रघुराजपुर का पट्टचित्र शिल्पग्राम – पुरी, ओडिशा

5
3503

ओडिशा यात्रा के समय मेरी इच्छा-सूची में सर्वप्रथम स्थान था, रघुराजपुर के पट्टचित्र कारीगरों से भेंट करना।  पारंपरिक कला एवं  शिल्पग्राम के दर्शन करना मेरे लिए सदैव ही आनंद की अनुभूति होती है। मेरे लिए उनका अब भी वही महत्व है जितना अतीत में था, अर्थात वे मेरे लिए उत्कृष्टता का केंद्र बिन्दु हैं। रघुराजपुर गाँव का प्रत्येक व्यक्ति एक ही कार्यक्षेत्र में रत है। इसीलिए ऐसा प्रतीत होता है कि उनके मध्य एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा रहती होगी जो उन्हे अपने कार्य की गुणवत्ता उत्कृष्ट बनाने हेतु प्रेरित करती होगी। कच्चे माल की आवक स्त्रोत निर्धारित करना तथा ग्राहकों तक तैयार कलाकृतियां पहुंचना इस सम्पूर्ण आपूर्ति श्रंखला का अपेक्षाकृत सर्वाधिक सरल कार्य होगा।

ओडिशा के पट्टचित्र कलाकृतियाँ
ओडिशा के पट्टचित्र कलाकृतियाँ

एक यात्री के रूप में मेरे लिए यह एक ज्ञानवर्धक अनुभव था कि कलाकृतियों का केवल क्रय नहीं करना चाहिए अपितु इन पारंपरिक कलाकृतियों को गढ़ने में कितना समय, प्रयास, कौशल एवं ज्ञान का निवेश हुआ है, यह भी समझना चाहिए।

इससे पूर्व मैंने उत्तर प्रदेश, गुजरात, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ तथा बंगाल के शिल्प ग्रामों का भ्रमण कर लिया था। अतः अपनी इस ओडिशा यात्रा में मैंने निश्चय किया कि रघुराजपुर शिल्पग्राम के कारीगरों की शिल्पकला को निकट से जानने के लिए उनके साथ कुछ समय व्यतीत करूँ।

रघुराजपुर गाँव

रघुराजपुर गाँव की चित्रित भित्तियां
रघुराजपुर गाँव की चित्रित भित्तियां

पुरी से लगभग १४ किलोमीटर दूर स्थित यह एक छोटा सा गाँव है। गाँव के मध्य में १२ मंदिर हैं जिनके दोनों ओर एक पंक्ति में लगभग १५० घर हैं। मंदिर भले ही छोटे हैं किन्तु घरों के अनुपात में मंदिरों की संख्या देख मुझे सुखद आनंद की अनुभूति हुई। एक प्रकार से ये मंदिर इस गाँव का मेरु दंड है जिसके चारों ओर गाँव की भौतिक देह कार्यरत है।

और पढ़ें: कुचिपुडी – आंध्र प्रदेश का नृत्यग्राम

रघुराजपुर गाँव के कलाकार
रघुराजपुर गाँव के कलाकार

रघुराजपुर गाँव में भ्रमण करना किसी मुक्तांगन संग्रहालय में भ्रमण करने के समान है। गांववासियों के गृह सुंदर रंग-बिरंगे चित्रों द्वारा इतने अप्रतिम रूप से अलंकृत हैं कि प्रत्येक गृह के समक्ष कुछ क्षण ठहर कर उन्हे निहारने के लिए आप बाध्य हो जाते हैं। रघुराजपुर के निवासियों ने यह सुनिश्चित किया है कि वे विभिन्न शैली की कलाकृतियाँ अपनी भित्तियों पर प्रदर्शित करें। भवनों के छज्जों पर बैठकर कारीगर इन कलाकृतियों को रचते हैं।  इस गाँव की एक छोटी सी सैर आपको ओडिशा की कला एवं शिल्प परंपरा के एक भिन्न विश्व में ले जाएगी।

काष्ठ कला से जगन्नाथ मंदिर
काष्ठ कला से जगन्नाथ मंदिर

ताड़ के पत्ते पर पारंपरिक चित्रकला

रघुराजपुर गाँव पट्टचित्र के चित्रीकरण में सर्वाधिक प्रसिद्ध है। पट्टचित्र ताड़ के पत्तों पर चित्रकारी करने की एक प्राचीन कला है। किन्तु वर्तमान में यहाँ के कलाकार ताड़ पत्तों के अतिरिक्त अन्य माध्यमों पर भी अपनी कलाकृतियाँ प्रदर्शित कर रहे हैं, जैसे सूती व रेशमी वस्त्र, नारियल की खोपड़ी, सुपारी, कांच की बोतल, पत्थर, लकड़ी इत्यादि। वे मुखौटे एवं खिलौने भी बनाते हैं।

और पढ़ें: एकताल – छत्तीसगढ़ का शिल्पग्राम

पट्टचित्र को समेट कर रखे हुए
पट्टचित्र को समेट कर रखे हुए

गाँव में साहू, स्वैन, महाराणा, सुनार इत्यादि प्रमुख समुदाय हैं जो इन कार्यकलापों में कार्यरत हैं। सम्पूर्ण गाँव में केवल एक ही व्यक्ति ब्राह्मण है।

जब हमने इस गाँव का भ्रमण किया था तब यहाँ के सभी वृक्षों के तने अनावृत थे। वृक्षों पर ना कोई शाखा थी ना ही पत्ते थे। हमें बताया गया कि चक्रवात ने जब यहाँ कहर ढाया था तब वृक्षों को इस प्रकार तहस-नहस कर दिया था। अतीत की स्मृति में लगभग खोते हुए सभी गांववासी मुझ से कह रहे थे कि यदि चक्रवात से पूर्व मैंने यहाँ भ्रमण किया होता तो मैं भी अनेक पुष्प एवं फलधारी वृक्षों से परिपूर्ण गाँव देख पाती।

रघुराजपुर की पट्टचित्र चित्रकला शैली

रघुराजपुर की पट्टचित्र चित्रकला शैली पुरी की संस्कृति का एक अभिन्न अंग है। जिस समय पुरी के जगन्नाथ मंदिर के त्रिमूर्ति का सिंहासन रिक्त रहता है उस समय सुनहरे रंग में रंगे उनके पट्टचित्रों को पूजा जाता है। यह उस समय होता है जब श्री जगन्नाथ १०८ घड़ों के स्नान के लिए स्नान मंडप जाते हैं तथा रुग्ण हो जाते हैं। इस गाँव के कलाकारों की अनेक पीढ़ियाँ इस अनुष्ठानिक चित्रकला शैली की चित्रकारी करती आ रही हैं।

पट्टचित्र चित्रकारी पारंपरिक रूप से ताड़ की पत्तियों की आपस में जुड़ी संकरी पट्टियों पर किया जाता है। साधारणतः यह चित्रकारी काले रंग में की जाती है जिसमें सर्वप्रथम ताड़ की पत्तियों की सतह को उकेर कर उसमें काला रंग भरा जाता है।

और पढ़ें: तेलंगाना की चेरियल चित्रकारी

पट्टचित्र के नवीन संस्करण वस्त्र पर किये जा रहे हैं। पट्टचित्र का यह संस्करण पर्यटकों में अधिक लोकप्रिय है क्योंकि उनमें चटक रंगों का प्रयोग किया जाता है तथा उनके विषय भी भिन्न भिन्न होते हैं। समकालीन संस्करण रेशमी वस्त्रों पर किये जा रहे हैं जो इस चित्रकला को एक कोमलता का आभास प्रदान करते हैं। इन कलाकृतियों को आप धारण भी कर सकते हैं तथा अपने निवासस्थान की भित्तियों को अलंकृत भी कर सकते हैं।

पट्टचित्र कारीगरों से भेंट

हमने आलोक नाथ साहूजी से उनके एकल-कक्ष कार्यशाला में भेंट की। वहाँ उनके कुछ युवा प्रशिक्षु चित्रकारी करने में व्यस्त थे। पट्टचित्र कला शैली एवं उनके विषयों व प्रसंगों की विविधता दर्शाने के लिए उन्होंने अपनी सर्वोत्तम कलाकृतियाँ हमारे समक्ष रखीं।

चित्रकारी के लिए चित्र-फलक किस प्रकार तैयार किया जाता है यह उन्होंने हमें बताया। पुरानी घिसी हुई साड़ियों के समान, प्रयोग किये गए कोमल वस्त्रों की अनेक परतों को इमली के बीजों से निर्मित गोंद की लुगदी द्वारा चिपकाया जाता है। तत्पश्चात उन्हे धूप में सुखाया जाता है। सूखने पर वे लगभग कागज की मोटी चादर के समान हो जाते हैं तथा उससे अधिक मजबूत हो जाते हैं। वस्त्र पर लगे रंगों के धब्बों को मिटाने तथा उसकी सतह को श्वेत करने के लिए खड़िया के चूर्ण का प्रयोग किया जाता है। इसके पश्चात वस्त्र की सतह को संगमरमर के टुकड़े द्वारा घिस कर चमकाया जाता है। दोनों में से जो भी सतह अधिक चमकदार व चिकनी होगी, उसे नीचे की ओर रखकर दूसरी सतह पर चित्रकारी की जाती है।

शिल्पग्राम का विडिओ

यह विडिओ मेरे शिल्पग्राम भ्रमण के समय बनाया गया था। इसे अवश्य देखें ताकि आपको इस कला शैली को समझने में आसानी होगी।

चित्रकारी में प्रयुक्त प्राकृतिक रंग

इन कलाकृतियों को चित्रित करने में वे मूलतः ५ प्राकृतिक रंगों का प्रयोग करते हैं। अन्य रंग वे इन रंगों के मिश्रण से तैयार करते हैं। रंगों को बांधने के लिए प्राकृतिक गोंद का प्रयोग किया जाता है। ये ५ प्राकृतिक रंग इस प्रकार प्राप्त किये जाते हैं:

श्वेत रंग – सीपियों का चूर्ण

लाल रंग – लाल पत्थर

नीला रंग – खंडनील पत्थर

पीला रंग – हिंगुल पत्थर जिसे केवल शीत ऋतु में ही पीसा जा सकता है जब तापमान नीचे रहता है क्योंकि उच्च तापमान में यह ज्वलनशील है।

काला रंग – तेल के दीपक की कालिख

ये सभी रंग कारीगर स्वयं गाँव में ही बनाते हैं। रंगने की कूची में मृत मूषकों के केश का प्रयोग होता है। पूर्व में गांववासी कूची भी स्वयं ही बना लेते थे। किन्तु अब वे इन कूचियों को बाजार से क्रय करते हैं।

और पढ़ें: राजस्थान की लघु चित्रकार

पट्टचित्र अर्थात ताड़ के पत्तों पर चित्रकारी

ताड़ के वृक्षों से पत्ते चुनने का कार्य भी गांववासी स्वयं ही करते हैं। इन पत्तों को हल्दी एवं नीम के पत्तों के संग उबालते हैं। इसके पश्चात उन्हे कम से कम २० दिनों तक धूप में सुखाते हैं। तत्पश्चात इन्हे घर में चूल्हे के निकट रखकर एक लंबी प्रक्रिया के तहत और सुखाया जाता है। इस प्रक्रिया द्वारा वे सुनिश्चित करते हैं कि ताड़ के इन पत्तों को दीमक इत्यादि कीट कभी नष्ट ना कर पाएं। यह सब जानने के पश्चात आप भी मुझसे सहमत होंगे कि ऐसी कलाकृतियों को देखते समय हम कभी उनके निर्माण में लगने वाले विचार, ज्ञान तथा श्रम पर अधिक ध्यान नहीं देते।

ताड़पत्र पर जगन्नाथ, सुभद्रा, बलभद्र
ताड़पत्र पर जगन्नाथ, सुभद्रा, बलभद्र

ताड़ के पत्तों को कलाकार लोहे की नुकीली कलम द्वारा खुले हाथों से उकेरते हैं। उत्कीर्णन जितना गहरा होगा रेखाएं उतनी ही दृश्य होंगी। इन उत्कीर्णन को वे काले रंग से भरते हैं। एक बार यह रंग सूख जाए तो इन्हे मिटाना संभव नहीं।

रघुराज पट्टचित्र यहाँ से खरीदें – ऑनलाइन स्टोर

इन पट्टचित्रों में मुझे वे चित्र अत्यंत विशेष प्रतीत हुए जिन्हे तह लगा कर रखा जा सकता है। इन्हे पूर्णतः खोल दें तो आप एक लंबी कथा देखेंगे किन्तु जब इसके पल्लों की तह लगाएं तो दो स्तरों पर दो भिन्न कथाएं देख सकते हैं।

पट्टचित्रों के विषय

हिन्दू पौराणिक कथाएं इन चित्रों के सर्वाधिक लोकप्रित विषय हैं।

इनमें भी सर्वाधिक लोकप्रिय विषय हैं जगन्नाथ, सुभद्रा एवं बलभद्र। अनंत काल से तीर्थयात्री इन्हे अपने साथ ले जा रहे हैं, कुछ स्मारिका के रूप में तो कुछ अपने घरों के मंदिर में रखकर उन्हे पूजने के लिए। वर्ष की ४ पूर्णिमा रात्रि के समय देवों पर सुनहरा शृंगार किया जाता है। देव का यही सुनहरा शृंगार रघुराजपुर के कलाकारों को सर्वाधिक प्रिय है। इस मंदिर में देवों का यह सुनहरा शृंगार किया जाता है जब रथ यात्रा आरंभ होती है, पौष पूर्णिमा, कार्तिक पूर्णिमा तथा डोला पूर्णिमा के दिन।

रथ यात्रा

रथ यात्रा - पट्टचित्र पर चित्रित
रथ यात्रा – पट्टचित्र पर चित्रित

पुरी मंदिर से संबंधित एक अन्य विषय जो इन पट्टचित्र कलाकारों में अत्यंत लोकप्रिय है, वह है पुरी की रथ यात्रा। क्यों ना हो? अंततः यह विश्व का सर्वविख्यात उत्सव जो है। लगभग आदमकद आकार की प्रतिकृति में तीनों रथों की प्रत्येक विशेषता को सूक्ष्मता से प्रदर्शित किया गया है। जैसे तीन रथों में तीन प्रकार के ध्वज इत्यादि। प्रत्येक आयोजन में उपस्थित भीड़ भी इन चित्रों का अभिन्न भाग होते हैं । कुछ दर्शन करते दर्शाये गए हैं  तो कुछ भजन-कीर्तन कर रहे हैं तो कुछ रथ को खींच रहे हैं। राजाओं को पालकी पर बैठकर रथ यात्रा में भाग लेते दर्शाया गया है।

जात्री -पति

जात्री पति - जगन्नाथ यात्रा का चित्रण
जात्री पति – जगन्नाथ यात्रा का चित्रण

पट्टचित्र कला शैली में मेरा प्रिय विषय जात्री–पति है। इस पारंपरिक चित्र में एक तीर्थयात्री की जगन्नाथ पुरी तक की यात्रा का वर्णन किया जाता है। इसमें तीर्थयात्री द्वारा चले गए तीर्थमार्ग का चित्रण किया जाता है, जैसे प्राचीन अठारनाला पुल अथवा मंदिर की २२ सीढ़ियाँ या सिंह द्वार जैसे द्वार इत्यादि। एक विस्तृत चित्र में इसे एक शंख के रूप में प्रदर्शित किया जाता है जहां मंदिर की प्रमुख मूर्तियाँ भी चित्रित होती हैं । इस प्रकार के चित्रण को शंख नाभि पट्टचित्र कहते हैं। इस प्रकार का चित्रण अब दुर्लभ है। अनलाइन स्टोर में मुझे बहुत कम विकल्प दिखाई दिए। रघुराजपुर में आपको इसका साधारण रूप दृष्टिगोचर होगा किन्तु वह भी सुंदरता में कम नहीं है।

भगवान कृष्ण की जीवनी

समग्र कला से बना हाथी
समग्र कला से बना हाथी

श्री कृष्ण की जीवनी, यह भी एक प्रिय विषय है। मैंने अनेक चित्र देखे जिनमें कृष्ण की जीवनी प्रस्तुत की गई है। उनमें अनंत नारायण अवतार से लेकर ब्रज में उनके बालपन तक तथा द्वाराका में उनके राज तक की कथाएं प्रदर्शित किये गए हैं। रामायण तथा बौद्ध धर्म की कथाएं भी चित्रित हैं किन्तु वे अधिक लोकप्रिय नहीं हैं। दशवातार अर्थात विष्णु के १० अवतार भिन्न भिन्न मण्डल संरचनाओं में चित्रित किये गए हैं। पट्टचित्रों में रासलीला भी एक लोकप्रिय विषय है। ओडिशा देवी की भूमि भी है। अतः आप यहाँ अनेक चित्र ऐसे भी देखेंगे जिनमें देवी के विभिन्न स्वरूपों को प्रदर्शित किया गया है। महिषासुरमर्दिनी उनमें सर्वाधिक लोकप्रिय है।

वर्तमान काल में धर्मनिरपेक्ष विषय भी अपना स्थान बनाते दृष्टिगोचर होते हैं। उनमें सर्वाधिक प्रिय विषय है जीवन वृक्ष अर्थात ‘ट्री ऑफ लाइफ’। ज्यामितीय आकृतियों में आदिवासी चित्रकारी शैली भी प्रसिद्धि अर्जित कर रही है।

और पढ़ें: बिदरी कला में धातु शिल्प का निर्माण

कभी कभी रचनात्मक चित्रकार विभिन्न चित्र शैलियों का सम्मिश्रण भी करते हैं। जैसे मैंने एक चित्र देखा जिसमें जगन्नाथजी के मुखड़े पर दशावतार चित्रित किया हुआ था।

जगन्नाथ, सुभद्रा एवं बालभद्र के कुछ चित्र हैं जो सूखे नारियल की खोपड़ी पर चित्रित हैं। ये कलाकृतियाँ पुरी की स्मृति के रूप में पर्यटकों में अत्यंत प्रसिद्ध हैं। इसका कारण यह हो सकता है कि इनके मूल्य सर्व सामान्य के लिए वहन करने योग्य है। इन्ही के लघु रूप में ऐसी ही चित्रकारी सुपारी पर भी की गई हैं। मुझे बताया गया कि सौभाग्य प्राप्त करने के लिए लोग इसे अपने द्वार के समक्ष लटकाते हैं।

इस गाँव में विभिन्न देव-देवियों के मुखौटे भी बनाए जाते हैं। मैं यह नहीं कहूँगी कि यह शैली इस गाँव की वैशिष्ठता है।

केलूचरण महापात्रा की जन्मस्थली

ओडिशी गुरु केलुचरण महापात्रा की जन्मस्थली - रघुराजपुर
ओडिशी गुरु केलुचरण महापात्रा की जन्मस्थली – रघुराजपुर

यदि आप भारत के ८ शास्त्रीय नृत्यों के विषय में जानते हैं तो आपको ओडिसी नृत्य शैली के विषय में अवश्य ज्ञात होगा। गुरु केलूचरण महापात्रा ओडिसी नृत्य में प्रविण्यता प्राप्त सर्वप्रसिद्ध नर्तकों में से एक हैं। रघुराजपुर उनकी जन्मस्थली है। कालांतर में वे भुवनेश्वर में स्थानांतरित हो गए थे। उन्होंने अपनी जन्मस्थली अर्थात रघुराजपुर में एक मंदिर का भी निर्माण कराया था। किन्तु इस गाँव में उनका स्वयं का निवासस्थान अब खंडहर में परिवर्तित हो गया है। उस स्थान पर गांववासी उनकी स्मृति में एक स्मारक बनवाना चाहते हैं किन्तु इस उपक्रम में उनके परिवार द्वारा नेत्रत्व स्वीकारने की आवश्यकता है। गाँव के बाहर एक छोटे से संकुल में उनकी प्रतिमा अवश्य स्थापित की गई है।

गोटीपुआ गुरुकुल

गोटीपुआ एक प्रकार का ओडिसी नृत्य प्रदर्शन है जो नवयुवक स्त्रियों का भेष धर कर करते हैं। इस शैली में नृत्य में निपुणता तो अपेक्षित ही है, साथ ही देह में अत्यधिक लचीलापन भी आवश्यक है। गोवा में प्रत्येक वर्ष आयोजित लोकोत्सव में मैंने ओडिशा से आए नर्तकों द्वारा प्रदर्शित यह नृत्य अनेक बार देखा है। पुरी के जिस अतिथिगृह में हम ठहरे हुए थे वहाँ भी मैंने इस नृत्य का प्रदर्शन देखा। इतनी सुगमता से वे अपनी देह को घुमाते तथा लहराते हैं कि देखते ही बनता है।

इस छोटे से गाँव ने तीन पद्म पुरस्कृत प्रतिष्ठित व्यक्ति प्रदान किये हैं।

डॉ. जगन्नाथ महापात्रा – पट्टचित्र चित्रकला शैली के गुरु, जिन्होंने ताड़पत्र चित्रकला के लिए १९६५ में रघुराजपुर शिल्प ग्राम की स्थापना की थी। मैं इस तथ्य का सत्यापन नहीं कर पायी। यह जानकारी मुझे गांववासियों ने प्रदान की।

गुरु केलूचरन महापात्रा – इन्हे ओडिसी नृत्यकला में पद्म विभूषण की उपाधि से पुरस्कृत किया गया है।

गुरु मगुनी चरण दास – इन्हे गोटीपुआ गुरुकुल की स्थापना करने के लिए पद्मश्री की उपाधि से अलंकृत किया गया है।

यात्रा सुझाव

सुपारी एवं रीठा पर जगन्नाथ, बलराम एवं सुभद्रा
सुपारी एवं रीठा पर जगन्नाथ, बलराम एवं सुभद्रा
  • यह गाँव चंदनपुर नामक नगर के समीप स्थित है। आप चंदनपुर नगर के बाजार से ही चित्रों से अलंकृत भित्तियाँ देखना आरंभ कर देंगे। इन्हे देखने के लिए रुकना चाहें तो अवश्य रुकें, किन्तु रघुराजपुर शिल्पग्राम का अवलोकन किये बिना यहाँ से ना जाएँ।
  • टसर रेशमी वस्त्रों पर की गई चित्रकारी पारंपरिक ताड़पत्र चित्रकारी से अपेक्षाकृत कम दामों में उपलब्ध हैं क्योंकि इनमें एक्रिलिक रंगों का प्रयोग किया जाता है तथा इनकी परिकल्पनाएं कम जटिल होती हैं।
  • गाँव के प्रत्येक घर में आपको पट्टचित्र प्राप्त हो जाएंगे। आप कहीं भी रुककर इनमें से किसी भी घर में भेंट कर सकते हैं। अधिकतर कलाकार अपनी कार्यशाला में पर्यटकों का स्वागत अत्यंत आत्मीयता से करते हैं।
  • आप स्वयं गाँव में ताड़पत्र पर चित्रकारी करने का प्रशिक्षण प्राप्त कर सकते हैं। अन्यथा आप अपने गृहनगर में कार्यशाला आयोजित करने के लिए इन्हे आमंत्रित भी कर सकते हैं।
  • आप अपनी रुचि के अनुसार यहाँ जितना चाहें उतना समय व्यतीत कर सकते हैं।
  • गाँव में खाद्य पदार्थ एवं अन्य किसी भी प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। यदि किसी वस्तु की आवश्यकता हो तो कारीगरों से कहें। वे आपकी सहायता अवश्य करेंगे।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

5 COMMENTS

  1. अनुराधा जी,
    रघुराजपुर शिल्पग्राम के पट्टचित्र चित्रकारी की विस्तृत जानकारी देता बहुत ही सुंदर आलेख ! सुंदर कलाकृतियों को मूर्त रूप प्रदान करने के पीछे उन कारीगरों की मेहनत, कौशल और उनकी जीवटता सच में अचंभित करती हैं ।
    ताड़ के पत्तों पर चित्रकारी करने के लिये ताड़ पत्तों का चुनाव और उनको तैयार करने की प्रक्रिया को वैज्ञानिक प्रक्रिया भी कहा जा सकता हैं क्योंकि इसमें पत्तों की दीमक से भी सुरक्षा का विशेष ध्यान भी रखा जाता हैं ।
    आधुनिकता के इस दौर में भी ये कारीगर चित्रकारी के लिये प्राकृतिक रंगों का ही उपयोग करते हुए अपनी पारंपरिक शिल्पकारी को जिवित रखे हुये है यह जानकर सुखद आश्चर्य हुआ । इन कारीगरों को शत शत नमन !
    सुंदर आलेख हेतू साधुवाद ।

  2. यही तो हमारी संस्कृति का आइना है, जिसपर इसी प्रकार के कई नायाब रत्न जुडे हुए हैं और हमारे देश की पहचान बन गए हैं। ????????????????

  3. अनुराधाजी आणि मिताजी
    आपण लिहीलेला लेख व त्याचे हिंदीत केलेले भाषांतर वाचण्याचा अनुभव काही वेगळाच असतो.हस्तकला ही भारतीय संकृतिची विशेषता आहे. ती हळु हळु लुप्त होत चालली आहे त्यामुळे त्याचे वाईट वाटतें.परिवर्तन हा प्रकृति चा नियम आहे ही पण वास्तवीकता आहे. ताजमहल आणि अजंता ऐलोरा बनविणारे आता राहिले नाहीत.ती कला पण आता लुप्त होत आहे.आपल्या सुंदर लेखनामुळे कळले की रघुराजपुर येथील पट्टचित्र चित्रकारी खुपच सुंदर आणि वाखाणण्याजोगी आहे.तिचे पण असें होवुनये असे वाटतें.आपण काढलेल्या व्हिडीओ मुळे त्या बद्दल ची विस्तृत माहिती मिळते.पटृचित्र ताडपत्रवरची प्राचिन कला आहे.तेथील कलाकार आता सुती व रेशमी वस्त्रांवर पण ती कलाकारी करतात वाचुन खुपच आनंद झाला.या शिवाय ते ती कारिगरी नारळा वर,सुपारी, पत्थरावर आणि लाकडावर पण करतात.ते देवी देवतांचे मुखवटे आणि खेळणी पण बनवतात हे वाचुन समाधान झाले.आपण पाठविलेली रथयात्रेची पट्ट चित्र, जगन्नाथ यात्राचे चित्रण केलेली पटृचित्रे खुपच सुंदर आहे.ताडपत्रवरची जगन्नाथ, बलभद्र व सुभद्रा चे चित्र तसेच हत्ती चे चित्र खुपच सुरेख आहे.गोटीपुआ नृत्याचे वर्णन पण मन मोहक आहे.
    ओडिसा ला आलेल्या ऐका भिषण सायक्लोन नंतर गुजरात सरकार कडुन आम्हाला तेथे पाठविलें होते तेंव्हा जगन्नाथपुरी ला जाण्याचे भाग्य लाभले.आपल्या लेखनामुळे तेथील आठवणी ताज्या झाल्या.तेंव्हा तेथील परिस्थिती खुपच भयंकर आणि मनाला हलवनारी होती.त्यावेळेला घेतलेली लाकडाच्या मुर्तींची खरी किंमत आपला लेख वाचण्याने झाली. ईतक्या सुंदर लेखा बद्दल आपले मन:पुर्वक आभार.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here