विदिशा की उदयगिरी गुहा, हेलिओडोरस स्तंभ एवं बीजामंडल

0
338

विदिशा प्राचीन भारत की एक महत्वपूर्ण नगरी रही है। विदिशा उत्तर भारत एवं  दक्षिण भारत को जोड़ते व्यापार मार्ग पर स्थित थी। अनेक प्राचीन कथाओं में विदिशा का उल्लेख प्राप्त होता है, विशेषतः व्यापारियों से संबंधित लोककथाओं में। विदिशा का नाम लेते ही हमारे मस्तिष्क में सांची स्तूप की छवि प्रकट हो जाती है लेकिन विदिशा में सांची स्तूप के अतिरिक्त भी अनेक महत्वपूर्ण एवं रोचक पर्यटन स्थल हैं जो ऐतिहासिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, जैसे उदयगिरी गुहाएं।

उदयगिरी गुहा

प्राचीन काल में जब मंदिर निर्माण की परंपरा आरंभ हुई, तब पर्वत खंडों को काटकर गुहा मंदिरों का निर्माण किया जाता था। इसके पश्चात भूमि पर तथा ऊँचे जगती पर मंदिर निर्माण की परंपरा आरंभ हुई। कालांतर में मंदिर स्थापत्यकला की अनेक शैलियों का उदय हुआ।

विदिशा की उदयगिरी गुफाएं
विदिशा की उदयगिरी गुफाएं

पर्वत पर स्थित उदयगिरी गुहाओं में लगभग २० हिन्दू देवालय तथा जैन अनुयायियों के लिए एक जिनालय है। गुहा क्रमांक ६ के शिलालेख के अनुसार इनका निर्माण ४थी शताब्दी के अंत तथा ५वीं शताब्दी के आरंभ में चन्द्रगुप्त द्वितीय ने आरंभिक गुप्त काल में करवाया था। इसका तात्पर्य है कि ये गुहा मंदिर प्राचीनतम ज्ञात व दिनांकित हिन्दू मंदिर हैं। इन्हे विष्णुपदगिरी भी कहा जाता है।

उदयगिरी का शाब्दिक अर्थ है, उगते सूर्य की पहाड़ी। ऐसी पहाड़ी हम बिहार के राजगीर एवं ओडिशा में भुवनेश्वर के निकट देख सकते हैं। क्या इसका यह अर्थ है कि किसी काल में यह सूर्य आराधना का केंद्र था? कदाचित हाँ। इसका एक रोचक तत्व यह भी है कि यह कर्क रेखा पर स्थित है। इसका अर्थ है कि यह सूर्य गमन की रेखा पर स्थित है।

उदयगिरी गुहाएं बेतवा नदी एवं बैस नदी के संगम के निकट स्थित है। किसी काल में कदाचित यह विदिशा राज्य का ही भाग रहा होगा जैसा कि कालिदास के मेघदूत में वर्णित है। एक पहाड़ी पर बड़ी संख्या में मंदिरों की उपस्थिति व नदियों के संगम ने इस स्थान को पावन तीर्थस्थल बनाया होगा। पुरातात्विक सूत्र इस ओर संकेत करते हैं कि ६ ई.पू. में यह स्वयं में एक नगरी थी।

दिल्ली के कुतुब मीनार के निकट लौह स्तंभ आप सबने देखा ही होगा। ऐसी मान्यता है कि वह लौह स्तंभ मूलतः उदयगिरी में स्थापित था।

गुहा मंदिरों से ज्ञात होता है कि गर्भगृह के समक्ष चौकोर मंडप थे। कुछ गुहाओं में स्तंभ अब भी देखे जा सकते हैं। द्वार चौखटों पर किए गए शिल्प भी देखे जा सकते हैं। शिलाओं को उकेर कर उन पर आले बनाए गए हैं जिनके भीतर मूर्तियाँ उत्कीर्णित हैं।

उदयगिरी कंदराएं – गुहा क्रमांक ५

गुहा क्रमांक ५ उदयगिरी गुहाओं में सर्वाधिक महत्वपूर्ण गुहा है। इसके भीतर एक भित्ति पर भगवान विष्णु के वराह अवतार की विशालकाय प्रतिमा उत्कीर्णित है। यह प्रतिमा इन गुहाओं का सांकेतिक शिल्प है।

भूमि देवी और वराह अवतार - उदयगिरी गुहा विदिशा
भूमि देवी और वराह अवतार – उदयगिरी गुहा विदिशा

विष्णु के वराह अवतार ने स्त्री रूपी धरती को अपनी नथूनी के ऊपर उठाया हुआ है। उनके चारों ओर अनेक अन्य देवी-देवताओं के शिल्प हैं। जैसे:

धरती माता के शिल्प के ऊपरी भाग पर कमल पुष्प पर विराजमान ब्रह्मा एवं नंदी पर आरूढ़ भगवान शिव की छवियाँ हैं।

वराह की छवि के दाहिनी ओर स्थित शैल फलक पर १२ आदित्य, ८ वसु, ११ रुद्र, अग्नि एवं वायु अर्थात ३३ कोटि देवता विराजमान हैं। साथ ही अनेक ऋषिगण भी दृश्य का आनंद ले रहे हैं।

चित्रवीथिका के निचले भाग पर समुद्र के निकट गुप्त राजाओं एवं उनके मंत्रियों को देखा जा सकता है।

वराह के बाएं चरण के समीप शेषनाग तथा दाहिने चरण के समीप लक्ष्मी के शिल्प हैं।

चित्रवीथिका के ऊपरी भाग पर बायीं ओर वीणा धारी नारद के नेतृत्व में अनेक मुनिगण विराजमान होकर दृश्य का अवलोकन कर रहे हैं।

उदयगिरी गुहाओं के अंतर्गत अन्य गुहाएं एवं मंदिर

पुरातत्वविद् कन्निघम ने गुहा क्रमांक छः का नामकरण वीणा गुहा किया क्योंकि इसके भीतर वीणा वादन करते हुए एक पुरुष की छवि उत्कीर्णित है। गुहा के भीतर ले जाते द्वार पर गंगा एवं यमुना की छवियाँ हैं। गुहा के भीतर एकमुखलिंग है अर्थात एक शिवलिंग है जिसके ऊपर एक मुख उत्कीर्णित है।

विदिशा में विष्णु प्रतिमा
विदिशा में विष्णु प्रतिमा

गुहा क्रमांक १३ के भीतर शेषशायी विष्णु की ३.६६ मीटर लंबी प्रतिमा है। आंध्रप्रदेश के उँदावल्ली गुहाओं में भी आप ऐसी ही प्रतिमा देखेंगे।

गुहा क्रमांक १९ के भीतर सागर मंथन का दृश्य उत्कीर्णित है।

इनके अतिरिक्त यहाँ अनेक मंदिर हैं जो हिन्दू देवी-देवताओं को समर्पित हैं। उनमें से अधिकांश खंडित अवस्था में हैं।

अन्य गुहायें साधारण हैं किन्तु कुछ के भीतर महिषासुरमर्दिनी, गणेश एवं मातृकाओं के उत्कीर्णित शिल्प अब भी देखे जा सकते हैं।

इन गुहाओं में उत्कीर्णित आकृतियों पर यूनानी वैशिष्ठ्य स्पष्ट परिलक्षित होता है। कदाचित भारत का वह काल यूनानी कला से प्रभावित रहा होगा अन्यथा कलाकृतियों के रचयिता यूनानी रहे होंगे। यह भी संभव है कि उस काल में साधारण मानवाकृतियाँ उसी प्रकार की रही होंगी जो कालांतर में वर्तमान रूप में विकसित हुई होंगी।

पहाड़ी के शीर्ष पर मंदिर के अवशेष है जो गुप्त काल के प्रतीत होते हैं। सांची के अशोक स्तंभ के अनुरूप यहाँ से भी एक विशाल स्तंभ प्राप्त हुआ था। पहाड़ी से नीचे अवतरण करते हुए आप एक विश्रामगृह देखेंगे जिसका निर्माण लगभग १०० वर्षों पूर्व ग्वालियर महाराजा ने करवाया था।

कर्क रेखा

कर्क रेखा एक काल्पनिक रेखा है जो उत्तरी गोलार्द्ध को दो भागों में विभाजित करती है। यह रेखा उत्तरी भोपाल से होकर जाती है। जब आप भोपाल से विदिशा की ओर जाते हैं तब आप इस रेखा को लाँघ कर जाते हैं। मेरी अभिलाषा है कि इसी प्रकार किसी दिवस मैं भूमध्य रेखा को भी लाँघ सकूँ।

हेलिओडोरस स्तंभ        

हेलिओडोरस स्तंभ विदिशा एवं उदयगिरी गुहाओं के मध्य स्थित है। यह दर्शनीय स्थल अधिक लोकप्रिय नहीं है। इसलिए इसके सटीक अवस्थिति के विषय में अधिकांश स्थानीय नागरिकों को जानकारी ना हो। यदि आप खांब बाबा के विषय में पूछेंगे तो वे आपको कदाचित इसकी जानकारी दे दें। हेलिओडोरस स्तंभ को स्थानीय रूप से खांब बाबा के नाम से पूजा जाता है।

हेलिओडोरस स्तंभ एक गरुड़ स्तंभ है जिसके शीर्ष पर विष्णु का वाहन गरुड़ का चिन्ह है। इस स्तंभ के विषय में मान्यताएं हैं कि इसकी स्थापना हेलिओडोरस नामक एक यूनानी विद्वान ने की थी जिसने अपने भारत निवासकाल में हिन्दू धर्म को अपना लिया था। वह विदिशा के राजा भागभद्र की राजसभा में यूनानी राजदूत था।

स्तंभ पर अंकित ब्राह्मी शिलालेख के अनुसार इसे १५० ई. पू. का माना जाता है। शिलालेख में वासुदेव को देवों के देव कहा गया है। कालांतर में शोधित स्तंभ शिलालेख में महाभारत के छंद भी लिखे हुए हैं।

एक परिगृहीत भूमि पर स्थित यह एक एकल संरचना है। जब हमने इस स्तंभ के विषय में इस क्षेत्र के निवासियों से चर्चा की तब उन्होंने हमें कुछ रोचक लोककथाएं सुनाई।

हेलिओडोरस स्तंभ के विषय में रोचक लोककथाएं

हमें हेलिओडोरस स्तंभ के विषय में अनेक लोककथाएं सुनने को मिलीं। यद्यपि उनकी प्रामाणिकता सिद्ध करना असंभव है, तथापि रोचक होने के कारण आपसे साझा करने से स्वयं को रोक ना सकी। एक व्यक्ति के अनुसार यह स्तंभ जितना भूमि के ऊपर है, उतना ही भूमि के भीतर भी है। उनके अनुसार यह छोटा सा भूखंड अनवरत रूप से धँसता जा रहा है। ऐसी मान्यता है कि इस स्तंभ के नीचे एक स्वर्ण मंदिर है। किन्तु इस भूखंड का उत्खनन नहीं हो सकता है। जब भी इस भूखंड के उत्खनन का प्रयास किया जाता है, यह स्थान सर्पों एवं बिच्छुओं से भर जाता है जिसके कारण उत्खनन संभव नहीं हो पाता है।

हेलिओदोरस स्तम्भ
हेलिओदोरस स्तम्भ

जब मैंने स्तम्भ के नीचे स्वर्ण मंदिर के विषय में सुना, मैं उस पर पूर्णतः अविश्वास नहीं कर पायी। साधारणतः विष्णु मंदिर के बाह्य भाग पर गरुड़ स्तम्भ अवश्य होता है जिसकी ऊंचाई मंदिर से कहीं अधिक होती है। जिस प्रकार स्तंभ के छोटे छोटे भाग भूमि से बाहर निकले हुए हैं, उन्हे देख ऐसा प्रतीत होता है मानो स्तंभ की स्थापना निकट स्थित मंदिर की ओर संकेत करने के लिए ही किया गया हो। काल एवं कुछ उत्खनन ही इस भेद को उजागर कर सकते हैं।

रहस्यमयी वृक्ष

स्तंभ के समीप एक रहस्यमयी वृक्ष है। जब आप इस वृक्ष को ध्यान से देखेंगे तो आप पाएंगे कि इसके तने पर कई नख गड़े हुए हैं। एक गाँववासी ने हमें बताया कि इस स्थान पर अनेक तांत्रिक अनुष्ठान भी किए जाते हैं। कई मन नख इस वृक्ष के तने के भीतर गड़े हुए हैं। काल के साथ तने पर नवीन वल्कल की रचना हो जाती है तथा लोग अधिक से अधिक नख उस पर गड़ाते रहते हैं।

सती विग्रह

यहाँ सती के कई शैल विग्रह हैं। वैवाहिक संबंध में अग्नि की महत्ता मुझे सर्वप्रथम यहीं दृष्टिगोचर हुई। शैल चित्र द्वारा यह चित्रित किया गया है कि विवाह बंधन में बंधने जा रहे युगल अग्नि में ही प्रतिज्ञा बद्ध होते हैं। एक साथ इस विश्व को त्यागकर उसी अग्नि में विलीन होने की प्रतिज्ञा करते हैं। आधुनिक समाज में इस पर अनेक प्रश्न उठ सकते हैं किन्तु यह एक रोचक आयाम अवश्य है।

बीजामंडल मंदिर संकुल

बीजामंडल मंदिरों का एक संकुल है जो विदिशा नगरी के मध्य स्थित है। इसके विषय में अधिक लोगों को जानकारी नहीं है। इस प्राचीन स्थल की ओर संकेत करता कोई सूचना पटल भी नहीं है।

महावारह - बीजामंडल
महावारह – बीजामंडल

इस मंदिर का निर्माण चर्चिका देवी मंदिर के रूप में किया गया था जिन्हे माँ दुर्गा का अवतार माना जाता है। कुछ उन्हे माँ सरस्वती का अवतार मानते हैं। इस मंदिर का निर्माण परमार राजा नववर्मन ने ११ वीं सदी में करवाया था। औरंगजेब ने इसे ध्वस्त कर इसे मस्जिद में परिवर्तित कर दिया था। स्वतंत्रता के पश्चात भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने इसे अपने संरक्षण में ले लिया था। उस समय से यह केवल एक स्मारक है।

बीजामंडल
बीजामंडल

भोजपुर मंदिर के अनुरूप यह मंदिर भी एक ऊँचे जगती पर निर्मित है। यहाँ के भंगित शिल्प कृतियों पर हिन्दू देवी-देवताओं के विग्रह हैं। जगती पर पड़े हुए सहस्त्रों की संख्या में मंदिर के भग्नावशेष उस पर किए गए अत्याचारों की गाथा कहते हैं।

कुछ सूत्रों के अनुसार यह सूर्य मंदिर था तो कुछ सूत्र इसे विजय मंदिर कहते है जिसका निर्माण युद्ध में प्राप्त विजय का उल्हास व्यक्त करने के लिए किया जाता था।

बावड़ी

मंदिर के समीप एक बावड़ी अथवा वापी है जो ८ वीं सदी का माना जाता है। बावड़ी के समीप स्थित दो स्तंभों पर कृष्ण लीला उत्कीर्णित है। आगे जाकर एक गोलाकार बावड़ी है जो पाटन में स्थित रानी की वाव के अनुरूप है।

ऐसा माना जाता है कि यह बावड़ी भूमिगत जलस्रोत से पोषित होती है। इस बावड़ी का जलस्तर सदा एक समान रहता है।

इस स्मारक की भीतरी एवं बाह्य अवस्था अत्यंत दयनीय है जिसे गंभीर रखरखाव की आवश्यकता है।

विदिशा संग्रहालय

विदिशा संग्रहालय में विविध प्रकार की अनेक कलाकृतियाँ एवं शिल्प हैं। उनमें से अधिकांश कृतियाँ विदिशा एवं उसके आसपास के क्षेत्रों में किए गए उत्खनन के समय प्राप्त हुई थीं। उनमें कुबेर एवं यक्षी के विशाल विग्रह भी सम्मिलित हैं।

यक्ष एवं यक्षी - बीजामंडल
यक्ष एवं यक्षी – बीजामंडल

ये कलाकृतियाँ सम्पूर्ण संग्रहालय में बिखरी हुई हैं। संग्रहाल में एक स्मारिका विक्रय केंद्र है जहाँ से आप इन कलाकृतियों के पेरिस पलस्तर में निर्मित प्रतिलिपियाँ क्रय कर सकते हैं। इस स्थल से संबंधित कुछ पुस्तकें भी हैं।

ऐसे धरोहर स्थलों की यात्रा करना इतिहास में विचरण करने जैसा प्रतीत होता है। ऐसा इतिहास जो किसी काल में फलता-फूलता वर्तमान था तथा दूसरे काल में विलुप्त हो गया। अनमोल धरोहरों के शोध में जिसे इतिहासकारों ने पुनः ढूंढ निकाला।

विदिशा यात्रा के लिए कुछ सुझाव

उदयगिरी गुहायें सांची से लगभग १६ किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं।

विदिशा उदयगिरी से भी आगे लगभग ६-८ किलोमीटर दूर स्थित है।

विदिशा का भ्रमण करने के लिए आप भोपाल अथवा सांची में ठहर सकते हैं तथा एक दिवसीय यात्रा के रूप में विदिशा भ्रमण कर सकते हैं।

इसी यात्रा में आप भोजपुर शिव मंदिर तथा भीमबेटका गुहाओं का भी अवलोकन कर सकते हैं।

इन पर्यटन स्थलों पर गाइड आसानी ने उपलब्ध नहीं रहते हैं। अतः आप इनके विषय में भलीभांति अध्ययन करने के पश्चात यात्रा करें।

इनमें से अधिकांश स्थलों पर दर्शन शुल्क नाममात्र है अथवा दर्शन शुल्क नहीं है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here