हैदराबाद शहर से 150 कि.मि. की दूरी पर बसा हुआ वारंगल दुर्ग, तेलंगाना का एक सुन्दर दर्शनीय स्थल है। यहां के मनोरम वातावरण से लगता है जैसे कि यहां पर हर समय लोगों की चहल-पहल रहती होगी, लेकिन वास्तव में ऐसा कुछ नहीं है। वारंगल किले के बारे में ज्यादा लोग नहीं जानते । यहां का सहस्त्र खंबों वाला मंदिर सुप्रसिद्ध है ।
पिछले हफ्ते ही हम इस किले की सैर करने गए थे। यह किला एक समय पर काकतीय वंशजों की राजधानी हुआ करता था। यहाँ पर आज उनके द्वारा पीछे छोड़ी गयी विरासत के सिर्फ अवशेष ही देखे जा सकते हैं। इसके बावजूद आज भी इस किले में देखने लायक बहुत से स्थान हैं। देश के अन्य प्राचीन धरोहर के स्थलों की तरह इसे भी संरक्षण और संवर्धन की सख्त जरूरत है। यह सब देखकर मैं सोचने लगी कि,आंध्रप्रदेश पर्यटन द्वारा वारंगल किले की मरम्मत कर उसे पर्यटन स्थल क्यों नहीं घोषित किया गया है।
वारंगल जाते समय रास्ते में ही भोनगीर किला मिलता है, जो एक विशालकाय चट्टान पर बसा हुआ है। इस किले की संरक्षक दीवार दूर से ही देखी जा सकती है। यह जगह नियमित रूप से इस किले की चढ़ाई करने वाले समूहों के बीच काफी प्रसिद्ध होगी। यहीं से थोड़ा आगे यादगिरीगुट्टा है। लेकिन समय के बंधन के कारण हमने इन जगहों पर जाना अगली बार के लिए रद्द कर दिया।
यहां पर इन जगहों का उल्लेख करना मैं जरूरी समझती हूँ क्योंकि,यहां के पथरीले भूभाग को पार करते ही, आपको आगे हरियाली ही हरियाली दिखाई देती है। यहां का पूरा परिदृश्य खेतों से,छोटी-छोटी पहाड़ियों से, जल स्रोतों और विविध प्रकार के पेड़-पौधों से भरपूर है।ये सारे सुखमय नज़ारे मिलकर आपकी आगे की यात्रा को और भी सुहाना बनाते हैं।
वारंगक किला – काकतीय वास्तुकला की विशिष्टता
वारंगल त्रिशहरों में से एक है – यानी वारंगल-काजीपेट-हनामकोंडा। हनामकोंडा काकतियों की सबसे पहली राजधानी थी,जो बाद में वारंगल में स्थानांतरित की गयी थी। इसी वारंगल शहर में वारंगल दुर्ग स्थित है। 12वी शताब्दी में महाराजा गणपती देव द्वारा बनवाया गया यह विशाल किला 19 कि.मि. की जमीन पर फैला हुआ है। इस किले की तीन पड़ावों वाली किलाबंदी के अंतर्गत लगभग 45 स्तंभ और मीनारें हुआ करती थीं, जिन पर नक्काशी का बारीक और नाज़ुक काम किया गया था। लेकिन आज यहां पर उनमें से कुछ ही स्तंभ और मीनारें खड़े हैं, तथा कुछ ही स्थान ऐसे हैं जो अपने आगंतुकों से अपने गुजरे हुए कल की, अपने बिखरे हुए वैभव की कथाएं कहते हैं।
स्वयंभू मंदिर
वारंगल किले का सबसे महत्वपूर्ण स्थान है स्वयंभू मंदिर। इस मंदिर को पुरातत्व विभाग द्वारा टूटे हुए मंदिर के उपलब्ध अवशेषों से, तथा उस स्थान के आस-पास मिले अवशेषों से पुनः निर्मित करने का प्रयास किया गया है। यह सच में बहुत अच्छी बात है और इस पर पिछले 10 सालों से संशोधन किया जा रहा है। मंदिर के इस स्थान के चारों ओर बड़े-बड़े मेहराब हैं, जो काकतियों की वास्तुकला के परिचायक हैं। इन मेहराबों की प्रतिकृतियाँ आप इस पूरे शहर में देख सकते हैं।
काकतीय वास्तुकला की विशिष्ट बात है उनके दरवाजों की चौखट, जो बड़ी बारीकी से उत्कीर्णित की गयी होती है। उनकी सूक्ष्मता ही उनकी सुंदरता और आकर्षण का प्रमुख कारण है। काकतियों की और एक विशेषता है उनके स्तंभ जिनकी निर्माण शैली थोड़ी अजीब सी है। 5-6 अलग-अलग भागों को एकत्रित कर एक सम्पूर्ण और बड़े से स्तंभ का निर्माण किया जाता है। लेकिन उन्हें देखने पर नहीं लगता कि उन्हें विविध भागों को जोड़कर बनाया गया है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे यह पूरा स्तंभ एक ही पत्थर से उत्कीर्णित किया गया है।
पत्थरों से बनी विराट संरचनाएं
इन स्तंभों के ऊपर बने गोलाकार ढांचे ने मुझे तात्या टोपे की टोपी की याद दिलाई, जो शायद इन्हीं स्तंभों से प्रभावित होगी। ये विराट पत्थर जो छतों और कोष्टों में उत्कीर्णित किए गए हैं आपको अपने महान आकार से ही विस्मित कर देते हैं। इन पत्थरों पर की गयी खुदाई सच में बहुत बारीक और नाजुक है,जो मनुष्य के शरीर, उसके आकार-प्रकार और उनके आभूषणों को बड़ी सूक्ष्मता से दर्शाती है। इन पत्थरों पर उत्कीर्णित पशुओं की शक्ति और देवी-देवताओं की भावनाओं को गहराई और जीवंतता के साथ चित्रित किया गया है।
यहां पर पत्थरों की एक पंक्ति है जिनपर 9 छेद हैं। इन छेदों या खाली स्थानों पर कभी शिवलिंग स्थापित हुआ करते थे, जिनके नीचे कीमती पत्थर दफनाये गए थे। इन्हीं कीमती पत्थरों को निकालने के लिए इन सारे शिवलिंगों को उद्धवस्थ किया गया था। ये उखाड़े हुए शिवलिंग शायद आज किसी और स्थान पर रखे गए होंगे। यही पर एक सुंदर सा गोलाकार पत्थर है जिस पर नवग्रहों को उत्कीर्णित किया गया है।
वहां पर पेरिणी शिव तांडव, यानी तांडव नृत्य का एक प्रकार जो वास्तव में युद्ध पर जाने से पहले सैनिकों द्वारा किया जाता था, का प्रदर्शन करती स्त्रियों की मूर्तियाँ भी हैं। इनके अतिरिक्त यहां आप खूबसूरत से मकरध्वज भी देख सकते हैं, जो हनुमान के स्वेदजल से जन्मे हुए माने जाते हैं। इस मंदिर में उनकी बहुत सारी उत्कीर्णित मूर्तियाँ देखी जा सकती हैं।
आज आप इन अवशेषों को देखकर सिर्फ उनकी संपूर्णता की कल्पना कर उनकी खूबसूरती का अंदाज़ा लगा सकते हैं। आप सोच सकते हैं कि अगर ये बिखरे हुए भाग अवशेषों के रूप में इतने अच्छे लग सकते हैं तो अपने संपूर्ण रूप में वे कितने सुंदर दिखते होंगे।
स्वयंभू मंदिर की कथा
स्वयंभू मंदिर की कथा कुछ इस प्रकार है – 12वी शताब्दी के दौरान हनामकोंडा, जो उस समय अनाज का बाज़ार हुआ करता था, में अपनी लगान बेचने जाने वाले किसान इसी स्थान से गुजरते हुए जाते थे। ऐसे ही एक दिन यहां पर किसी किसान की बैलगाड़ी का पहिया कीचड़ में फंस गया। जब लोगों ने उस पहिये को बाहर निकालने की कोशिश की तो उन्हें वहां पर एक शिवलिंग दिखा। और बाद में लोगों ने इसी स्थान पर मंदिर का निर्माण किया। इसी कारण इस मंदिर को स्वयंभू नाम पड़ा। स्वयंभू का शाब्दिक अर्थ है अपने आप जन्मा हुआ, या फिर वह वस्तु जिसकी खोज नहीं हुई हो बल्कि वह स्वयं ही प्रकट हुआ हो।
हमारे गाइड ने हमे बताया कि इस किले में 365 शिव मंदिर हुआ करते थे, साल के प्रत्येक दिन के लिए एक मंदिर। इन प्रत्येक मंदिरों के नाम भी एक-दूसरे से अलग थे जो भगवान शिव के विविध रूपों को दर्शाते थे। लेकिन आज यहां पर इन मंदिरों के बिखरे हुए अवशेष मिलते हैं। इन बिखरे हुए अवशेषों के बीच हमे सिर्फ एक मंदिर दिखा,जिसके आस-पास के वातावरण से वह किसी तांत्रिक मंदिर लगता था।
चारों प्रमुख दिशाओं में चार मेहराबों से घिरी इस व्यापक भूमि पर वारंगल किले से खोदे हुए अवशेषों के हजारों टुकड़े यहां-वहां पड़े हुए नज़र आते हैं। इन्हीं अवशेषों को जोड़कर इस मंदिर को पुनः निर्मित कर उसे अपना मूल रूपाकार देने का प्रयास किया जा चुका है। लेकिन जैसा कि रहीम कहते हैं, “रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय, टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गांठ पड़ी जाए”। अर्थात अगर कोई वस्तु एक बार टूट जाए तो उसे जोड़ना बहुत कठिन है,और अगर उसे जोड़ भी लिया जाए तो हम उसके मूल स्वरूप को नहीं पा सकते।
एकशीला – विशाल चट्टान
स्वयंभू मंदिर के ठीक सामने है एकशीला, यानी एक विशाल चट्टान। इस चट्टान के शीर्ष पर एक शिव मंदिर स्थित है। अन्य शिव मंदिरों की तरह इस मंदिर में भी एक नंदी मंडप और उत्कीर्णित स्तंभ देखे जा सकते हैं। इस मंदिर के पास एक छोटा सा किला भी है। यहां पर पहुँचने के लिए इस बड़ी सी चट्टान में लगभग 100 छोटी-छोटी सीढ़ियाँ बनवाई गयी हैं, जिन्हें पार करके आप ऊपर तक जा सकते हैं। इस ऊंचाई से आप चट्टान के चारों ओर फैले वारंगल किले का अप्रतिम नज़ारा देख सकते हैं। यहां से आप स्वयंभू मंदिर का शीर्ष दृश्य भी देख सकते हैं, जो अपने जगमगाते हुए अवशेषों द्वारा अपनी उपस्थिती का एहसास दिलाता है। इसके अलावा आप यहां से नीचे स्थित सरोवर का मंत्रमुग्ध करनेवाला नज़ारा देख सकते हैं। यह सरोवर इस एकशीला के पास ही स्थित है। इस सरोवर के बीचोबीच आधुनिक चित्रकारी की एक रोचक सी संरचना बनाई गयी है, जो बहुत ही आकर्षक है। इस चट्टान पर एक कृत्रिम झरना भी बनवाया गया है।
इस चट्टान के पास स्थित वारंगल शहर को उसका नाम भी इसी एकशीला से प्राप्त हुआ है–‘वारंगल’,जिसे स्थानीय भाषा में ‘ओरुगुल्ला’ कहा जाता है।
इस एकशीला और सरोवर के आस-पास बगीचे बनाने का प्रयास किया गया है। इसके अलावा यहां पर कुछ कृत्रिम पूल भी बनाने की कोशिश की गयी है,जिसकी वास्तव में जरूरत तो नहीं है। मुझे तो लगता है कि आंध्रप्रदेश के पर्यटन विभाग को प्रकृति के रंग में कृत्रिमता का भंग डालना कुछ ज्यादा ही पसंद है।
खुश महल
खुश महल अर्थात सिताभ खान महल इस किले में स्थित एक और खूबसूरत सी संरचना है। यह एक बहुत बड़ा मंडप है, जिसमें किले के आस-पास की जगहों से खुदाई के समय मिली मूर्तियाँ रखी गयी हैं। इनमें से अधिकतर मूर्तियों के कोई लिखित प्रमाण नहीं मिलते। इस महल के मेहराबदार प्रवेशद्वार भारत-इस्लाम की प्राचीन वास्तुकला का सुंदर नमूना है। ये मेहराब इस मंडप के आंतरिक दीवारों को भी संभाले हुए हैं। इस मंडप की जमीन पर आयताकार आप्लावन बनवाया गया है जिसके पीछे का उद्देश्य में नहीं समझ सकी। उपाख्यानों के अनुसार यह आप्लावन सिताभ खान द्वारा बनवाया गया था। वे एक हिन्दू थे, और उनका नाम सीतापति था। वे काकतियों के प्रवेशद्वार के रक्षक हुआ करते थे। लेकिन ज़ौना खान के आक्रमण के बाद वे इस्लाम में परिवर्तित हुए और ज़ौना खान की तरफ से यहां से शासन चलाने लगे।
एकशीला और खुश महल के बीच के अंतर पर आपको साड़ियों पर कढ़ाई का काम, ज़्यादातर सलमा-सितारा की कढ़ाई करनेवाले कारीगर दिखेंगे जो मुगल काल की विशिष्टता रही है।
वारंगल किले की दिवारें
वारंगल किले की परिधि के अंतर्गत बनी सड़कों पर चलते समय आपको यहां-वहां किले की सुरक्षा दीवारों के टूटे हुए भाग नज़र आते हैं। कहीं पर एक छोटा सा प्रवेश द्वार दिखाई देता है,कहीं दीवारों के टूटे हुए टुकड़े,तो कुछ जगहों पर इन दीवारों के छोटे-छोटे अवशेष मिलते हैं।
वारंगल किले के पास ही एक पर्वत है जिस पर मिट्टी का एक सुंदर किला है। लेकिन समय की कमी के कारण हम वहां पर नहीं जा सके। काकतियों के पहले इस क्षेत्र पर जैनों का शासन हुआ करता था, जिसका कुछ-कुछ प्रभाव आप यहां-वहां देख सकते हैं।
तीन प्रकार के किले
हमारे गाइड ने हमे वारंगल किले के संदर्भ में कुछ चित्तरंजक सी बाते बताई हैं। उन्होंने बताया कि किले मूल रूप से तीन प्रकार के होते हैं।
• गिरि दुर्ग या वे किले जो किसी पर्वत पर बांधे जाते हैं, ताकि सुरक्षा हेतु दूर तक हो रही हलचल पर किले से ही नज़र रखी जा सके। और उन्हें दुश्मनों के आगमन की खबर समय रहते मिल सके।
• वन दुर्ग यानी वे किले जो घने जंगलों में बनवाए जाते हैं। इसका एक फायदा यह है कि आक्रमण के समय दुश्मनों के विरुद्ध आपको जंगली जानवरों से सुरक्षा मिलती है।
• जल दुर्ग यानी वे किले जो चारों तरफ से पानी से घिरे होते हैं। यह या तो प्रकृतिक जल स्रोतों द्वारा किया जाता है, या फिर खोदे हुए खंदकों में भरे पानी के द्वारा। और जब किसी को किले में आना-जाना होता है तब इन खंदकों के ऊपर लकड़ी का बड़ा सा तख़्ता गिराया जाता है ताकि वे लोग खंदक के पार जा सके।
वारंगल किला – किलाबंदी के 3 चरण
वारंगल किला सुरक्षा के इन सभी प्रकारों से रहित है। ना ही वह किसी पहाड़ी पर स्थित है, ना ही वह किसी जंगल में बसा हुआ है और ना ही उसके चारों ओर पानी है। इसीलिए यह किला बनानेवालों ने किले की सुरक्षा के लिए किलाबंदी के ये 3 चरण बनवाए। उन्होंने मिट्टी के किले बनवाए जिनके चारों ओर फिर खंदक बनवाए और किले की चारों प्रमुख दिशाओं में चार प्रवेश द्वार बनवाए।
वारंगल किले का विध्वंस
ग्यासुद्दीन तुगलक के बेटे ज़ौना खान, जिन्हें मुहम्मद बिन तुगलक के नाम से भी जाना जाता है,जो तब की दिल्ली सल्तनत के शासक हुआ करते थे, ने 14वी शताब्दी के मध्यकाल में वारंगल किले पर आक्रमण किया था। इस आक्रमण के दौरान उन्होंने यहां के सभी मंदिरों का विध्वंस किया। वे उस समय के काकतीय महाराज को बंदी बनाकर दिल्ली ले गए। लेकिन रास्ते में ही महाराज की मौत हो गयी थी। कुछ लोगों का मानना है कि ज़ौना खान ने ही महाराज का वध किया था, तो कुछ लोग मानते हैं कि महाराज ने आत्महत्या की थी। सच्चाई चाहे कुछ भी हो लेकिन इस घटना के साथ ही काकतीय वंशजों के वैभवपूर्ण काल का अंत हो चुका था।
वारंगल दुर्ग तेलंगाना का एक सांस्कृतिक अवशेष है, जिसे हैदराबाद से आसानी से देखा जा सकता है ।