प्राचीन भारत में यात्राएं कैसे करते थे लोग? -सुमेधा वर्मा ओझा

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अनुराधा: नमस्ते। आज हमसे चर्चा करने के लिए हमारे साथ है, सुश्री सुमेधा वर्मा ओझा जी । सुमेधा जी एक भूतपूर्व भारतीय राजस्व सेवा अधिकारी हैं। अतः उन्हें अर्थव्यवस्था, कर इत्यादि में तो निपुणता प्राप्त है ही, साथ ही भारतीय साहित्य में भी उनकी विशेष रूचि है। उन्होंने वाल्मीकि रामायण का अनुवाद किया है। ‘उर्नभी’ नामक एक रोमांचकारी जासूसी उपस्यास भी लिखा है जो मौर्य काल पर आधारित है। यह उपन्यास हमें उस काल का स्मरण करता है जब आचार्य चाणक्य मौर्य साम्राज्य की स्थापना कर रहे थे। मुझे यह उपन्यास इतना भाया है कि मैं इसके आगामी संस्करण की आतुरता से प्रतीक्षा कर रही हूँ। हमारी आज की चर्चा भी कुछ इसी विषय से जुड़ी हुई है। हमारी चर्चा का विषय है- प्राचीन भारत में यात्राएं। आज हम यह जानने का प्रयास करेंगे कि प्राचीन काल में भारत में यात्राएं किस प्रकार से की जाती थीं।

प्राचीन भारत में यात्राएं

अनुराधा: सुमेधाजी, प्राचीन इतिहास में आपकी विशेष रूचि है, वहीं मेरी रूचि भ्रमण करने में है। स्पष्ट है कि हमारे मार्गों का संगम वहां होता है जहां इन दोनों विषयों का संगम होता है। अर्थात् जब हम प्राचीन भारत में भ्रमण के विषय में चर्चा करते हैं। प्राचीन भारत में लोग किस प्रकार यात्राएं करते थे? वर्तमान में हमारे पास एक सम्पूर्ण पर्यटन एवं आतिथ्य उद्योग है जो अवकाश एवं आनंद यात्राओं पर आधारित है। अनेक यात्री अपने व्यवसाय एवं व्यापार संबंधी कारणों से भी यात्राएं करते हैं। कुछ अन्य कारणों से यात्राएं करते हैं। किन्तु सम्पूर्ण पर्यटन एवं आतिथ्य उद्योग अंततः अवकाश एवं आनंद यात्राओं पर ही फलता-फूलता है।

मैं यह जानना चाहती हूँ कि प्राचीन भारत में लोग किन प्रमुख कारणों से यात्राएं करते थे?

सुमेधा: अनुराधाजी, मुझे चर्चा के इस सत्र में आमंत्रित करने के लिए आपको ह्रदय पूर्वक धन्यवाद। मैं विश्वास दिलाती हूँ कि यह चर्चा अत्यंत रोचक रहेगी। आपने पूछा है कि प्राचीन भारत में लोग किन प्रमुख कारणों से यात्राएं करते थे?  मानवों ने यात्राएं आरम्भ की क्योंकि अस्तित्व के लिए यात्रा को सहचरी बनाना आवश्यक था। स्थानान्तर्गमन प्राचीन काल में यात्रा करने का प्रथम कारण था। लोग भिन्न भिन्न स्थानों में स्थानांतरण करते थे ताकि उन्हें वास करने के लिए श्रेष्ठतर स्थान प्राप्त हो सके अथवा श्रेष्ठतर संसाधनों की प्राप्ति हो सके। प्रश्न यह उठता है कि जब मानवजाति ने स्वयं को स्थापित कर लिया, तब उन्हें यात्रा करने की क्या आवश्यकता प्रतीत हुई? इसका प्रथम कारण था, व्यापार। आरम्भ में व्यापार केवल आसपास के लोगों से किया जाता था। कालान्तर में वही व्यापार दूर-सुदूर स्थित लोगों के साथ भी किया जाने लगा। समय के साथ परिवहन के साधनों, सड़क तंत्र तथा आश्रय स्थलों इत्यादि के आगमन से सम्पूर्ण प्रणाली अत्यंत जटिल होती गयी।

यात्रा करने का एक अन्य कारण था, अतिक्रमण, युद्ध, प्रभुता स्थापित करने जैसी मूल मानवी प्रकृति। प्राचीन काल में यह भावना अधिक प्रबल होती थी। अतः नवीन मार्गों के तंत्र स्थापित किया जाते थे ताकि सेना के मार्ग में कोई रूकावट ना आये, अन्य प्रदेशों पर विजय प्राप्त करने जा रहे सैनिकों का मार्ग प्रशस्त हो अथवा नवीन संसाधनों को प्राप्त करने के मार्ग खुल सकें। कभी उनके प्रयोजन हितकारी होते थे तो कभी उसके विपरीत। किन्तु सत्य यही है कि इसी प्रकार विशाल देश एवं राष्ट्रीय प्रणालियाँ अस्तित्व में आयीं।

तीर्थ यात्राएं

प्राचीन काल में यात्राएं करने का एक अन्य कारण था, तीर्थ यात्राएं। लोग भिन्न भिन्न तीर्थ स्थलों के दर्शन करने हेतु यात्राएं करते थे। तीर्थ यात्राओं की पृष्ठभूमि में अत्यंत जटिल तथा बहुआयामी मान्यताएं होती हैं। एक ओर तीर्थस्थल धार्मिक मान्यताओं के धरातल पर अत्यंत महत्वपूर्ण होते थे। दूसरी ओर लोग ज्ञान अर्जित करने की आकांशा से भी इस स्थलों की यात्राएं करते थे। लोग एक आश्रम से दूसरे आश्रम तक, एक ऋषि से दूसरे ऋषि तक भ्रमण करते रहते थे ताकि ज्ञान अर्जित कर सकें, साथ ही अपने ज्ञान की पुष्टि कर सकें अथवा स्वयं द्वारा रचित ग्रंथों पर समकक्षों के विचार जान सकें। ये आश्रम अधिकांशतः अत्यंत दुर्गम स्थानों पर होते थे। नगरों की चहल-पहल से दूर, आश्रम बहुधा वनों में अथवा किसी नदी के तट पर स्थित होते थे।

मेरे उपरोक्त उल्लेख का यह तात्पर्य नहीं है कि प्राचीन भारत एक अत्यंत गंभीर स्थान था। प्राचीन भारत में आनंद एवं मनोरंजन का भी भरपूर समावेश था। अतः लोग इस उद्देश्य से भी यात्राएं करते थे, जैसे नाट्य मंडली इत्यादि। नाट्य मंडलियों पर अनेक रोचक कथाएं प्रचलित हैं, जैसे, किस प्रकार लोग उनके द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान तक सन्देश पहुँचाया करते थे  अथवा खोये हुए व्यक्तियों को ढूँढने का प्रयास करते थे। उस समय अवकाश एवं आनंद पर आधारित यात्राओं की संख्या नगण्य होती थी किन्तु अभिलेखों में ऐसी यात्राओं का भी उल्लेख प्राप्त होता है। यदि आप समुद्री यात्राओं को आनंद यात्राओं के अंतर्गत मानेंगे तो अर्थशास्त्र में उनका प्राधान्यता से उल्लेख किया गया है।

अनुराधा: एक आश्रम से दूसरे आश्रम तक, इस उक्ति से ऐसा प्रतीत होता है मानो वे सामान्य जीवन से मुक्ति पाने के लिए यात्राएं करते थे।

सुमेधा: मेरा अभिप्राय अध्ययन सम्मेलनों एवं परिसंवादों से है। उस काल में प्रभावशाली व गणमान्य व्यक्ति इन विद्वानों एवं सिद्धपुरुषों को संरक्षण देते थे। दृष्टांत के लिए, राजा जनक एक अत्यंत प्रभावशाली व विद्वान राजा थे। उनके द्वारा आयोजित शास्त्रार्थ अत्यंत प्रसिद्ध थे। प्राचीन काल में विद्यार्थी गुरुकुलों एवं विश्वविद्यालयों में जाने के लिए भी यात्राएं करते थे। अतः ज्ञान अर्जन हेतु अनेक यात्राएं की जाती थीं। किन्तु, व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो यात्राओं का सबसे प्रमुख कारण व्यापार ही था। प्राचीन काल में व्यापार एवं व्यापार मार्ग एक प्रकार से राज-निकाय के धमनी एवं शिराएँ थे।

नाट्य मंडलियाँ

अनुराधा: आपने अभी नाट्य मंडलियों द्वारा की जाने वाली यात्राओं का उल्लेख किया। इसे संयोग ही कहिये कि मैंने अपने संस्करण ‘१० सर्वोत्तम व्यवसाय जो देश विदेश घुमाएं’ में प्रदर्शन कला को भी एक यात्रा संबंधी व्यवसाय के रूप में सम्मिलित किया है। प्रदर्शन कलाकारों को विश्व के दूर-सुदूर भागों में यात्रा करने का संयोग प्राप्त होता है। वे विश्व भर में यात्राएं कर अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं तथा अपनी संस्कृति के संवाहक बनते हैं। इस कल्पना मात्र से रोमांच होता है कि हम २००० वर्षों प्राचीन विरासत को आगे ले जा रहे हैं।

सुमेधा: नाट्य कलाकार, कलाबाज एवं सभी प्रकार के प्रदर्शन कलाकार ना केवल शहरी क्षेत्रों में यात्राएं करते थे, अपितु लघु अथवा ग्रामीण क्षेत्रों में भी जाते थे।

अनुराधा: प्राचीन भारत में लोग कैसे यात्राएं करते थे, यह जानकारी आपको कहाँ से प्राप्त हुई? ऐसे कौन कौन से साहित्य हैं जिनमें ऐसी जानकारी उपलब्ध है?

सुमेधा: अच्छा प्रश्न है। इस जानकारी के प्रमुख स्त्रोतों में से एक है पुरातात्विक अवशेष। प्राचीन भारत के व्यापार मार्गों पर अनेक लोगों ने गहन शोधकार्य किया है। जिन वस्तुओं का व्यापार किया जाता था, उनके अवशेषों का उन्होंने अध्ययन किया है। जिन मार्गों को व्यापार मार्ग में परिवर्तित किया था, उनका विश्लेषण किया है। अपने शोधकार्यों के आधार पर उन्होंने प्राचीन व्यापार मार्गों के जाल की एक संकल्पना प्रस्तुत की है। उसमें उन्होंने उस काल के नगरों एवं बस्तियों को दर्शाया है तथा वस्तु-विनिमय अर्थात् आदान-प्रदान की गयी वस्तुओं का भी उल्लेख किया है।

जानकारी का एक प्रमुख स्त्रोत मुद्रा शास्त्र भी है। विभिन्न पुरातात्विक स्थलों से प्राप्त मुद्राओं का शोधकर्ताओं ने गहन अध्ययन किया है। उनसे भी प्राचीन काल में प्रचलित यात्राओं एवं व्यापारों से सम्बंधित महत्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त हुई हैं।

अभिलेख/शिलालेख

जानकारी का तीसरा महत्वपूर्ण स्त्रोत है, अभिलेख अथवा शिलालेख। इसका एक उदहारण देना चाहती हूँ। एक समय मकरध्वज योगी नामक एक प्रसिद्ध धार्मिक एवं अध्यात्मिक गुरु थे। उनका जीवन-काल प्रथम सहस्त्राब्दी ईसा पूर्व में था। उनके साथ यात्रियों एवं अनुयायियों का एक विशाल समूह था जो यात्राओं में उनके साथ चलता था। वे जहां जहां जाते, अपने एवं अपनी यात्रा के विषय में अभिलेख अवश्य छोड़ जाते थे। आज वही अभिलेख हमें भारत के कोने कोने एवं सीमावर्ती देशों के संग्रहालयों में देखने मिलते हैं। उनके अनुयायियों में अनेक स्त्रियाँ भी थीं जो उनके साथ आध्यात्मिक यात्राओं में भाग लेती थीं।

रामगढ गुफाओं से प्राप्त एक शिलालेख अत्यंत रोचक है क्योंकि लोगों ने दो प्रकार से इसकी व्याख्या की है। कुछ लोगों का मानना है कि वह विश्व का सर्वप्रथम प्रेम शिलालेख है। वहीं अन्य कुछ शोधकर्ताओं ने उसका विवेचन स्त्री यात्रियों के लिए विश्रामगृह के रूप में किया है। छत्तीसगढ़ के जोगीमारा गुफाओं से प्राप्त शिलालेख भी ऐसे ही हैं। प्रारंभ में इनका विवेचन एक नाटकशाला के रूप में किया गया था किन्तु नवयुगीन विवेचनकर्ता इसे यात्रियों का विश्रामगृह मानते हैं। इन अभिलेखों से प्राप्त सूक्ष्मतम जानकारी भी हमें प्राचीन काल के जनजीवन में झांकने का अवसर प्रदान करती है। हमें ऐसा प्रतीत होता है मानो हम प्राचीन काल के जनमानस को जानते हैं। एक इतिहासकार के लिए यह एक अत्यंत आनंद की भावना है।

हमें इस विषय में जानकारियाँ मुख्यतः संस्कृत, प्राकृत, तमिल इत्यादि भाषाओं में रचित रचनाओं से प्राप्त होती हैं। हमारे तीन प्रमुख महाकाव्य एवं महारचनाएं रामायण, महाभारत एवं बड़कहा या बडकथा हैं। राजा सातवाहन के मंत्री ‘गुणाढ्य’ द्वारा रचित ‘बड़कहा’ को संस्कृत में बृहत्कथा कहा जाता है। ईसा पूर्व ४९५ में   रची गयी बड़कहा में उस काल के समाज पर आधारित कथाएं हैं। बड़कहा से ही अधिकतर जातक कथाएं भी ली गयी हैं। अनेक जातक कथाएं जैन मुनियों एवं बौद्ध भिक्षुओं ने भी लिखी हैं। अतः जातक कथाएं भी हमारे लिए जानकारियों का महत्वपूर्ण स्त्रोत हैं।

परिवहन के साधन

अनुराधा:  मेरी दूसरी जिज्ञासा परिवहन के साधनों के विषय में है। आधुनिक काल के द्रुतमार्गों एवं महामार्गों के समान क्या प्राचीन काल में भी परिवहन के लिए उत्तम मार्ग थे? वे किस प्रकार के वाहनों का प्रयोग करते थे? वे किस प्रकार यात्राएं करते थे? मुझे उस काल में उपलब्ध, यात्रा के मूलभूत ढाँचे के विषय में जानने की उत्सुकता है।

सुमेधा: परिवहन का आरम्भ सडकों से नहीं हुआ था। सड़कें कालांतर में अस्तित्व में आयीं। हमारे पास जल सदैव से था। अतः परिवहन के साधन के रूप में सर्वप्रथम जलमार्गों का आरम्भ हुआ क्योंकि मानव ने नौकाओं का आविष्कार अत्यंत आरम्भ में कर लिया था। सिन्धु घाटी सभ्यता के कुछ अभिलेखों में नौकाओं के प्रकार एवं उनके निर्माण कार्य के विषय में बताया गया है। जहाज़ों, नौका संचालकों, संचालन उपकरणों इत्यादि जैसे मूलभूत आवश्यक तत्वों से लैस जल परिवहन प्रणाली के विषय में ना केवल ऋग्वेद में लिखा है, अपितु जातक कथाओं में भी इनका उल्लेख प्राप्त होता है। ऋग्वेद में ना केवल १०० पतवारों से युक्त पोतों के विषय में लिखा गया है, अपितु इसके विभिन्न तत्वों के सटीक तकनीकी नामों का भी उल्लेख है। जैसे, पतवार को अर्त, नाविक को अरित्री तथा छोटे जहाज़ों के बेड़े को अद्युम्न कहा गया है। अतः जल मार्गों पर नौचालन से सम्बंधित अनेक तकनीकी शब्दों का उल्लेख प्राप्त होता है। यहाँ तक कि अंग्रेजी के ‘navigation’ शब्द की व्यत्पत्ति संस्कृत शब्द, नाविक से ही हुई है।

जल मार्ग  

अनुराधा: मैं सदैव यह जानने के लिए उत्सुक रहती थी कि आदि शंकराचार्य ने २४ वर्षों में सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किस प्रकार किया था। मेरे अनुमान से केरल के कलदी से लेकर मध्य प्रदेश के ओंकारेश्वर तक, भारत के कोने कोने में उन्होंने जल मार्गों द्वारा ही यात्रा की होगी।

सुमेधा: जी हाँ। मैं आपको थोलकपियार के विषय में बताना चाहती हूँ जो आज से २३०० वर्ष पूर्व कांचीपुरम में रहते थे। महान संतों से शिक्षा प्राप्त करने के लिए उन्होंने सालाटुरा तक की यात्रा की थी जो महान संस्कृत व्याकरण-विद् पाणिनि की जन्मस्थली भी है। सर्वप्रथम उन्होंने जलमार्गों का प्रयोग किया। तत्पश्चात उन्होंने सड़क मार्गों से यात्रा की। उन्होंने सर्वप्रथम दक्षिण पथ का अनुगमन किया, तत्पश्चात उत्तर पथ का पालन करते हुए उत्तरागमन किया।

इस मानचित्र में अनेक नदियाँ देख सकते हैं। ये सभी नदियाँ नौगम्य हैं, अर्थात इन सभी नदियों पर जल परिवहन किया जा सकता है। सभी सड़क मार्गों पर जोड़-मार्ग हैं जो इन सड़क मार्गों को पूर्वी व पश्चिमी तट पर स्थित बंदरगाहों से जोड़ती हैं।

प्राचीन काल में वे उत्तम विहार नौकाओं का भी निर्माण करते थे। अर्थशास्त्र में भी उनके नौका विहारों के आनंद के विषय में उल्लेख है। बहुधा यह राजाओं द्वारा उपहार स्वरूप उन्हें दिया जाता था जो सौंपे गए कार्य उत्तम रीति से पूर्ण करते थे।

प्राचीन भारत में यात्रायें
प्राचीन भारत में यात्रायें

यात्रा के साधन

अनुराधा: वे सड़क मार्गों पर किस प्रकार के वाहनों का प्रयोग करते थे?

सुमेधा: निसंदेह, अपने दो पैर। इनके अतिरिक्त वे अश्वों, बैलों, ऊंटों जैसे पशुओं का भी प्रयोग करते थे। आपको यह जानकार आश्चर्य होगा कि अत्यधिक कठिन एवं पथरीले मार्गों पर हलके बोझे ढोने के लिए वे बकरियों का भी प्रयोग करते थे। यद्यपि उनका प्रयोग मार्गों के छोटे भागों पर ही किया जाता था। सिन्धु घाटी सभ्यता में बैलगाड़ियां का प्रयोग सामान्य रूप से किया जाता था। इनके अतिरिक्त, राजसी सवारियों के लिए तथा युद्ध इत्यादि में रथों का प्रयोग किया जाता था। किन्तु व्यापारिक गतिविधियों के लिए पशुओं एवं बैलगाड़ियों का प्रयोग ही प्रचलित था।

हमें भव्य पालकियों एवं डोलियों को नहीं भूलना चाहिए। रेशमी वस्त्रों एवं अन्य अलंकरणों से सज्ज पालकियों को कहार अपने कन्धों पर उठाकर चलते थे। इनका प्रयोग संपन्न घराने के पुरुष एवं स्त्रियाँ ही करती थीं। वह एक प्रकार से सम्पन्नता का प्रदर्शन करने का एक मार्ग था। किन्तु लम्बी दूरी के लिए वे भी बैलगाड़ियों का ही प्रयोग करते थे तथा बड़े काफिलों के रूप में सहयात्रा करते थे।

विश्राम गृह

अनुराधा: आज हम जहां भी यात्रा करते हैं, वहां विविध सुविधाओं से लैस विश्राम गृहों, होटलों, रिसॉर्ट्स इत्यादि की भरमार है। प्राचीन काल में एक यात्रा संपन्न करने में अनेक दिवस व्यतीत हो जाते थे। वे मार्ग में तथा अपने गंतव्य में कहाँ विश्राम करते थे?

सुमेधा: प्राचीन काल में भूतल पर सड़क मार्गों द्वारा यात्राएं की जाती थीं। सिन्धु घाटी सभ्यता, वैदिक सभ्यता तथा अन्य ऐतिहासिक समयावधियाँ अपने विशेष सड़क मार्गों के लिए प्रसिद्ध थीं। ऋग्वेद के विभिन्न सन्दर्भों से यह ज्ञात होता है कि बैलगाड़ियों के लिए विशेष रूप से उठे हुए मार्ग बनाए जाते थे। उनके दोनों ओर वृक्ष लगाए जाते थे। महान व्याकरण विद् पाणिनि ने भी लोगों के सामाजिक जीवन पर अनेक टिप्पणियाँ की हैं।  जैसे, विशेष प्रयोग के लिए निर्मित मार्गों के विशेष नाम भी रखे जाते थे। बकरियों के मार्ग को अजपथिका कहा जाता था। उसी प्रकार उन्होंने देवपथिका, हंसपथिका, करिपथ, राजपथ, संखपथ इत्यादि के विषय में भी उल्लेख किया है। अतः, उस काल में सड़क मार्गों का निर्माण एवं मरम्मत का कार्य उत्तम रीति से तथा सजगता से किया जाता था। मार्गों के निर्माण एवं दुरुस्ती के लिए विशेष रूप से अधिकारियों एवं कामगारों के संगठनों की तैनाती की जाती थी।

रामायण – एक उदहारण

मैं रामायण के एक प्रसंग की ओर आपका ध्यान खींचना चाहती हूँ। श्री राम के १४ वर्षों के लिए वनवास प्रस्थान के पश्चात भरत ननिहाल से अयोध्या वापिस लौटे। राम के वनवास की सूचना प्राप्त होते ही वे अत्यंत विचलित हो गए तथा उन्हें वापिस अयोध्या लेकर आने के लिए सम्पूर्ण सेना साथ वन की ओर चले पड़े। अयोध्या से वन तक सम्पूर्ण सेना को लेकर जाने के लिए उन्होंने उत्तम सड़कों का निर्माण करवाया। उन्होंने कामगारों के विशाल समूह को इस कार्य में नियुक्त किया था। वाल्मीकि रामायण में इन सडकों एवं उनके निर्माण का विस्तृत वर्णन किया गया है।

इन सडकों के निर्माण में उनकी सहायता करने के लिए विशेषज्ञों की टोली भी थी, जैसे स्थल निरीक्षक, सर्वेक्षक, वास्तुविद, अभियंता, मिस्त्री, बढ़ई, पौधे लगाने के लिए माली इत्यादि।

प्राचीन भारत में यात्रा सहायक – पथप्रदर्शक

उनके साथ एक पथप्रदर्शक अथवा मार्गदर्शक भी सदैव रहता था। उसे सम्पूर्ण क्षेत्र की पूर्व जानकारी होती थी तथा वह अज्ञात क्षेत्रों में यात्रियों का मार्गदर्शन करता था। अन्यथा सघन वनीय प्रदेशों में अज्ञात परिस्थितियाँ संकट में डाल सकती थीं। मार्गदर्शक का कार्य बहुधा यात्रा समूह का मुखिया करता था जिसे सात्वाहक कहा जाता था। सात्वाहक अपने कार्य में अत्यंत निपुण होता था। आप जब भी वाल्मीकि रामायण पढ़ें तो इस प्रसंग को ध्यानपूर्वक पढ़ें। प्राचीन काल में कैसे सडकों का निर्माण किया जाता था तथा कैसे विशाल सेनायें इन मार्गों पर चलती थीं, इनके विषय में आपको विस्तृत जानकारी प्राप्त होगी।

अतिथिगृह

मार्गों के किनारे सराय एवं अतिथिगृह होते थे। इन अतिथिगृहों के विषय में ऋग्वेद, अर्थशास्त्र एवं जातक कथाओं में भी उल्लेख प्राप्त होता है। पाणिनि ने भी इनके विषय में उल्लेख किया है। वेदों में भी इन अतिथिगृहों के विषय में लिखा गया है। अथर्व वेद में अतिथिगृहों को अवसत कहा गया है तो ऋग्वेद में उन्हें प्रपत अथवा प्रथमा कहा गया है। इतिहास में मौर्यवंशियों का विशेष रूप से उल्लेख किया गया है जिन्होंने प्रवासियों की यात्राओं को सुखकर बनाने के लिए बड़ी संख्या में अतिथिगृहों का निर्माण करवाया था। अतिथिगृहों में खाद्य एवं पेय पदार्थों की उत्तम सुविधाएं होती थीं। इन सब के रखरखाव का उत्तरदायित्व राज्य पर ही होता था।

इनके अतिरिक्त आश्रम होते थे जो यात्रियों का स्वागत सत्कार करने के लिए तत्पर रहते थे। पौराणिक कथाओं में हमने ऋषि-मुनियों के विषय में पढ़ा है जो यात्राएं करते थे तथा मार्ग में अन्य ऋषियों के आश्रम में विश्राम करते थे। आप सब को शकुंतला की कथा तो स्मरण ही होगी। यात्रा करते दुर्वासा ऋषि विश्राम की इच्छा से ऋषि कणव के आश्रम में पहुंचे तथा शकुंतला द्वारा उपेक्षित होने पर उसे श्राप दे दिया था।

अतिथि देवो भवः, इस मूलमंत्र का पालन करने वाले प्राचीन भारत के प्रत्येक व्यक्ति का निवासस्थान किसी भी यात्री के लिए अतिथिगृह ही होता था। किसी विश्रामगृह की अनुपस्थिति में गांववासी ही परिवार के सदस्य की भांति यात्रियों की सेवा करते थे। अतिथि सत्कार के चलते किसी भी यात्री को रात्रि में आसरा पाने में कठिनाई नहीं होती थी।

सहप्रवास

प्राचीन काल में लोग अनेक बैलगाड़ियों के समूह में एक साथ सहप्रवास करते थे। अतिथिगृह के अभाव में खुले में डेरा डाल देते थे। वे अपने बैलगाड़ियों में अथवा वृक्षों के नीचे ही सो जाते थे। किन्तु यह सुरक्षित व्यवस्था नहीं थी। चोर-डाकुओं अथवा जंगली पशुओं का संकट सदैव बना रहता था।

अनुराधा: मेरा अगला प्रश्न है कि क्या प्राचीन काल में स्त्रियाँ भी यात्राएं करती थीं?

सुमेधा: जी हाँ। प्राचीन काल में स्त्रियाँ विभिन्न परिस्थितियों में यात्राएं करती थीं। अनेक व्यापारी अपने सम्पूर्ण परिवार के साथ व्यापार-यात्रायें करते थे क्योंकि उनकी यात्राएं एक अथवा दो दिवसों की नहीं होती थीं। एक व्यापार संबंधी यात्रा सम्पूर्ण करने में अनेक दिवस व्यतीत हो जाते थे। इनके अतिरिक्त, प्राचीन काल में भी अनेक विदुषी स्त्रियाँ होती थीं जो ज्ञान अर्जन हेतु यात्राएं करती थीं। नाट्य मंडलियों में भी स्त्रियों का समावेश होता था जो नाट्य प्रदर्शन के लिए अपनी मंडलियों के साथ यात्राएं करती थीं।

प्राचीन भारत में एकल स्त्री यात्री

प्राचीन काल में स्त्रियों का एक ऐसा भी समूह था जो ज्ञान अर्जन के लिए एकल यात्राएं करता था। वे पूर्णतः स्वतन्त्र यात्रिक होती थीं। ऐसी ही एक यात्री थी, सुलभा। महाभारत में भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को प्राचीन काल की एक सन्यासिनी सुलभा के विषय में जानकारी दी थी जो योगधर्म के अनुष्ठान द्वारा सिद्धि प्राप्त कर अकेली ही पृथ्वी पर विचरण करती थी। मोक्षतत्व के जानकार, मिथिलापुरी के राजा जनक एवं सिद्धि प्राप्त सन्यासिनी सुलभा के मध्य हुए संवादों के रूप में भीष्म इस प्रसंग का सुन्दर वर्णन करते हैं। एक अन्य उदहारण है, ययाति पुत्री माधवी का, जिसने लम्बे समय के शोषित जीवनकाल के पश्चात स्वतन्त्र यात्री के रूप में तपोवन का मार्ग ग्रहण किया था। अतः प्राचीन काल में ऐसे अनेक उदहारण हैं जहां स्त्रियों ने आत्मबोध एवं ज्ञान अर्जन के लिए अकेले ही भूलोक की यात्राएं की थीं। तपोवन को आत्मसात किया था।

एकल स्त्री यात्रियों का एक वर्ग ऐसा भी था जो मोक्ष प्राप्ति के लिए अत्यंत गंभीर था। वे किसी स्थान विशेष से सम्बन्ध नहीं जोड़ती थीं तथा किसी स्थान पर एक रात्रि से अधिक ठहरती भी नहीं थीं। सर्व सामाजिक बंधनों से सम्बन्ध विच्छेद कर केवल ज्ञान एवं मोक्ष प्राप्ति के लिए अग्रसर रहती थीं।

प्राचीन भारत की यात्रा पुस्तकें

अनुराधा: हमारे शास्त्रों में भी तीर्थ यात्राओं एवं तीर्थस्थलों के विषय में विस्तृत जानकारी दी गयी है। तीर्थ यात्राएं किस प्रकार की जानी चाहिए, इस विषय में भी लिखा गया है। इसी लिए यह देखा गया है कि हमारे अधिकतर तीर्थस्थल दूर-सुदूर के दुर्गम स्थानों  में होते हैं जहां तक पहुँचने के लिए साधक को विशेष जतन करने पड़ते हैं।

मैं आपसे एक प्रश्न पूछना चाहती हूँ कि प्राचीन भारत में की जाने वाले यात्राओं के विषय में जानने के लिए कौन कौन सी पुस्तकें पढ़नी चाहिए?

सुमेधा: मेरा सुझाव है कि आप Moti Chandras’s Trade and Trade Routes पढ़ें। इस पुस्तक में सटीक तिथियों सहित आर्य प्रवास सिद्धांत पर विस्तृत रूप से विश्लेषण एवं प्रमाण प्रस्तुत किये गए हैं। यद्यपि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह किंचित नकारात्मक प्रतीत हो सकता है तथापि इसमें प्राचीन भारत में यात्राएं अवन उनसे सम्बंधित  सर्व आयामों पर उत्तम जानकारी दी गयी है।

Upinder Singh की भी पुस्तक पढ़ें। प्राचीन भारत पर लिखित उनके इस पुस्तक में उन्होंने यात्राओं का भी उल्लेख किया है। Nayanjot Lahiri द्वारा व्यापार मार्गों पर लिखित पुस्तक मेरे अनुमान से भारत की सर्वोत्तम पुस्तक है।

अनुराधा:  सुमेधा जी, आज की चर्चा में भाग लेने एवं हमें ज्ञानवर्धक जानकारी प्रदान करने के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद।

सुमेधा: मुझे इस चर्चा में आमंत्रित करने के लिए आपका भी धन्यवाद। हमारी चर्चा अत्यंत रोचक रही।

प्राचीन भारत में यात्राएं पर सुमेधाजी से हुई चर्चा की लिखित प्रतिलिपि IndiTales Internship Program के अंतर्गत हर्षिल गुप्ता ने तैयार की।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

2 COMMENTS

  1. प्राचीन भारत में यात्राएं क्यों और कैसे करते थे, एक बहुत ही अच्छा विषय है क्योंकि जो ऐतिहासिक उपन्यास या कथाएं पड़ते थे तो मन मे स्वतः ही यह विचार आता कि यात्राएं क्यों और कैसे की जाती थी आपके वार्तालाप से लगभग इन विचारों को विराम मिला, हिंदी में अनुवादित शब्दो का भी उचित समायोजन हुआ है। साधुवाद।।????????

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