कर्णाटक के तटीय क्षेत्र में बसा उडुपी नगर अनेक प्राचीन मंदिरों तथा स्वादिष्ट उडुपी व्यंजनों के लिए अत्यंत लोकप्रिय है। उडुपी नगर के हृदयस्थल पर श्री कृष्ण मठ स्थित है जो एक मंदिर भी है। १३वीं सदी में निर्मित इस मंदिर की स्थापना श्री माधवाचार्य जी ने की थी। इस मंदिर के चारों ओर ८ मठों की स्थापना की गयी है। वर्ष भर असंख्य भक्तगण, दर्शनार्थी एवं श्रद्धालू अत्यंत उत्साह से इस मंदिर के दर्शन करते हैं। मंदिर परिसर के भीतर भगवान शिव के दो प्राचीन मंदिर भी स्थित हैं।
शैव धर्म को समर्पित इन प्राचीन मंदिरों के नाम हैं, अनंतेश्वर मंदिर एवं चन्द्रमौलीश्वर मंदिर। इन दो प्राचीन मंदिरों की उपस्थिति ने श्री कृष्ण मंदिर की स्थापना के पूर्व से ही उडुपी को एक पावन भूमि का स्तर प्रदान कर दिया था। प्रचलित प्रथाओं के अनुसार श्री कृष्ण मंदिर के दर्शन से पूर्व इन दो मंदिरों के दर्शन करना आवश्यक है।
उडुपी के प्राचीन शिव मंदिर
चन्द्रमौलीश्वर मंदिर
उडुपी नगर का इतिहास उडुपी नाम में ही सन्निहित है। उडुपी नाम की व्युत्पत्ति संस्कृत शब्द उडुपा से हुई है जिसका शाब्दिक अर्थ है, नक्षत्रों के स्वामी चन्द्र। प्रचलित किवदंतियों के अनुसार चन्द्र का विवाह दक्ष प्रजापति की २७ पुत्रियों से हुआ था। दक्ष प्रजापति की २७ पुत्रियाँ २७ नक्षत्रों का प्रतीक हैं। उन २७ पत्नियों में से चन्द्र को रोहिणी से विशेष स्नेह था जिसके कारण उनसे अपनी अन्य २६ पत्नियों की उपेक्षा हो गयी। जब चन्द्र की २६ पत्नियों ने अपने पिता दक्ष से अपनी व्यथा कही, तब दक्ष ने चन्द्र के इस व्यवहार से क्रोधित होकर उन्हे श्राप दे दिया कि उनकी कान्ति शनैः शनैः क्षीण हो जायेगी तथा एक दिवस वे कांतिहीन हो कर विस्मृत हो जायेंगे। इस श्राप से मुक्ति पाने के लिए चन्द्र ने भगवान शिव की आराधना की तथा कठोर तप किया।
चन्द्र की घोर तपस्या से प्रभावित होकर भगवान शिव ने श्राप के ताप को दुर्बल करते हुए इन्हें पूर्णतः क्षय हो जाने के स्थान पर क्रमवार क्षय एवं वृद्धि होने की क्षमता प्रदान की। जिस स्थान पर चन्द्र ने भगवान शिव की घोर तपस्या की थी, उस स्थान को अब्जारण्य कहा गया जो अब उडुपी है। समीप स्थित सरोवर चन्द्रपुष्करणी कहलाया। इस घटना के पश्चात भक्तों ने भगवान शिव को चन्द्रमौलीश्वर की उपाधि से अलंकृत किया।
मंदिर का परिसर
चन्द्रमौलीश्वर मंदिर का निर्माण ८वीं सदी में किया गया था। यह मंदिर स्थापत्य कला की उडुपी शैली में निर्मित है। इसकी छत ढलवाँ है तथा भूमि पर शीतल ग्रेनाईट शिलाओं की परत है। यह मंदिर श्री कृष्ण मठ के समक्ष स्थित है। इसके एक ओर इस क्षेत्र का सर्वाधिक लोकप्रिय जलपानगृह मित्र समाज स्थित है।
मंदिर में स्थित नंदी का विग्रह एक ओर झुका हुआ है जिसके कारण शिवलिंग के दर्शन प्राप्त करने के लिए हमें भी अपना शीष उसी प्रकार झुकाना पड़ता है। यह मंदिर भूतल से लगभग ६ फीट नीचे स्थित है। मंदिर में प्रवेश करने के लिए हमें कुछ सोपान नीचे उतरना पड़ता है। भूतल से नीचे स्थित होने के पश्चात भी इस मंदिर में कभी भी बाढ़ के जल ने प्रवेश नहीं किया है।
ऐसी मान्यता है कि मंदिर में स्थापित स्फटिक के शिवलिंग का रंग एक दिवस में तीन बार परिवर्तित होता है। प्रातःकाल शिवलिंग श्याम वर्ण का प्रतीत होता है, दूसरे प्रहर में नीलवर्ण तथा रात्रि काल में श्वेत प्रतीत होता है। शिवलिंग पर चाँदी का मुख अथवा मुखौटा चढ़ाया जाता है। पर्याय स्वामीजी पर्याय सिंहासन पर विराजमान होने से पूर्व चन्द्रमौलीश्वर मंदिर में भगवान के दर्शन करते हैं। इसके पश्चात वे भगवान अनंतेश्वर एवं श्री कृष्ण के दर्शन करते हैं। यह प्रथा अब भी अनवरत अखंडित चली आ रही है।
अनंतेश्वर मंदिर
उडुपी को तुलु भाषा में ओडिपू कहते हैं। ओडिपू शब्द संस्कृत शब्द रजतपीठपुर से प्रेरित है जिसका अर्थ है, चाँदी के पीठासन का नगर। अनंतेश्वर मंदिर के भीतर अनंतेश्वर लिंग चाँदी द्वारा निर्मित एक प्राचीन पीठासन पर प्रतिष्ठापित है। इस परशुराम क्षेत्र पर राजा रामभोज का आधिपत्य था।
एक समय राजा रामभोज ने स्वयं को चक्रवर्ती सम्राट अर्थात् सम्पूर्ण धरती का निर्बाध सम्राट सिद्ध करने के लिए अश्वमेध यज्ञ करने का निश्चय किया। अश्वमेध यज्ञ की यज्ञ भूमि चन्द्रमौलीश्वर मंदिर के पश्चिमी पार्श्वभाग पर स्थित थी। यज्ञ वेदी के निर्माण के लिए जब भूमि की जुताई की जा रही थी तब एक सर्प हल से आहत हो गया तथा उसकी मृत्यु हो गयी। सर्पहत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए राजा ने पूर्ण श्रद्धा से भगवान शिव की आराधना की। भगवान् शिव राजा की घोर तपस्या से प्रसन्न हुए। राजा को पापमुक्त करने के लिए भगवान ने उसे यज्ञ भूमि पर चाँदी के पीठासन का निर्माण कराकर उस पर लिंग की स्थापना कराने का आदेश दिया। कालान्तर में यही लिंग अनंतेश्वर लिंग कहलाया तथा उस पर निर्मित मंदिर को अनंतेश्वर मंदिर कहा गया।
तुलुनाडू का प्राचीनतम मंदिर होने के नाते यह मंदिर शिवल्ली ब्राह्मण समुदाय का आध्यात्मिक केंद्र है। ऐसी मान्यता है कि माधवाचार्य के माता-पिता ने संतान प्राप्ति के लिए १२ वर्षों तक अनंतेश्वर मंदिर में अनंतेश्वर स्वामी की आराधना की थी।
मंदिर का परिसर
अनंतेश्वर मंदिर को लगभग २री. सदी में निर्मित माना जाता है। भित्तियों का निर्माण करने के लिए ग्रेनाईट के फलकों को चूने के पलस्तर से जोड़ा गया है। यह एक अनूठा मंदिर है। इस मंदिर में भगवान शिव के साथ शेषनाग विराजमान हैं। इसी कारण इस मंदिर में शैव एवं वैष्णव, दोनों मान्यताओं के भक्तगण आते हैं।
इस मंदिर के गर्भगृह के दो भाग हैं। जहाँ एक भाग भक्तों को दृश्यमान है, वहीं दूसरा भाग मूलस्थान के पृष्ठभाग में होने के कारण भक्तों के लिए अदृश्यमान है। प्रवेश द्वार पर शंख एवं चक्र की आकृतियाँ देखी जा सकती हैं। मंदिर के विशेष आकर्षणों में मंदिर परिसर में विराजमान ४० फीट उंचा दीपस्तंभ भी सम्मिलित है। भक्तगण तेल का आर्पण करते हुए दीपों को प्रज्ज्वलित करते हैं।
मंदिर की परिक्रमा करते हुए आप भित्तियों पर गणपति एवं पार्वती की छवियाँ देख सकते हैं। मंदिर के एक कोने में शेषनाग एवं ऐयप्पा स्वामी की लघु आकृतियाँ हैं जो शक्तिशाली देवों का प्रतिनिधित्व करते हैं। शेषनाग की प्रतिमा शुद्ध स्वर्ण धातु में निर्मित है।
उडुपी के शिव मंदिरों में शिवरात्रि पर्व का उत्सव
हम सब इस तथ्य से परिचित हैं कि भगवान शिव की सर्वाधिक पावन आराधना बिल्व पत्र अर्चना मानी जाती है। उडुपी के इन दोनों प्राचीन मंदिरों में विशेष रुद्राभिषेक एवं बिल्वपत्र अर्चना द्वारा भगवान शिव की आराधना की जाती है। माधवाचार्य जी के अनुयायी अथवा माधव ब्राह्मण समुदाय के विष्णु आराधक शिवरात्रि के दिवस उपवास अथवा अल्पभोजन करने के स्थान पर भरपेट भोजन करते हैं। वैष्णव प्रथाओं को मानने के पश्चात भी शिव की आराधना करने में उन्हें तनिक भी संकोच नहीं होता है। वे शिवपंचाक्षर मंत्र का जप करते हुए भिन्न भिन्न उपचारों व सेवाओं द्वारा भगवान शिव की पूजा-अर्चना करते हैं।
महाशिवरात्रि पर्व के अवसर पर सूर्यास्त के पश्चात दोनों मंदिरों में रथोत्सव का आयोजन किया जाता है। महाशिवरात्रि उत्सव के अंतिम दिवस अनंतेश्वर महादेव के लिए विशेष रथोत्सव का आयोजन किया जाता है। शिवरात्रि के उत्सव में भाग लेने के लिए अनेक भक्तगण यहाँ आते हैं। मैंने शिवरात्रि उत्सव से एक दिवस पश्चात मंदिर के दर्शन किये थे। चारों ओर निर्मल एवं शांत वातावरण था। मंदिर में भक्तों की संख्या नगण्य थी। मुझे अपने चारों ओर सकारात्मक उर्जा का दिव्य अनुभव प्राप्त हो रहा था।
हमने मथुरा में भी देखा था कि कृष्ण की नगरी का संरक्षण करते चार प्राचीन शिव मंदिर हैं। ऐसी मान्यता है कि उडुपी के शिव मंदिरों के समान ये मंदिर भी कृष्ण के काल से भी अधिक पुरातन हैं।
संस्कृति एवं पाकशैली
उडुपी तुलुनाडू एवं प्राचीन परशुराम क्षेत्र का एक अभिन्न अंग है। उडुपी में तीन भिन्न भिन्न संस्कृतियों का सम्मिश्रण दृष्टिगोचर होता है, कन्नड़, तुलु एवं कोंकणी। इसी कारण यहाँ की पाकशैली एवं यहाँ के व्यंजन तीनों संस्कृतियों के विभिन्न मसालों एवं स्वादों का अद्भुत समागम है।
सज्जिगे बाजिल, मैंगलोर बंस, गोली भाजे, बिस्कुट अम्बाडे, बोंडा सूप, मीठे अवलक्की, सन्ना पोला, मेंथे दोसे आदि उन स्वादिष्ट व्यंजनों में से हैं जो इन तीनों संस्कृतियों के अभिन्न अंग हैं। ये सभी व्यंजन मंदिर परिसर के भीतर स्थित अनेक जलपानगृहों में भी उपलब्ध हैं। इन स्वादिष्ट व्यंजनों के लिए १०० वर्ष प्राचीन जलपानगृह, ‘मित्र समाज’ विशेषरूप से प्रसिद्ध है। कुरकुरा मसाला डोसा एवं मूदे इडली के साथ गर्म फिल्टर कॉफी हमारी जिव्हा एवं मन दोनों को तृप्त कर देती है।
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दोपहर के भोजन के लिए शुद्ध शाकाहारी कोंकणी थाली एक स्वादिष्ट विकल्प है जो यहाँ के अनेक भोजनालयों में उपलब्ध है। इस थाली की विशेषता है, भिन्न भिन्न प्रकार के उपकारी, दाल तोय एवं विभिन्न प्रकार के पोड़ी। बसवेश्वर खानावल्ली में आपकी जिव्हा एवं मन को तृप्त करने के लिए स्वादिष्ट उत्तर कर्णाटक व्यंजनों से सज्ज थाली उपलब्ध है। इस थाली के प्रमुख व्यंजन हैं, जोलदा रोटी, एन्ग्गई पाल्या, होलिगे आदि।
उडुपी भिन्न भिन्न प्रकार के आइसक्रीमों के लिए भी लोकप्रिय है। सर्वप्रसिद्ध एवं लोकप्रिय गड़बड़ आइसक्रीम का आविष्कार यहाँ के होटल डायना में ही हुआ था। यहाँ के प्रत्येक जलपानगृहों एवं भोजनालयों में भिन्न भिन्न प्रकार के आइसक्रीम एवं उनके निराले सम्मिश्रण परोसे जाते हैं। उडुपी के उष्ण एवं आर्द्र वातावरण में ये स्फूर्ति के स्त्रोत होते हैं। उडुपी के मंदिरों में सदियों से दूर-सुदूर से तीर्थयात्री भगवान के दर्शनार्थ आते रहे हैं। उडुपी ने सदा स्वादिष्ट एवं सात्विक व्यंजनों से उनकी सेवा की है। इसी कारण यहाँ उत्तम स्तर के उत्तर भारतीय व्यंजन भी उपलब्ध हैं।
उडुपी के शिव मंदिरों के दर्शन का सर्वोत्तम काल
सितम्बर मास से फरवरी मास का समयकाल उडुपी भ्रमण के लिए सर्वोत्तम काल है। ग्रीष्म ऋतु में यहाँ की ऊष्णता एवं आर्द्रता अत्यंत कष्टकारी होती हैं। जून मास से सितम्बर मास तक यहाँ घनघोर वर्षा होती है। यद्यपि वर्षा काल में उडुपी भ्रमण किंचित असुविधाजनक हो, तथापि इस काल में उडुपी भ्रमण आपको मनोरम प्राकृतिक दृश्यों से सराबोर भी कर देगा। वर्षा काल में उडुपी एवं आसपास के क्षेत्र अत्यंत मनोरम प्रतीत होते हैं।
सोमवार भगवान शिव के लिए एक विशेष दिवस होता है। इसलिए सोमवार के दिन मंदिरों में भक्तों का तांता लगा रहता है।
परिवहन एवं आवास सुविधाएं
उडुपी पहुँचने के लिए निकटतम विमानतल मंगलुरु में है जो उडुपी से लगभग ५५ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। मंगलुरु से आप सड़कमार्ग द्वारा उडुपी पहुँच सकते हैं।
यदि आपको रेल यात्राएं प्रिय हैं तो आप रेल मार्ग द्वारा भी मंगलुरु पहुँच सकते हैं। यदि आप बंगलुरु की ओर से आ रहे हैं तो मेरा सुझाव है कि आप बंगलुरु से करवार एक्सप्रेस अथवा विस्टाडोम से यात्रा करें। ८ घंटों की यह रेल यात्रा आपको पश्चिमी घाटों के अप्रतिम परिदृश्यों के दर्शन का सुअवसर प्रदान करेगी। बंगलुरु, मुंबई, पुणे, मंगलुरु आदि नगरों से यहाँ तक की सुविधाजनक बस सेवायें भी सुगमता से उपलब्ध हैं।
चूँकि उडुपी नगर अनेक वर्षों से तीर्थयात्रा का केंद्र रहा है, आवास हेतु यहाँ अनेक सुविधाजनक विश्राम गृह उपलब्ध हैं। आपकी व्यय क्षमता के अनुसार यहाँ अनेक अतिथिगृह, धर्मशालाएं, होटल एवं होमस्टे आदि की उत्तम सुविधाएं हैं। आपको भिन्न भिन्न प्रकार के स्वादिष्ट शाकाहारी भोजन का आनंद प्रदान करने के लिए अनेक भोजनालय आपकी सेवा के लिए तत्पर हैं।
यह संस्करण इंडीटेल्स प्रशिक्षण योजना के अंतर्गत अक्षया विजय द्वारा लिखित एवं प्रदत्त है।