बिहार की यात्रा करने के पीछे मेरा प्रमुख उद्देश था – बोध गया और नालंदा के दर्शन करना। नालंदा विश्व का सबसे प्राचीन और विख्यात शिक्षा का केंद्र रहा है। यहां पर खड़े होकर आप कुछ समय के लिए ही सही पर इस महान विरासत का भाग होने पर गर्व महसूस करने लगते हैं, जो इस धरोहर को और भी नजदीक से जानने की आपकी उत्सुकता को पंख देता है। ज्ञान का यह विश्व स्तरीय प्राचीनतम केंद्र, अपने अत्यंत सुनियोजित परिसर के साथ 10,000 से भी अधिक विद्यार्थियों को अपनी छत्रछाया प्रदान करता था। लेकिन 700 वर्षों से भी अधिक काल के लिए अपने विद्यार्थियों को ज्ञान से सींचने के पश्चात यह शत्रुत्व की अग्नि का शिकार हुआ। आज भी उसके कुछ भग्नावशेष अपने वैभव की महान गाथा को बयान करते हैं। इससे जुड़े इतिहास के महत्वपूर्ण अंश का परिचय तथा उसकी विस्तृत जानकारी हमे ह्वेनसांग और इत्सिंग जैसे यात्रियों के यात्रा विवरणों में मिलती है।
नालंदा – ज्ञान का दायक
नालंदा संस्कृत के दो शब्दों ‘नालम्’ और ‘दा’ को जोड़कर बनाया गया है। नालम् यानी ज्ञान और दा यानी देना यानी ज्ञान का दायक । लगता है इसके प्रवर्तकों ने बहुत ही सोच विचार के साथ इसका नामकरण किया था। जब आप इसके संरक्षित अवशेषों में प्रवेश करते हैं, तो आप इतिहास से एक अजीब सा जुड़ाव महसूस करते हैं। आज भी यहां पर 1600 साल पुराने लाल ईंट के पत्थरों की दीवारें खड़ी हैं जो काफी अच्छी परिस्थिति में हैं। इन अवशेषों के बीच खड़े होकर उन्हें प्रत्यक्ष रूप से देखते हुए आप प्रसन्नता की भावना में डूब जाते हैं। आप अचानक से अपने आप को उसी मार्ग पर चलते हुए पाते हैं, जहां से कभी महान विद्वान गुजरा करते थे।
हमें वहां के वर्ग देखने का मौका मिला जो आज की पाठशालाओं के वर्गों से काफी मिलते जुलते हैं। इसके अलावा हमने वहां के छात्रालय और उनके पास स्थित कुएं भी देखे। यहां के गुरु और शिष्य यहीं पर निवास करते थे और साथ साथ अपना अभ्यास करते थे। इस विशाल सी इमारत के दर्शन करते हुए आप यहां-वहां उसके सुधारणिकरण की निशानियों को स्पष्ट रूप से देख सकते हैं, जो आवश्यकतानुसार समय की विविध अवधियों के दौरान यहां के अधिकारियों और बाद में उनके उत्तराधिकारियों द्वारा किए गए थे।
यहां पर लंबे-लंबे चूल्हे हैं, जिन्हें देखकर आपके दिमाग में सबसे पहले यही विचार आता है, कि शायद ये चूल्हे खाना पकाने के लिए इस्तेमाल होते होंगे, लेकिन असल में ये चूल्हे विश्वविद्यालय के रासायनिक प्रयोगशाला का भाग थे। यहीं से आगे मंदिरों की एक पंक्ति है, जो अपने अवशेषों के माध्यम से अपने अस्तित्व की कहानी बतलाते हैं। लेकिन अवशेषों के रूप में भी उनकी आभा वैसी ही कायम है, जैसे किसी बुद्धिमान वृद्ध व्यक्ति के अलंकार के सारे उपकरणों को त्याग देने के बाद भी उसके ज्ञान का तेज उससे कोई नहीं छीन सकता।
नालंदा – ज्ञानार्जन का प्राचीन विश्व स्तरीय केंद्र
विश्वविद्यालय
नालंदा विश्वविद्यालय के परिसर में विद्यार्थी निवासों और यहां के विभिन्न विभागों की लंबी कतारें खड़ी हैं। ग्रन्थों के अनुसार विश्वविद्यालय का यह परिसर 108 इकाईयों में विभाजित था और प्रत्येक इकाई में एक सभागृह, लगभग 30 कक्ष, कुछ स्नानकक्ष और एक कुआं हुआ करता था। लेकिन आज इनमें से सिर्फ 11 इकाइयों की ही खोज हो पायी है। यहां के शयनकक्षों में एक चारपाई, पुस्तकों के लिए खास तख्ते और एक आला है जहां पर मूर्तियाँ या फिर कोई और वस्तु रखी जा सकती है। इसके अलावा यहां और भी छोटे बड़े कक्ष हैं। यहां पर एक लंबा सा गलियारा है जिसके उस पार मंदिरों की पंक्ति है। ऐसा माना जाता है कि इनमें से अधिकतर मंदिर बौद्धों के हैं, लेकिन देखा जाए तो वहां पर हिन्दू धर्म से संबंधित काफी सारी मूर्तियाँ हैं। यहां पर बहुत सारे खाली आले हैं, जिनमें बेशक कुछ सुंदर सी मूर्तियाँ रही होंगी जो उनकी शोभा को और भी बढ़ाती होंगी। यहां-वहां कोरी दीवारों से झाँकती हुई कुछ अलंकृत आकृतियाँ हैं, जो मुख्य रूप से चैत्य के आकार की हैं।
प्राचीन संरचनाएं
नालंदा के परिसर में कुछ आधार शिलाएँ हैं, जो शायद कभी बड़े-बड़े स्तंभों की नींवें हुआ करती थी। लेकिन अब ये शिलाएँ अवशेषों के रूप में अपने अतीत की कहानियाँ सुनाती हुई नज़र आती हैं। यहां के जलनिकास आज भी सही सलामत हैं, जो यहां पर एकत्रित होते बारिश के पानी को व्यवस्थित ढंग से नियंत्रित करते हैं। यहां पर कुछ चबूतरे हैं जो व्यायाम करने या ध्यान में बैठने के लिए बनवाए गए थे। यहां की प्रमुख प्रतिमाओं और मंदिरों के आस-पास मन्नत के स्तूप और अन्य छोटी-छोटी प्रतिमाएँ बिखरी पड़ी हैं। ये बिखरे हुए अवशेष अलग-अलग कालों में भक्तों द्वारा या फिर उत्खनन के पश्चात यहां पर स्थापित किए गए होंगे। यहां पर स्थित छोटे-छोटे स्तूपों की नींवों तथा गुबन्दों पर आज भी नज़र आता हुआ चुना उनके मूल अलंकृत स्वरूप के बारे में बताता है। इनमें से कुछ स्तूपों के ईंटों को विविध ज्यामितीय और शुभ-सूचक आकारों में ढाला गया है।
बिहार की ऐतिहासिक जगहें – नालंदा
नालंदा के सम्पूर्ण परिसर में मुझे सिर्फ दो ही पत्थर के स्तंभ दिखे। यहां पर स्थित इमारतें इतिहास के विविध कालावधियों के दौरान निर्मित की गयी थीं। इनमें से अधिकतर इमारतें एक-दूसरे के ऊपर बांधी गयी थी। इन इमारतों पर आप नवीकरण और सुधारणिकरण के निशान प्रमाणित रूप से देख सकते हैं। उत्खनन कर्ताओं को यहां पर पत्थर, प्लास्टर और पीतल की कुछ मूर्तियाँ मिली हैं। खुदाई द्वारा प्राप्त इन सारी मूर्तियों को आप भारत के पुरातात्विक सर्वेक्षण के संग्रहालय में देख सकते हैं। यह संग्रहालय इन खंडहरों से कुछ दूर सड़क के उस पार स्थित है। उत्खनन द्वारा प्राप्त इन सभी वस्तुओं में से सबसे रोचक वस्तु थी जले हुए चावल, जो कुछ 900 साल पुराने हैं, जो किसी धान्यागार में पाये गए थे।
नालंदा में पढ़ाये जाने वाले विषय
नालंदा में धर्मशास्त्र, तर्कशास्त्र, दर्शनशास्त्र, वैद्यकशास्त्र, खगोल विज्ञान, व्याकरण और अध्यात्मविज्ञान जैसे विषय पढ़ाये जाते थे। सिर्फ भारत के ही नहीं बल्कि विश्व के विविध कोनों के विद्यार्थी यहां पर सबसे अच्छी शिक्षा प्राप्त करने आते थे और अपने विषय में प्रवीणता हासिल कर वापस अपने देश लौटते थे। लेकिन इनमें से कुछ विद्यार्थी, जैसे ह्वेनसांग जो यहां के काफी बुद्धिमान विद्यार्थी रहे हैं, ने नालंदा में बिताए हुए अपने जीवनकाल का दस्तावेजीकरण किया था। उनके इन्हीं दस्तावेजों के कारण आज हम अपने इतिहास और विरासत से जुडी इतनी सुंदर बातें जान पाये हैं और शायद इन्हीं लेखों के मार्गदर्शन से हम इन अवशेषों से संबंधित इतनी सारी जानकारी प्राप्त कर पाये हैं, ठीक वैसे ही जैसे ऐसे ही दस्तावेजों की सहायता से आज सिंधु घाटी के अवशेषों की खोजबीन की जा रही है। ग्रन्थों के अनुसार यह विश्वविद्यालय लगभग 10 स्क्वेर कि.मी. से भी अधिक की जमीन पर फैला हुआ था। जिस में से अब तक लगभग 1 स्कवेर कि.मी. के क्षेत्र पर ही उत्खनन का कार्य पूरा हुआ है और यहां पर पाये गए अवशेषों को पुनः स्थापित करने की कोशिश की गयी है।
मैं सोच रही हूँ कि हमारी नज़रों के सामने इस पूरे विश्वविद्यालय का पुनर्निर्माण होते हुए देखने का अनुभव कैसा होगा। कहा जाता है कि जब विद्यार्थी यहां पर प्रवेश पाने के लिए आते थे तो यहां के द्वार-रक्षक जो काफी ज्ञानी व्यक्ति हुआ करते थे, विश्वविद्यालय के द्वार पर ही विद्यार्थियों की परीक्षा लेते थे। और जो भी आकांक्षी विद्यार्थी इस परीक्षा में सफल होते थे उन्हीं को विश्वविद्यालय में दाखिला दिया जाता था।
नालंदा विश्वविद्यालय के पुस्तकालय
कहा जाता है कि नालंदा में तीन बड़े-बड़े पुस्तकालय थे लेकिन उत्खनन के दौरान इन में से एक का भी पता नहीं चल पाया है। इन पुस्तकालयों के नाम इस प्रकार थे – रत्नसागर, रत्नरंजक और रत्ना उदय। इनमें से रत्नसागर 9 मंज़िला इमारत थी। खिलजी द्वारा किए गए आक्रमण के समय इस्लामी आक्रमणकारियों ने इन सभी पुस्तकालयों को जला दिया था। इन दीवारों पे यहां-वहां आज भी उस भयंकर आग के निशान नज़र आते हैं। लेकिन यहां की कुछ दीवारें बिलकुल साफ-सुथरी और नयी सी लगती हैं, जैसे कि वे हाल ही में बनवायी गयी हों। ये इमारतें भूकंप में भी उधवस्थ हुई थीं और काफी वर्षों तक उनके अवशेष मिट्टी और कीचड़ के नीचे ढके हुए थे। इन अवशेषों की खोज 20वी शताब्दी के दौरान हुए उत्खनन के समय की गयी थी। इन पुस्तकालयों की भांति इस विश्वविद्यालय के प्रमुख प्रवेश द्वारों का पता लगाना अभी बाकी है।
यहां पर एक ताड़ का वृक्ष है, जिसकी 8 शाखाएँ हैं, जो कि असामान्य सी बात है, क्योंकि, सामान्य तौर पर ताड़ के वृक्ष की सिर्फ एक ही शाखा होती है। बौद्ध धर्म के लोगों का मानना है कि यह वृक्ष बुद्ध का ही प्रतीक है।
सारिपुत्र का स्तूप
सारिपुत्र स्तूप नालंदा के परिसर का सबसे पुराना भाग है जो सम्राट अशोक के काल में बांधा गया था। सारिपुत्र का जन्म यहीं पर हुआ था और उनकी मृयु भी इसी स्थान पर हुई थी। वे बुद्ध के प्रमुख अनुयायियों में से एक थे। लेकिन दुर्भाग्य से अब आप इस स्तूप को समीप से नहीं देख सकते, हालांकि यह इन अवशेषों का सबसे प्रख्यात भाग है। लगता है यह मंदिर आज जितना जमीन के ऊपर है उससे कहीं ज्यादा वह जमीन के नीचे होगा क्योंकि, उसका निर्माण 7 चरणों में हुआ था। मेरे खयाल से नालंदा अपने उद्धवस्थ रूप में भी अपनी लावण्यता और महिमा को प्रदर्शित करता है।
नालंदा संग्रहालय थोड़ा छोटा है लेकिन बहुत ही सुंदर है। मुझे लगता है कि अन्य सभी संग्रहालयों की भांति इस संग्रहालय को भी दस्तावेजीकरण या फिर एक गाइड की आवश्यकता है, जो यहां पर प्रदर्शित वस्तुओं के विस्तृत विवरण प्रदान कर सके।
ह्वेनसांग स्मारक
ह्वेनसांग या क्षुआन जेंग स्मारक, नालंदा का नवीनतम भूमि-चिह्न है। यह विशाल और आकर्षक इमारत नालंदा के प्रख्यात विद्वान और शिक्षक ह्वेनसांग की स्मृति में बनवाई गयी थी। यह स्मारक अपने भित्ति चित्रों द्वारा आपको ह्वेनसांग के जीवन की सैर कराता है। वहां पर लगे सूचना फ़लक आपको उनके जीवन संबंधी थोड़ी और जानकारी देते हैं। यहां पर एक नक्शा भी है जो यहां की प्राचीन सभ्यताओं में उनकी यात्राओं को अनुरेखित करता है। यहां पर एक साधारण सा लेकिन सुंदर रूप से सजाया गया दवाज़ा है, जिसके भीतर प्रवेश करते ही आपको सामने ही इस यात्री की बड़ी सी मूर्ति अपने खास अंदाज़ में खड़ी नज़र आती है। इस संग्रहालय के सभागृह में भी उनकी एक और बड़ी सी मूर्ति है जो काले रंग की है। जब आप इस मूर्ति के सामने खड़े होकर उसकी सुंदरता की प्रशंसा करते हैं, तो आप इस यात्री के प्रति कृतज्ञता महसूस करने लगते हैं, कि उन्होंने आपके और आपसे जुड़े इतिहास के बीच एक लिखित कड़ी का निर्माण किया है। उनके दस्तावेजों के कुछ नमूने इस स्मारक के पृष्ट भाग में प्रदर्शन के लिए रखे गए हैं।
मुझे लगता है कि यहां पर ऐसी भी किताबें होनी चाहिए जिन्हें आप स्मृति चिह्नों के रूप में ले जा सके और जिसमें ह्वेनसांग के यहां पर बिताए हुए जीवन की तथा नालंदा शहर के प्रति उनके विचारों की जानकारी हो।
विश्व धरोहर का स्थल
नालंदा आज एक विश्व धरोहर के स्थलों की सूची में अपनी जगह पाता है। मेरे खयाल से आपको स्वयं नालंदा जाकर वहां के वैभव को देखना और महसूस करना चाहिए, क्योंकि नालंदा ऐसी जगह है जिसका चित्रण शब्दों और तस्वीरों में नहीं किया जा सकता। नालंदा शब्दों और चित्रों से परे अनुभव करने की जगह है। नालंदा की यात्रा के बाद अब तक्षिला देखने की मेरी इच्छा और भी बढ़ गयी है। अब मेरी यही तमन्ना है कि मैं कभी तक्षिला जाकर वहां के वैभव का अनुभव कर पाऊँ।
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