काशी विश्वनाथ मंदिर अनेक तीर्थ यात्राओं का केंद्र बिंदु है। हृदय है। भारत में स्थित भगवान शिव के १२ ज्योतिर्लिंगों में से एक, काशी विश्वनाथ मंदिर को सर्वाधिक महत्वपूर्ण ज्योतिर्लिंग माना जाता है। वाराणसी की गलियों में स्थित यह प्रमुख मंदिर चारों ओर से अनेक छोटे-बड़े मंदिरों से घिरा हुआ है, आप उनमें खो से जाते हो। गत सहस्त्र वर्षों में इस मंदिर ने एवं इसके भक्तों ने अनेक उतार-चढ़ाव देखे हैं, अनेक स्थालांतरण किये। यह मेरा सौभाग्य है कि मैं यहाँ आपको अप्रत्यक्ष रूप से काशी विश्वनाथ मंदिर की तीर्थयात्रा करा रहा हूँ। आईये काशी विश्वनाथ मंदिर के वैभव एवं वैशिष्ट्य को जाने एवं समझें।
काशी विश्वनाथ की कथाएं
बाबा विश्वनाथ, विश्वेश्वर, काशी विश्वनाथ, ये कुछ नाम हैं भगवान शिव के, जो ब्रह्माण्ड के स्वामी हैं। वे काशी पुरी एवं काशी क्षेत्र के अधिष्ठात्र देव हैं।
काशी भगवान शिव की नगरी है। ऐसा माना जाता है कि यह नगरी भगवान शिव के त्रिशूल पर स्थित है। नगरी में स्थित तीन शिव मंदिर इस त्रिशूल के तीन नोकों के द्योतक हैं। मध्य तीर पर विश्वनाथ मंदिर है। अन्य दो मंदिर हैं, केदारेश्वर मंदिर तथा ओंकारेश्वर मंदिर।
स्कन्द पुराण
स्कन्द पुराण के काशी खंड में दिवोदास नामक एक राजा का उल्लेख है जो काशी का राजा था। वह एक सद्धर्मी व सदाचारी राजा था जो अत्यंत न्यायसंगत राजपाट संभालता था। उसने ब्रह्मा से वरदान प्राप्त किया था कि कोई भी देवता उसकी धरती पर अपने चरण भी स्पर्श नहीं करें। ब्रह्मा ने उसे यह वरदान दिया किन्तु साथ ही एक प्रतिबन्ध भी लगाया कि उसके राज्य का प्रत्येक व्यक्ति सुखी व आनंदी हो।
इस बीच भगवान शिव ने अपनी नगरी में वापिस आना चाहा किन्तु इस प्रतिबन्ध के कारण नहीं आ पा रहे थे। उन्होंने भिन्न भिन्न देवताओं को वहाँ भेजा, जैसे ६४ योगिनियाँ, १२ आदित्य, उनके गण, यहाँ तक कि भगवान गणेश भी। किन्तु वे परिस्थिति को अपने अनुसार ढाल नहीं पाए। अंततः भगवान विष्णु राजा दिवोदास को मनाने में सफल हुए कि वह भगवान शिव को उनकी नगरी में प्रवेश कर वहाँ का अधिष्ठात्र देव बनने दे।
ज्ञानवापी कुआँ
मंदिर में स्थित ज्ञान-वापी अर्थात कुआँ, काशी में गंगा जी के अवतरण से भी पूर्व स्थित है। इस कुँए की खुदाई स्वयं भगवान शिव ने अपने त्रिशूल द्वारा की थी ताकि इसके जल से अविमुक्तेश्वर लिंग का अभिषेक किया जा सके।
लगभग सभी ऋषि मुनि एवं साधु काशी एवं विश्वनाथ की तीर्थयात्रा अवश्य करते हैं। अनेक ऋषि मुनियों ने यहाँ तपस्या की है तथा भगवान विश्वनाथ का गुणगान किया है। आपको सुप्रसिद्ध शास्त्रीय गायिका श्रीमती एम एस सुब्बुलक्ष्मी द्वारा गाया काशी विश्वनाथ सुप्रभातम स्मरण ही होगा। आदि शंकराचार्य, गोस्वामी तुलसीदास, गुरु नानक देव जी तथा स्वामी विवेकानंद ने अपने यात्रा संस्मरण में काशी नगरी एवं भगवान विश्वनाथ का उल्लेख किया है।
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काशी विश्वनाथ मंदिर का इतिहास
काशी विश्वनाथ मंदिर का उल्लेख स्कन्द पुराण के काशी खंड में किया गया है जिसमें काशी अथवा वाराणसी नगरी के सभी तीर्थों के विषय में लिखा गया है।
ज्ञात ऐतिहासिक सूत्रों के अनुसार प्राचीनकाल के लगभग सभी यात्रियों ने, जिन्होंने काशी नगरी की यात्रा की थी, इस मंदिर का उल्लेख किया है तथा इस नगरी को भगवान शिव की नगरी कहा है। भारत की पावन नगरी में स्थित, सर्वाधिक पूजनीय मंदिरों में से एक होने के कारण यह सदा आक्रमणकारियों की आँखों का काँटा था। प्रलेखित ऐतिहासिक सूत्रों के अनुसार इस मंदिर पर सर्वप्रथम आक्रमण सन् ११९४ में मुहम्मद घोरी ने किया था जिसने इस नगरी को बड़ी भारी क्षति पहुंचाई थी। इसके पश्चात दिल्ली की रानी रजिया सुलतान ने मंदिर के स्थान पर मस्जिद का निर्माण कराया था। इसके कारण मूल मंदिर को अविमुक्तेश्वर मंदिर के समीप स्थानांतरित किया गया था।
इसके पश्चात १६वीं सदी के आसपास सिकंदर लोधी ने इस पर आक्रमण किया था। जब जब आक्रमणकारियों ने मंदिर का विनाश किया, तब तब स्थानीय हिन्दू राजाओं एवं असंख्य तीर्थ यात्रियों ने इसका पुनर्निर्माण कराया। अंतिम विनाशकारी आक्रमण औरंगजेब द्वारा किया गया था जिसने मंदिर को नष्ट कर दिया तथा उसके खंडहरों पर ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण कराया। आक्रमणकारियों से शिवलिंग की रक्षा करने के लिए मंदिर के पुजारी ने शिवलिंग के साथ कुँए में छलांग लगा दी थी।
रानी अहिल्या बाई होलकर द्वारा पुनर्निर्माण
वर्तमान में हम जिस विश्वनाथ मंदिर को देखते हैं, उसका निर्माण सन् १७८० में मालवा की रानी अहिल्या बाई होलकर ने करवाया था। उससे पूर्व अनेक राजपुताना एवं मराठा राजाओं ने मंदिर के पुनर्निर्माण का प्रयास किया था किन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली थी। सन् १८३५ में महाराजा रंजीत सिंह ने मंदिर के शिखर के लिए एक टन सोना अनुदान में दिया था। अन्य अनेक राजाओं ने भी चाँदी, मूर्तियाँ एवं अन्य प्रकार से अनुदान देकर मंदिर संकुल के निर्माण में सहयोग किया था।
पंडित मदन मोहन मालवीय ने बिरला परिवार के सहयोग से बनारस हिन्दू विश्विद्यालय में एक नवीन काशी विश्वनाथ मंदिर का निर्माण कराया था। इस निर्माण कार्य का आरम्भ सन् १९३० में हुआ था। इस मंदिर का शिखर विश्व भर के सभी हिन्दू मंदिरों के शिखरों से ऊँचा है।
सन् २०२१ में वर्तमान सरकार ने काशी विश्वनाथ गलियारे(Corridor) का निर्माण किया है जो मंदिर को सीधे गंगा के घाट से जोड़ता है। इससे पूर्व मंदिर से घाट तक पहुँचने के लिए संकरे घुमावदार मार्ग से जाना पड़ता था। अब हम इस चौड़े गलियारे के द्वारा सीधे ही मंदिर से घाट तक जा सकते हैं।
काशी विश्वनाथ मंदिर
काशी विश्वनाथ मंदिर पहुँचने से पूर्व हम काशी विश्वनाथ गली से जाते हैं जो एक संकरी गली है। इसके दोनों ओर अनेक विक्रेता अपनी छोटी छोटी दुकानों में रंगबिरंगी पूजा सामग्री तथा वाराणसी के लोकप्रिय स्मारिकाओं की विक्री करते हैं। इस गली से आगे जाते हुए हम सर्वप्रथम माँ अन्नपूर्णा मंदिर पहुँचते हैं। इसके पश्चात काशी विश्वनाथ मंदिर पहुँचते हैं। जैसा कि आपने कथाओं में पढ़ा है, यह मंदिर अपेक्षाकृत छोटा है। यह मंदिर अपने मूल स्थान पर अपनी पूर्ण भव्यता से पुनर्निर्मित होने की प्रतीक्षा में रत है।
चाँदी से अलंकृत द्वार से आप मंदिर परिसर के भीतर प्रवेश करते हैं। परिसर में अनेक मंदिर हैं। भक्तों की भीड़ एवं सुनहरे शिखर से आप काशी विश्वनाथ मंदिर को आसानी से पहचान सकते हैं। मंदिर के गर्भगृह के भीतर चाँदी की योनि पर शिवलिंग विराजमान हैं। इस मंदिर की संरचना वास्तु शिल्प के उत्तर भारतीय नागर शैली में की गयी है। मंदिर का शिखर इस शैली की विशेष छाप प्रस्तुत करता है।
गर्भगृह के समक्ष एक छोटा खुला मंडप है जहाँ से आप भगवान के दर्शन करते हैं।
मुख्य मंदिर के चारों ओर अनेक छोटे मंदिर हैं। काशी विश्वनाथ गलियारे के लिए मंदिर परिसर के विस्तार कार्य के समय इनमें से अनेक मंदिरों को अन्यत्र स्थानांतरित किया गया है।
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काशी विश्वनाथ मंदिर में आरती
मंदिर में पाँच प्रमुख आरतियाँ की जाती हैं।
मंगल आरती
यह आरती प्रातः मुंह अँधेरे लगभग ३ बजे की जाती है। यह दिवस की प्रथम आरती होती है। यह बाबा विश्वनाथ को जगाने का अनुष्ठान होता है। इस आरती के पश्चात ही मंदिर के पट बाबा के दर्शनों के लिए खोले जाते हैं। इस समय बाबा विश्वनाथजी का षोडशोपचार, उनकी आरती, उनकी स्तुति तथा ब्रह्माण्ड की भलाई के लिए प्रार्थना की जाती है।
यह अनुष्ठान दर्शनार्थियों, तीर्थयात्रियों एवं काशी के स्थानिकों में अत्यंत लोकप्रिय है। अधिकाँश पर्यटन परिदर्शक भी निर्देशित पर्यटन के अंतर्गत सब को प्रातः इसी आरती के लिए लेकर आते हैं। मंदिर के अधिकारिक वेबस्थल पर आप यह आरती ऑनलाइन भी देख सकते हैं।
मंदिर दर्शन के लिए वैसे भी प्रातः काल का समय सर्वोत्तम माना जाता है। जब आप मुख्य मंदिर के चारों ओर भ्रमण करें तो इसके चारों ओर स्थित अनेक छोटे-बड़े मंदिरों में आपको मंत्रस्तुति दिखाई व सुनाई देगी।
भोग आरती
यह आरती लगभग दोपहर के समय की जाती है जब बाबा विश्वनाथ को भोग अथवा प्रसाद अर्पित किया जाता है। इस समय श्रृंगार, स्तुति एवं आरती के साथ रुद्राभिषेक भी किया जाता है। यह भोग सप्ताह के विभिन्न वारों अथवा तिथि के अनुसार निर्धारित किया गया है। जैसे, एकादशी के दिन बाबा को फल, दूध एवं दूध से निर्मित प्रसाद अर्पित किया जाता है। अन्य दिवसों में सूखे मेवे, पूरी, हलवा अथवा सम्पूर्ण भोजन अर्पित किया जाता है। तदनंतर यह प्रसाद आरती के लिए उपस्थित सभी भक्तगणों को दिया जाता है। भोग आरती के पश्चात दंडी स्वामियों को भोजन खिलाया जाता है।
सप्तऋषि आरती
मंदिर में सूर्यास्त के पश्चात की जाने वाली यह आरती एक अत्यंत अनूठी आरती है। यह आरती सप्तऋषियों द्वारा किये जाने का द्योतक है। ये सप्तऋषि हैं, कश्यप, अत्री, वसिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि तथा भारद्वाज। इस आरती का मूल सामवेद में प्राप्त होता है जिसे गाया जाता है। पुरातन काल में राजा-महाराजा इस आरती के लिए ब्राह्मणों की सेवायें लेते थे जो उनके लिए यह आरती करते थे।
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रात्रि श्रृंगार आरती
यह आरती संध्याकाल के पश्चात लगभग ९ बजे की जाती है। इस आरती के लिए भगवान शिव का काशी के राजा के रूप में अलंकरण किया जाता है। उनके इस रूप को काशीपुराधीश्वर कहा जाता है। यह आरती प्राचीन वैदिक संस्कारों द्वारा की जाती है जिनमें श्रृंगार, रुद्राभिषेक, स्तुति एवं भोग सम्मिलित हैं।
शयन आरती
यह दिवस की अंतिम आरती होती है जिसके पश्चात बाबा शयन करते हैं। इस आरती के पश्चात मंदिर के पट बंद कर दिए जाते हैं। यह आरती काशीवासी अर्थात काशी के निवासी करते हैं। रात्रि ११ बजे के पश्चात काशी नगरी के लगभग ४०-५० निवासी मंडप में एकत्र होते हैं तथा आरती गाते हैं। जब यह आरती अपनी चरम सीमा पर पहुँचती है तब उसका अनुभव अत्यंत ही रोमांचित कर देता है। इस समय दर्शनार्थियों की संख्या अधिक नहीं होती है। इस समय भीड़ रहित मंदिर में भक्ति से सराबोर होने का आनंद प्राप्त होता है। साथ ही काशी वासियों की श्रद्धा व समर्पण के दर्शन भी होते हैं।
पद्म पुराण के पातालखंड में यह उल्लेख किया गया है कि एक भक्त को प्रातः काल में गंगा में स्नान करना चाहिए अथवा दोपहर के समय मणिकर्णिका कुण्ड में डुबकी लगानी चाहिए, तत्पश्चात, क्रम में, इन प्रमुख मंदिरों के दर्शन करना चाहिए, विश्वनाथ, भवानी या अन्नपूर्णा मंदिर, दूँडीराज मंदिर, दण्डपाणी तथा काल भैरव मंदिर।
काशी खंड में किंचित लम्बी तीर्थयात्रा का उल्लेख किया गया है जिसमें पूर्वजों के प्रति तर्पण तथा सभी मंदिरों के दर्शन सम्मिलित हैं, जैसे विष्णु, गणेश।
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बाबा विश्वनाथ मंदिर के उत्सव
महाशिवरात्रि
यूँ तो प्रत्येक मास में कृष्ण पक्ष के चौदहवें दिवस, अर्थात अमावस से एक दिवस पूर्व शिवरात्रि होती है। फाल्गुन मास में वही दिवस महाशिवरात्रि के रूप में मनाया जाता है। इस दिन भक्तगण मंदिर में भगवान के दर्शन एवं अभिषेक करने के लिए आते हैं। काशी विश्वनाथ मंदिर के द्वार महाशिवरात्रि के उत्सव के लिए सम्पूर्ण रात्रि खुले रहते हैं। इसी कारण उस रात्रि में शयन आरती नहीं की जाती। इस दिन आरती की दिनचर्या भिन्न होती है ताकि अधिक से अधिक श्रद्धालु भगवान के दर्शन कर सकें।
खौगोलिक दृष्टी से देखा जाए तो महाशिवरात्रि वसंत विषुव(spring equinox) के आसपास होती है।
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रंगभरी एकादशी
फाल्गुन शुक्ल पक्ष एकादशी के दिन मनाया जाने वाला यह रंगों का उत्सव मंदिर एवं भक्तगणों को रंगों की विभिन्न छटा से सराबोर कर देता है। भगवान शिव एवं देवी पार्वती की उत्सव मूर्तियों पर उजले गुलाबी रंग का अबीर-गुलाल अर्पित किया जाता है। इसके पश्चात भक्तगण आपस में रंगों से खेलते हैं। नृत्य एवं संगीत इस उत्सव के उल्हास को चरम सीमा तक पहुंचा देते हैं।
श्रावण सोमवार
श्रावण मास को भगवान शिव की भक्ति का मास माना जाता है। सम्पूर्ण भारत में इस मास के प्रत्येक सोमवार के दिन भगवान शिव के दर्शन करना, उनकी आराधना करना अत्यंत शुभ माना जाता है। अतः भगवान शिव का यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण मंदिर श्रावण के उत्सवों से कैसे वंचित रह सकता है? श्रावण सोमवार के दिन यह मंदिर भक्तों से भरा रहता है जो भगवान को जल, दूध, दही, बिल्व पत्र आदि अर्पित करने आते हैं।
श्रावण मास के चारों सोमवार को भगवान शिव का भिन्न भिन्न रूप से अत्यंत भव्य श्रृंगार किया जाता है।
अक्षय तृतीया
हिन्दू पंचांग में सर्वाधिक महत्वपूर्ण दिवस होता है, अक्षय तृतीया। इस दिन बाबा विश्वनाथ पर गंगाजल छिड़का जाता है।
अन्नकूट
यह उत्सव हिन्दू पंचांग के कार्तिक मास में, दीपावली के दूसरे दिवस मनाया जाता है। भिन्न भिन्न प्रकार के ५६ भोग बनाए जाते हैं तथा भगवान शिव एवं उनके परिवार को भोग आरती के समय अर्पित किये जाते हैं।
कार्तिक पूर्णिमा के दिन देव दीपावली का उत्सव गंगा घाट पर मनाया जाता है जहाँ लाखों की संख्या में मिट्टी के दिए जलाए जाते हैं। मंदिर को भी विशेष रूप से प्रकाशित किया जाता है।
मैंने अनेक बार इस मंदिर के दर्शन किये हैं। मेरा अनुभव कहता है कि इस मंदिर में प्रत्येक दिवस एक उत्सव होता है।
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यात्रा सुझाव
- वाराणसी सम्पूर्ण भारत के विभिन्न क्षेत्रों से वायु मार्ग, रेल मार्ग तथा सड़क मार्ग से जुड़ा हुआ है।
- वाराणसी में आप किसी से भी पूछिये, वे आपको काशी विश्वनाथ मंदिर का मार्ग बता देंगे। दर्शन के लिए आवश्यक समय मंदिर में उपस्थित भक्तों की भीड़ पर निर्भर करता है।
- मंदिर के भीतर किसी भी प्रकार के इलेक्ट्रॉनिक उपकरण ले जाने पर प्रतिबन्ध है। यहाँ तक कि आप मोबाइल फोन भी नहीं ले जा सकते।
- मंदिर जाने के लिए अनेक मार्ग हैं। सर्वाधिक लोकप्रिय मार्ग है, विश्वनाथ गली। चौक की ओर से भी मंदिर पहुँचा जा सकता है। अब तो काशी विश्वनाथ गलियारे के द्वारा गंगा घाट से भी मंदिर की ओर आ सकते हैं।
- भगवान काशी विश्वनाथ मंदिर की यात्रा में आप कम से कम एक आरती तो अवश्य देखें व उसका आनंद लें।
- काशी विश्वनाथ मंदिर के वेबस्थल द्वारा आप अपना दर्शन, रहने का स्थान तथा पूजा की पूर्व बुकिंग कर सकते हैं।
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यदि आपकी वाराणसी यात्रा में बाबा विश्वनाथ मंदिर के दर्शनों के पश्चात आपके पास समय हो तो आप गंगा के उस पार रामनगर दुर्ग के दर्शन कर सकते हैं। श्री लाल बहादुर शास्त्री के गृह नगर में उनका स्मारक भी देख सकते हैं।
सन्दर्भ
भज विश्वनाथं – नितिन रमेश गोकर्ण(लेखक) एवं मनीष खत्री(छायाचित्रकार)