के दो सबसे बड़े मंदिरों के दर्शन किये थे, कांची कामाक्षी मंदिर एवं एकम्बरेश्वर मंदिर। इन दो मंदिरों में शक्ति की उर्जा ने मुझे ओतप्रोत कर दिया था। इसी उर्जा में मैं इस प्रकार भावविभोर हो गयी थी कि कब मेरा ऑटो कैलाशनाथ मंदिर के समक्ष पहुँच कर रुक गया, मुझे आभास ही नहीं हुआ। मंदिर के समक्ष एक ठेलागाड़ी में रखी कांसे की पंक्तिबद्ध मूर्तियों ने मेरा स्वागत किया।
कैलाशनाथ मंदिर एक ऐसा मंदिर है जिसमें विद्वानों व शोध छात्रों की विशेष रुची रहती है। एक एक मूर्ति का गहन अध्ययन किया गया है तथा इन पर कई पुस्तकें भी लिखी गयी हैं। उन्होंने इस मंदिर का इतना महिमा मंडन किया है कि मैं इस मंदिर के दर्शन करने के लिए अत्यंत रोमांचित एवं उत्सुक हो रही थी। मंदिर को देखने के पश्चात यह मुझे अन्य दो मंदिरों की अपेक्षा किंचित छोटा प्रतीत हुआ। सितम्बर की उस सुबह मैं यहाँ इकलौती दर्शनार्थी थी। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो सम्पूर्ण मंदिर मेरी ही प्रतीक्षारत है।
शब्दों को रोकते हुए कहूं तो यह अत्यंत ही लुभावना एवं रमणीय मंदिर है। शिल्पकारी के परिपूर्ण इसकी भित्तियों की सुन्दरता अचंभित कर देती है। निर्मल नीला आकाश इसकी सुन्दरता में चार चाँद लगा देता है।
चिंतन गुफाएं या ध्यान मंदिर
कांचीपुरम के कैलाशनाथ मंदिर की चिंतन गुफाओं अथवा ध्यान मंदिरों के विषय में मैंने पढ़ा था तथा उनके चित्र भी देखे थे। किन्तु मैंने कल्पना नहीं की थी कि मंदिर के समक्ष ही ऐसी ८ गुफाएँ मुझे पंक्तिबद्ध दिखेंगी। वे ऐसी प्रतीत हो रही थीं मानों मंदिर के समक्ष दीवार बन कर खड़ी हों। मुख्य मंदिर के समक्ष ये ८ गुफाएं वास्तव में ८ छोटे मंदिर हैं जिनके भीतर शिवलिंग स्थापित हैं।
गोपुरम के नीचे स्थित प्रवेश द्वार, इन गुफा मंदिरों के बीच इस प्रकार स्थित है कि २ गुफा एक ओर तथा ६ गुफाएं दूसरी ओर हैं। इनकी वास्तुकला अद्वितीय है। आश्चर्य नहीं कि स्थापत्य-कला एवं ऐतिहासिक-कला क्षेत्र के विद्यार्थीयों के लिए यह विशेष रूचि का विषय रहा है। गोलाकार स्तंभ तथा इनके आधार, जो पौराणिक सिंह के आकार में हैं, पल्लव वंश की विशेष पहचान है।
मंदिर के चारों ओर स्थित भित्त अर्थात् प्राकार में भी कई छोटी चिंतन गुफाएं हैं। यूँ कहा जा सकता है कि मुख्य मंदिर को चारों ओर से घेरे कई छोटे मंदिर हैं। ये इतनी छोटी हैं कि एक बार में केवल एक ही मनुष्य भीतर जा सकता है। आसपास देखने या घूमने का भी स्थान शेष नहीं रहता। चिंतन गुफाओं के सामने की भित्त पर शिल्पकारी एवं चित्रकारी की गयी है। शिल्पकारी भंगित नहीं हैं किन्तु चित्रकारी लगभग नष्ट होने की कगार पर है। इन्हें देख केवल कल्पना करनी पड़ती है कि ये वास्तव में कैसी रही होंगी। अधिकतर प्रतिमाएं शिव-पार्वती की हैं। बीच में कुछ प्रतिमाएं गणेश की भी हैं।
मुख्य मंदिर के चारों ओर लगभग ५० छोटी चिंतन गुफाएं हैं। हम सोच में पड़ जाते हैं कि अंततः इनका उपयोग क्या था? मुख्य मंदिर के साथ जब इन सब मंदिरों में भी पूजा अर्चना की जाती थी तब यहाँ कितना भव्य दृश्य रहा होगा!
मुख्य मंदिर
आरंभिक ८ छोटे मंदिरों को पार कर मैंने मुख्य मंदिर में प्रवेश किया। मैंने स्वयं को एक लकड़ी के नीले द्वार के समक्ष खड़े पाया जिसके दोनों ओर शिव की बड़ी प्रतिमाएं थीं। विशाल होने के साथ उनका श्वेत रंग भी उन्हें विशेष रूप प्रदान कर रहा था। वे दोनों प्रतिमाएं एक दूसरे के समक्ष खड़ी थीं किन्तु भिन्न दिशाओं की ओर देख रही थीं। उनके चरणों में पुनः पल्लव वंश के विशेष चिन्ह, सिंह उत्कीर्णित थे। ये वही सिंह हैं जिन्हें आप कांचीपुरम में हर ओर देख सकते हैं। मंदिर का शिखर यहाँ से दिखाई नहीं दे रहा था।
मैं अनायास ही बाईं ओर मुड़ गयी, मानो मंदिर में प्रदक्षिणा कर रही हूँ। मेरी बाईं ओर पंक्ति में चिंतन गुफाएं अथवा छोटे ध्यान मंदिर थे। ये मंदिर मेरी जिज्ञासा और बड़ा रहे थे। कुछ कदमों के पश्चात मुख्य मंदिर तथा इसका मनमोहक शिखर मेरे समक्ष प्रकट हुआ। मंदिर की अप्रतिम शिल्पकारी देख मेरी आँखें चुंधिया गयीं। मष्तिष्क की शिराएँ सुन्न सी होने लगीं। गलियारे में खड़ी मैं निश्चय नहीं कर पा रही थी कि किस ओर दृष्टी डालूँ। एक ओर वास्तुशिल्प का अनूठा नमूना था, पत्थर की न्यूनतम संभव गुफाएं! दूसरी ओर पल्लव वास्तुकला का अप्रतिम नमूना था। भित्त के प्रत्येक भाग पर प्रतिमाएं उत्कीर्णित थीं। ये प्रतिमाएं अत्यंत सम्मोहक एवं चित्ताकर्षक थीं।
स्तंभ युक्त मंडप
मुख्य मंदिर के समक्ष एक मंडप है जो कई स्तंभों पर खड़ा है। अभी यह दोनों ओर से बंद है। एक समय यह मंदिर का स्वतन्त्र मंडप था जिसे कालान्तर में एक अर्ध-मंडप निर्मित कर मुख्य मंदिर से जोड़ दिया गया था। उसे देख ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ तो है जो सही नहीं है। बीच के मंडप की सादी भित्तियाँ कुछ भिन्न प्रतीत होती हैं। मैं कल्पना करने लगी कि मध्य मंडप के बिना, मंदिर एवं अर्ध-मंडप कितने मनमोहक लगेंगे! कदाचित अधिक संतुलित एवं सुडौल।
कुछ आगे जाकर हमें मंदिर के बाई और एक प्रवेश द्वार दिखाई दिया। एक इकलौता पुजारी मंदिर का दैनिक कार्यभार संभालता है। इसके ठीक विपरीत, एकम्बरेश्वर मंदिर में मैंने पुजारियों की सेना देखी थी जो मंदिर के दैनिक पूजा अर्चना में व्यस्त, यहाँ से वहां दौड़ रहे थे। इस मंदिर में यह इकलौता पुजारी दर्शनार्थियों की प्रतीक्षा में बैठा प्रतीत हो रहा था। फिर भी, विनम्रता तो छोड़िये, उसकी पुजारी होने की अकड़ में कहीं कमी नहीं दिखी।
गर्भगृह
मंदिर का गर्भगृह अपेक्षाकृत सादा है। गर्भगृह के भीतर काले ग्रेनाइट में बना १६ पक्षों का शिवलिंग है। शिवलिंग के पीछे सोमस्कंद की छवि है। सोमस्कंद अर्थात् कार्तिक सहित शिव तथा उमा। सोमस्कंद मैंने केवल कांचीपुरम के मंदिरों में ही देखा है।
गर्भगृह के चारों ओर एक संकरा प्रदक्षिणा पथ है। यह इतना संकरा है कि इसके भीतर जाने की मेरी हिम्मत नहीं हुई। मुझे संकरे स्थानों में घबराहट जो होती है। मुझे समझ नहीं आया कि इतनी संकरी प्रदक्षिणा पथ का औचित्य क्या था। वह भी सीधा सरल नहीं था। कुछ सीड़ियाँ चढ़ना, रेंग कर नीचे उतरना, तत्पश्चात बाहर निकलते समय फिर चढ़ाना तथा रेंग कर उतरना। मैंने अन्दर ना जाना ही ठीक समझा। ना जाने क्यों, पुजारी ने सुझाया कि मैं उल्टी दिशा में परिक्रमा करूँ जो कुछ आसान होता। किन्तु मेरे भीतर के सनातन संस्कारों ने मुझे इसकी अनुमति नहीं दी।
बाद में मैंने पढ़ा कि इस कठिन संकरे प्रदक्षिणा पथ के पीछे दार्शनिक सिद्धांत है। इसकी तुलना पुनर्जन्म से की गयी है। मुझे तो वह राजाओं द्वारा बनाये जाने वाले, युद्ध में बचकर भागने के रास्ते के सामान प्रतीत हो रहा था।
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शुण्डाकार शिखर
कैलाशनाथ मंदिर का शिखर शुण्डाकार अर्थात पिरामिड के आकार का है जिसके प्रत्येक फलक पर प्रतिमाएं उत्कीर्णित हैं। उसे देख ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे पत्थर की पट्टियों को हलके से एक दूसरे पर टिका कर रखा हो। हर पट्टी एक कथा कहती है। शिखर का ऊपरी भाग गोलाकार है। इसके ठीक नीचे, चारों दिशाओं में नंदी की प्रतिमाएं हैं।
आप कहीं भी खड़े हो जाईये, आपको सिंहों के आधार पर खड़े स्तंभों की कतार अवश्य दृष्टिगोचर होंगी। मंदिर के समक्ष यदि आप एक कोने में खड़े हो जाएँ तो आपको ऐसा प्रतीत होगा मानो आप सिंहों के किसी अभयारण्य में आ गए हों।
मंदिर की भित्तियों पर आप शिव के इतने अवतार देखेंगे जो कदाचित आपकी जानकारी एवं कल्पना से भी परे हो। मुख्य मंदिर के पीछे कार्तिकेय को समर्पित एक मंदिर है। यहाँ आप काले पत्थर में बनी उसकी प्रतिमा या विग्रह देख सकते हैं। यहाँ दुर्गा की एक मनमोहक मूर्ति है। साथ ही सप्तमातृका भी है।
कैलाशनाथ मंदिर परिसर
कैलाशनाथ मंदिर इस परिसर का इकलौता मंदिर है। अन्य मंदिर परिसरों की भान्ति यहाँ मुख्य मंदिर के साथ अन्य मंदिर नहीं हैं। भारत के कई स्थानों में शिव मंदिर के भीतर देवी का भी मंदिर होता है। किन्तु कांचीपुरम में इसकी ठीक विपरीत प्रथा है। यहाँ के शिव मंदिरों के भीतर देवी का मंदिर नहीं होता। कांचीपुरम में देवी अपने स्वयं के मंदिर परिसर में निवास करती है।
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मंदिर के पृष्ठ भाग एवं चिंतन गुफाओं के मध्य मुझे नंदी की कुछ प्रतिमाएं दिखाई दीं। मेरे अनुमान से यह गुफाओं में शिव विग्रह अर्थात् शिव प्रतिमाओं के लिए बनायी गयी हैं।
नंदी मंडप
मंदिर के समक्ष, बड़े मैदान के उस पार, लगभग १०० मीटर की दूरी पर मुख्य नंदी मंडप है। नंदी की बड़ी प्रतिमा है जिसका मुख गर्भगृह की ओर है। नंदी मंडप एवं गर्भगृह के लिंग के मध्य पर्याप्त दूरी तथा पत्थरों की कई परतें है। मंडप के ऊपर चार स्वतन्त्र स्तंभ हैं। किन्तु मुझे यह बनावटी प्रतीत हुआ। पता नहीं नंदी मंडप सदैव इतनी दूर, ऐसा ही था या किसी संरक्षण कार्य के चलते इसे इतनी दूर हटाया गया है।
जब आप मंदिर से दूर जाते हुए घास के मैदान में चलेंगे तब आप बाहरी भित्तियों से एक एक कर सिंह बाहर आते देखेंगे। मैं सोच में पड़ गयी कि क्या ये सिंह भी एक समय स्वतन्त्र स्तंभ थे तथा उन्हें कालान्तर में भित्तियों से जोड़ दिया गया है! मंदिर परिसर के बाहर से आप चिंतन गुफाओं अर्थात् ध्यान मंदिरों के शिखर देख सकते हैं। ये मुख्य शिखर के सूक्ष्म रूप प्रतीत होते हैं। कांचीपुरम के अन्य शिव मंदिरों के समान यहाँ भी ध्यान मंदिरों के मध्य नंदी हैं जिन्हें भित्ती पर बिठाया गया है।
मंदिर के समक्ष स्थित घास के मैदान के उस पार, एक ओर एक जल कुण्ड है।
कैलाशनाथ मंदिर का इतिहास तथा वास्तुशिल्प
पत्थर से बना यह मंदिर ७वीं. सदी में पल्लव सम्राट नरसिंहवर्मन द्वितीय द्वारा निर्मित है। इसका अग्रभाग जो बाद में निर्मित प्रतीत होता है, महेंद्रवर्मन द्वितीय द्वारा निर्मित है। ऐसा माना जाता है कि राजराजा चोल जिसने भव्य बृहदीश्वर मंदिर का निर्माण कराया था, कैलाशनाथ मंदिर से प्रेरित था।
मंदिर का आधार कठोर ग्रेनाइट पत्थर से बना है जबकि ऊपरी संरचना नर्म बलुआ पत्थर द्वारा निर्मित है। मुख्य मंदिर लगभग आयताकार है, जो की इसके शुण्डाकार शिखर का आधार भी है। मुख्य मंदिर के चारों ओर स्थित ध्यान मंदिर इस मंदिर परिसर की विशेषता है जो मैंने आज तक अन्य किसी मंदिर में नहीं देखी। ये मुझे कुछ कुछ ऋषिकेश की ८४ कुटियों का स्मरण कराते हैं।
कैलाशनाथ मंदिर कदाचित एक राजसी मंदिर था| इसकी स्थापना राज परिवार ने कदाचित ध्यान की निजी आवश्यकताओं के लिए करवाई थी। यह अब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अंतर्गत है। वे इसकी देखरेख एवं रखरखाव करते हैं। दर्शनार्थियों की अनुपस्थिति इसे भूतकाल के अवशेष सा आभास प्रदान कर रही थी। वास्तव में यह एक जागृत मंदिर है जहां नित्य पूजा अर्चना की जाती है। मुझे बताया गया कि शिवरात्री के उत्सव में यहाँ दर्शनार्थियों की भीड़ लगती है।
कैलाशनाथ मंदिर की महत्ता इस तथ्य में है कि यह कदाचित इस क्षेत्र का, पत्थर में निर्मित, प्रथम एकल मंदिर है। इससे पूर्व मंदिरों को उसी स्थान की शिलाओं को काट कर निर्मित किया जाता था। जिन्हें गुफा मंदिर भी कहा जाता था। ऐसे कई मंदिर आप समीप ही महाबलीपुरम में देख सकते हैं।
कैलाशनाथ मंदिर के दर्शन हेतु कुछ सुझाव
कांचीपुरम नगरी में कहीं से भी आप एक ऑटो द्वारा यहाँ आसानी से पहुँच सकते हैं। यह मंदिर शिव कांची में स्थित है।
मंदिर प्रातः ६ बजे से दोपहर १२ बजे तक, तत्पश्चात सायं ४ बजे से रात्रि ९ बजे तक खुला रहता है।
इस मंदिर का विस्तार से अवलोकन करने के लिए ३० मिनट का समय पर्याप्त है।
यह अत्यंत चित्रण-योग्य मंदिर है। अच्छी बात यह है कि यहाँ छायाचित्रण की अनुमति भी है। केवल गर्भगृह के भीतर फोटो खींचना मना है। छायाचित्रण अर्थात् फोटो खींचने के लिए सुबह का समय सर्वोत्तम है।
कांची कुदिल नामक संग्रहालय भी समीप ही है जिसे एक पुराने विरासती घर को परिवर्तित कर बनाया गया है। मंदिर के दर्शन के साथ इस संग्रहालय को भी आप देख सकते हैं।