श्री राहुल सांकृत्यायन द्वारा लिखित पुस्तक “घुमक्कड़ स्वामी” एक भ्रमणप्रिय साधू की कथा है जिसने उत्तरी भारत की लम्बाई तथा चौड़ाई नापी है। यह उस घुमक्कड़ी साधक की आत्मकथा है जिसने भारत के धार्मिक भूगोल को खंगाला है। जहां एक ओर कैलाश मानसरोवर की यात्रा की, वहीं कई पंथों को जानने हेतु समय समय पर उन धर्मों का पालन भी किया। वास्तव में वह भारत के अध्यात्मिक नक़्शे में स्वयं हेतु उपयुक्त स्थान की खोज कर रहा है। घुमक्कड़ योगीयों के समुदायों में स्वयं को सम्मिलित करते हुए उसने योग का मार्ग अपनाया है। उसे आयुर्वेद में भी महारथ प्राप्त है तथा वह प्रायः औषधिक वनस्पतियों की खोज में भ्रमण करता रहता है। वनस्पतियों पर शोध करने के लिए कई प्रयोगशालाएं भी स्थापित की हैं। अंततः उसने आयुर्वेद औषधियां बनाने हेतु एक निजी उद्योगिक इकाई भी स्थापित की है। निजी जीवन में सांसारिक दायित्वों का पालन करते हुए उसने विवाह भी किया तथा पत्नी संग सुखी जीवन व्यतीत किया।
उपरोक्त तथ्य जो मैंने आपके समक्ष प्रस्तुत किया वह इस पुस्तक में घुमक्कड़ स्वामी द्वारा कही गयी कहानी की रूपरेखा है। घुमक्कड़ स्वामी एक महाकथा है जो स्वामी द्वारा दर्शन किये गए स्थलों पर आधारित कथाओं से निर्मित है। इस पुस्तक का कथानक १९वी. से २०वी. शताब्दी के मध्य काल से सम्बन्ध रखता है। चूंकि कथाएं लगभग १०० वर्ष पूर्व के सामाजिक परिवेश से सम्बन्ध रखती हैं, यह हमारे लिए समकालीन समाज का सुन्दर चित्रण है। हमारे भारतवर्ष ने पिछले १०० वर्षों में बहुत कुछ देखा व भोगा है। वह चाहे स्वतंत्रता प्राप्ति हो अथवा देश का बंटवारा। यह घटनाएँ आज भी हमारे देश तथा देशवासियों हेतु अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। कदाचित इसीलिये यह पुस्तक जनमानस को भावनात्मक स्तर पर झकझोरती है। राहुल सांकृत्यायन एक अनुभवी यात्रा संस्मरण लेखक हैं। अतः कथा के नायक स्वामी को वे जहां जहां भी भ्रमण हेतु ले जाते हैं, वहां के इतिहास को पूर्णतया जानने का प्रयत्न करते हैं। उनके संस्मरणों द्वारा हमें भी उन स्थलों के नामों की व्युत्पत्ति, नगर से सम्बंधित रोचक पहलुओं, वहां के परिदृश्य तथा विभिन्न आयामों को सूक्ष्मता से जानने का अवसर मिलता है।
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राहुल सांकृत्यायन की इस पुस्तक की एक उपलब्धि यह भी है कि यह साधु-सन्यासियों के जनजीवन से हमारा परिचय कराती है। ये साधु-सन्यासी मोह-माया तथा समाज का त्याग करने के पश्चात भी मौलिक आवश्यकताओं के लिए इस समाज पर ही निर्भर रहते हैं। भले ही उनकी इच्छा वनों में जाकर ध्यान लगाने की हो, किन्तु उदर-भरण हेतु भिक्षा माँगने उन्हें किसी के घर जाना ही पड़ता है। अतः बस्ती से विरक्त रहकर भी उन्हें बस्ती के समीप ही बसेरा करना पड़ता है ताकि आसानी से भोजन प्राप्त कर सकें। मिथ्याएं किस प्रकार से उत्पन्न होती हैं, इस पुस्तक से हमें यह भी जानकारी प्राप्त होती है। कुछ साधु-सन्यासी समूहों में एकत्र होकर किस प्रकार सांकेतिक भाषाओं का उपयोग करते हुए अपना गुट बनाते हैं, लेखक ने इसकी भलीभांति व्याख्या की है। हरिदास स्वामी की जीवनी द्वारा लेखक हमें भिन्न भिन्न प्रकार के साधु तथा उनके कार्यप्रणालियों के विषय में बताते हैं। पर्याप्त समय कई साधुओं के सानिध्य में व्यतीत करते हुए स्वामी इन साधू-सन्यासियों के विषय में अतरंग जानकारी प्राप्त करता है।
इस पुस्तक को पढ़ते समय मुझे २१वी. सदी के उन भव्य आश्रमों का भी स्मरण हो आया जो कुछ समय पूर्व सर्वत्र चर्चा का विषय थे। प्राप्त जानकारी के अनुसार इन आश्रमों की विलासिता तुलना से परे है।
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साधू-सन्यासियों का विषय पुस्तक के पूर्वार्ध तक ही सीमित है। कथा के उत्तरार्ध में लेखक ने अधिकांशतः आयुर्वेद तथा औषधियों के विषय में चर्चा की है क्योंकि कथानक का नायक, स्वामी आयुर्वेद का एक व्यवसाय स्थापित कर रहा है। इस उपक्रम हेतु उसे निवेशकों को खोजने में अधिक असुविधा नहीं होती। इससे मुझे आयुर्वेद के क्षेत्र में आये कई आधुनिक उपक्रमों का स्मरण हो आया।
उपरोक्त सर्व आध्यात्मिक अनुभवों का आनंद उठाने के पश्चात स्वामी को एक साथी की चाह उत्पन्न होती है जो प्रत्येक सुख-दुःख में उनका साथ दे तथा जिसके संग वे अपना अनुभव साझा कर सकें। यह मुझे अत्यंत रोचक प्रतीत हुआ। आयु के उत्तरार्ध में स्वामी ने विवाह करने का निश्चय किया। राहुल सांकृत्यायन ने यह पुस्तक उस समय लिखी थी जब देश में राष्ट्रवादी आन्दोलन चल रहा था। अतः उन्होंने कथा में स्वामी का विवाह एक युवा विधवा से कराया जो स्वामी की आदर्श पत्नी बनकर उनका साथ देती है। अब इसे उल्टा जीवन जीना कहा जाय अथवा आध्यात्मिक खोज की निरर्थकता। इसका उत्तर खोजने का उत्तरदायित्व मैं आप पर ही छोड़ती हूँ।
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राहुल सांकृत्यायन ने जिस प्रकार प्रत्येक क्षेत्र की स्थानीय जानकारी को अपनी कथा में बुना है, यह मुझे अचंभित कर देता है। फिर वह प्रत्येक क्षेत्र के पेड़-पौधे तथा जीव-जंतु हों अथवा उस क्षेत्र में उगने वाली वनस्पतियाँ व वनौषधियाँ। प्रत्येक क्षेत्र का जनजीवन हो अथवा उनका व्यवसाय। यही अनेक तथ्य एकत्र होकर किसी भी स्थान को परिभाषित करते हैं। इस पुस्तक ने ना केवल प्रत्येक स्थान का भौगोलिक चित्रण किया है, अपितु वहां के जीवन को सूक्षमता से जिया है।
लेखक का मानना है कि प्रत्येक मनुष्य के भीतर एक पर्यटक होता है। उनकी यह पुस्तक हमारी इसी घुमक्कड़ी को बाहर लाती है। उन्होंने एक घुमक्कड़ के जीवन को सफलतापूर्वक सजीव किया है। ठीक मीराबाई के इस भजन की तरह, ‘करना फकीरी फिर क्या दिलगीरी’। किसी दिन आवश्यकता से अधिक भोजन प्राप्त हो जाता है, वहीं किसी दिन अल्पाहार पर ही संतोष करना पड़ता है। चूंकि मैं भी यात्रा संस्मरण लिखती हूँ, इस संस्मरण में वर्णित कई घटनाओं को मैंने स्वयं जिया है।
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‘घुमक्कड़ स्वामी’, हिंदी में लिखित,१०० पन्नों की यह एक छोटी सी पुस्तक है। लिखावट अपेक्षाकृत अत्यंत सूक्ष्म है तथा भाषा क्लिष्ट। वैसे भी राहुल सांकृत्यायन की भाषा सदैव उच्च स्तर की होती है। अतः इस पुस्तक को पढ़ना बाएं हाथ का खेल कदापि नहीं है। मैंने इस पुस्तक के अंग्रेजी संस्करण को खोजने का अनेक प्रयत्न किया किन्तु सफलता हाथ नहीं लगी। यदि आप इस पुस्तक के अंग्रेजी संस्करण के विषय में कोई भी जानकारी रखते हैं तो कृपया मुझे अवश्य बताएं।
शुद्ध हिंदी वाचन में रूचि रखने वाले पाठक यह पुस्तक अवश्य पढ़ें।
अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे
अनुराधा जी,
राहुल सांस्कृत्यायन द्वारा लिखित पुस्तक “घुमक्कड़ स्वामी” के बारे में सुंदर समीक्षात्मक आलेख ! आलेख से ज्ञात हुआ कि लेखक ने पुस्तक में अपने भ्रमणप्रिय पात्र के माध्यम से भारतवर्ष के उत्तरी भाग का सुंदर यात्रा वृत्तांत प्रस्तुत करते हुए विभिन्न धर्मों ,सन्यासियों के जनजीवन के साथ ही प्राचीन चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद का भी समावेश किया है । राहुल सांस्कृत्यायन की भाषा उच्च स्तर की होने से हमें हिन्दी भाषा की शुद्धता तथा सुंदरता का परिचय होता है ।
पुस्तक वास्तव में पठनीय होगी ।
धन्यवाद !
प्रदीप जी – अवश्य पढियेगा, एक सदी पुराने भारत के भ्रमण का आनंद अब ऐसे ही प्राप्त हो सकता है।
अनुराधाजी और मीताजी
आपने “घुमक्कड़ स्वामी” पुस्तक की बहुतही अच्छी समीक्षा की है. स्वामीने जीवन के पूर्वार्ध मे भ्रमण कर उत्तर भारतकी भौगोलिक तथा आध्यात्मिक यात्रा की ,और आर्युवैदिक औषधियोंकी जानकारी प्राप्त कर उनका व्यवसायीकरण किया जो एक समाज उपयोगी कार्य है.
मेरे हिसाब से साधु द्वारा उत्तरार्ध मे विवाह करना कोई गलत बात नही है.इसी समयतो सहीमे साथीकी जरुरत होती है .
आपके लेख से प्रतीत होता है की गृहस्थी जीवन संन्यासियों के जीवन से ज्यादा श्रेष्ठ है. जीवनकी सुंदर जानकारी हेतु धन्यवाद.
सबकी जीवन यात्रा का अपना एक पथ होता है, कोई पहले बंधनों में बंधता है तो कोई बाद में.
अनुराधा जी,
नमस्ते
राहुल सांस्कृत्यायन जी द्वारा लिखित पुस्तक घुमक्कड़ स्वामी के बारे में आपके समीक्षात्मक लेख पढकर पुस्तक पढने की जिज्ञासा बढ गई है। परतु पुस्तक उपलब्ध नही हो पायी अमेजन से।