होयसलेश्वर मन्दिर – हैलेबिडु कर्नाटक स्थित अद्भुत होयसल धरोहर

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कर्नाटक के बंगलुरु से लगभग २०० किलोमीटर दूर स्थित एक महत्वपूर्ण मंदिर नगरी है, हैलेबिडु। कला एवं साहित्य के संरक्षक माने जाते होयसल राजवंश की यह राजधानी थी। ‘हैलेबिडु’ का कन्नड़ भाषा में शब्दशः अर्थ है, प्राचीन शिविर। समीप स्थित एक विशाल जल स्त्रोत के कारण इसे ‘द्वारसमुद्र’ भी कहते हैं। यह विध्वंसित नगरी होयसलेश्वर मन्दिर, जैन बसदी एवं अन्य कई ऐतिहासिक मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है जो इस नगरी के गौरवशाली अतीत के जीवंत उदाहरण हैं।

हलेबिडू स्थित होयसलेश्वर मंदिर
हलेबिडू स्थित होयसलेश्वर मन्दिर

होयसल वंश

होयसल वंश मूलतः पश्चिमी घाट में स्थित मालेनाडु नामक क्षेत्र से संबंधित थे। उन्हे युद्ध कौशल में विशेष रूप से निपुण माना जाता था। उन्होंने चालुक्य राजवंशियों एवं कलचुरि राजवंशियों के मध्य जारी आंतरिक युद्ध का लाभ उठाते हुए वर्तमान कर्नाटक के अंतर्गत आते क्षेत्रों को अधिगृहीत कर लिया था। १३वी. सदी तक उन्होंने कर्नाटक के अधिकतर क्षेत्रों, तमिल नाडु के कुछ क्षेत्रों तथा आंध्र प्रदेश व तेलंगाना के कई क्षेत्रों तक साम्राज्य स्थापित कर लिया था।

स्वर्णिम युग

होयसल काल को इस क्षेत्र का स्वर्णिम युग कहा जाता है। दक्षिण भारत में कला, वास्तुशिल्प, साहित्य, धर्म तथा विकास के क्षेत्र में होयसल राजवश का अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान रहा है। आरंभ में उन्होंने अपनी राजधानी बेलूर से शासन का कार्यभार संभाला था। कालांतर में वे हैलेबिडु स्थानांतरित हो गए। आज होयसल राजवंश को विशेष रूप से उत्कृष्ट होयसल वास्तुकला के लिए स्मरण किया जाता है।

वर्तमान में, इस क्षेत्र में होयसल वास्तुकला से सुशोभित लगभग ९२ मंदिर उपस्थित हैं जिनमें से लगभग ३५ मंदिर हासन जिले में हैं। उनमें से अधिक प्रसिद्ध मंदिर हैं, बेलूर में चेन्नाकेशव मंदिर, हैलेबिडु में होयसलेश्वर मन्दिर तथा सोमनाथपुरा का चेन्नाकेशव मंदिर। नग्गेहल्ली में लक्ष्मी नरसिंह मंदिर, बेलवाड़ी का वीर नारायण मंदिर, अरसिकेरे का ईश्वर मंदिर, कोरवंगला में बूचेश्वर मंदिर, जैन बसदियाँ, किक्केरी का ब्रहमेश्वर मंदिर इत्यादि भी होयसल वास्तुकला की अन्य विशिष्ट धरोहर हैं।

कन्नड़ लोक-साहित्य

कन्नड़ लोकसाहित्यों के अनुसार सल नामक एक नवयुवक था जिसने एक बाघ पर तलवार से वार कर अपने गुरु के प्राणों की रक्षा की थी। प्राचीन कन्नड़ भाषा में वार करने को होय कहा जाता था। यहीं से होयसल शब्द की व्युत्पत्ति हुई थी।

राजा वीर बल्लाल के शासनकाल में हैलेबिडु का गौरव अपनी चरमसीमा पर था। उसकी संपन्नता ने दिल्ली सल्तनत के राजाओं का ध्यान आकर्षित किया। सन् १३११ में मलिक काफुर ने दो बार हैलेबिडु पर आक्रमण किया। पुनः सन् १३२६ में मुहम्मद बिन तुगलक ने इस पर आक्रमण किया। आक्रान्ताओं के आक्रमणों से त्रस्त हैलेबिडु पर अंतिम प्रहार तब हुआ जब सन् १३४२ में मदुरै के सुल्तान से युद्ध के समय राजा बल्लाल तृतीय को वीरगति प्राप्त हुई। इसके पश्चात हैलेबिडु के गौरवशाली साम्राज्य का अंत हो गया। होयसल राजवंश को अपनी इस सुंदर राजधानी को त्यागने के लिए विवश किया गया। हैलेबिडु का गौरवशाली साम्राज्य अब इतिहास के पन्नों में एक स्मृति बन कर रह गया है।

हैलेबिडु का होयसलेश्वर मंदिर

हैलेबिडु नगर का सर्वाधिक महत्वपूर्ण मंदिर भगवान शिव को समर्पित होयसलेश्वर मंदिर है। इसका निर्माण राजा विष्णुवर्धन के एक अधिकारी केतुमल्ला सेट्टी ने किया था। केतुमल्ला सेट्टी ने यह मंदिर राजा विष्णुवर्धन एवं उनकी प्रिय रानी शांतला देवी के सम्मान में बनवाया था। यह मंदिर भगवान शिव के दो स्वरूपों को समर्पित है, होयसलेश्वर एवं शांतलेश्वर।

भव्य नंदी प्रतिमा - होयसलेश्वर मंदिर
भव्य नंदी प्रतिमा – होयसलेश्वर मंदिर

इस मंदिर का निर्माण सन् ११२१ में आरंभ हुआ था। ऐसा कहा जाता है कि इसका निर्माण कार्य एक सदी तक जारी था। कुछ इतिहासकारों का कथन है कि इस का निर्माण कार्य अब भी अपूर्ण है क्योंकि मदिर में शिखर नहीं है। मंदिर के कुछ भाग ऐसे हैं जो अब भी पूर्ण नहीं हैं। किन्तु कुछ लोगों की राय है कि शिखर को ध्वस्त किया गया है।

इस मंदिर की संरचना में स्थानीय शैलखटी का प्रयोग किया गया है जो क्लोराइट शिस्ट के नाम से जाना जाता है। यह तारे के आकार का मंदिर है जिसमें प्रवेश के लिए चार ड्योढ़ियाँ हैं। उत्तर एवं दक्षिण दिशा में एक एक तथा पूर्व दिशा में दो। वर्तमान में भक्तों के प्रवेश के लिए उत्तरी द्वार नियत किया गया है। अन्य किसी भी होयसल मंदिर के समान यह मंदिर भी एक ऊंचे मंच के ऊपर बनाया गया है जिसे जगती कहा जाता है। यह लगभग १५ फुट चौड़ा है तथा सम्पूर्ण मंदिर को उठाए हुए है। मंदिर की प्रदक्षिणा भी इस मंच के ऊपर ही की जाती है। जगती पर चढ़ने के लिए पत्थर की सीढ़ियाँ हैं। सम्पूर्ण जगती पर अनेक छोटे मंदिर हैं जो विभिन्न देवी-देवताओं को समर्पित हैं तथा मुख्यतः प्रत्येक प्रवेश द्वार पर स्थित पत्थर की सीढ़ियों के समीप स्थित हैं।

होयसलेश्वर मंदिर की उत्कीर्णित चित्र वल्लरी

मंदिर की सम्पूर्ण भित्ति भव्य उत्कीर्णित चित्र वल्लरी द्वारा अलंकृत है। मंदिर के निचले भाग से आरंभ होकर ऊपर तक, इस अनुक्रम में चित्र वल्लरी उत्कीर्णित हैं:

बाहरी भित्तियों पे शिल्प
बाहरी भित्तियों पे शिल्प
  • गज – गज अथवा हाथी शक्ति का प्रतीक है। इसी कारण उन्हे मंदिर के सर्वाधिक निचले भाग में उत्कीर्णित किया जाता है। मंदिर के चारों ओर सम्पूर्ण भित्तियों पर भिन्न भिन्न शैलियों में कुल १२४८ हाथी उत्कीर्णित हैं।
  • सिंह – सिंह साहस का प्रतीक है।
  • पुष्पों की बेल सौन्दर्य का प्रतिरूपण है।
  • घोड़े गति को दर्शाते हैं।
  • पुनः सुंदरता को दर्शाते पुष्प बेल हैं।
  • इस स्तर पर महाकाव्यों के दृश्य प्रदर्शित हैं।
  • पौराणिक काल्पनिक पशु मकर
  • हंस
  • संगीतज्ञ
  • पौराणिक पात्र
  • क्षेत्रपाल नामक पौराणिक पात्र
  • नैतिक कथाओं, सामाजिक जीवन एवं कामुक मुद्राओं से संबंधित दृश्य
  • देवी-देवताओं के विशाल शिल्प एवं महाकाव्यों से संबंधित कथाएं
होयसल शिल्प की प्रसिद्द छिद्र युक्त गवाक्ष
होयसल शिल्प की प्रसिद्द छिद्र युक्त गवाक्ष

भित्तियों के ऊपरी भागों पर अप्रतिम छिद्रित पटल हैं जो मंदिर के भीतरी भाग को प्रकाशमान करते हैं तथा वायु-संचार में भी सहायक होते हैं। मेरे गाइड के अनुसार, आरंभ में वहाँ छिद्रित पटल उपस्थित नहीं थे। मंदिर के भीतर खुला मंडप था। इन छिद्रित पटलों को कालांतर में राजा नरसिंह प्रथम के शासनकाल में जोड़ा गया था। हम जब मंदिर के चारों ओर अवलोकन करें तो हमें वास्तुशिल्प कला के कुछ भव्य एवं अद्भुत अचंभे दृष्टिगोचर होंगे।

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होयसलेश्वर मंदिर की ३५,००० मूर्तियाँ

ऐसा कहा जाता है कि यहाँ लगभग ३५००० उत्कृष्टता से उत्कीर्णित शिल्प हैं। बेलूर अथवा सोमनाथपुर के होयसल मंदिरों में स्थित शिल्पों की तुलना में, होयसलेश्वर मंदिर के शिल्प अपेक्षाकृत विशाल हैं तथा उनकी संख्या व गुणवत्ता भी अपेक्षाकृत श्रेष्ट है। इन शिल्पों में प्रमुख हैं:

गोवर्धनधारी श्री कृष्ण
गोवर्धनधारी श्री कृष्ण
  • गोवर्धन पर्वत उठाए कृष्ण
  • महाभारत में अर्जुन व कर्ण के मध्य युद्ध का दृश्य
  • गजेन्द्र मोक्ष
  • कैलाश पर्वत उठाता हुआ रावण
  • समुद्र मंथन
  • लंका युद्ध के समय सेतु निर्माण में सहायता करती वानर सेना
  • कृष्ण जन्म, पूतना वध जैसी घटनाओं से संबंधित भागवत की कथाएं
  • महिषासुरमर्दिनी
कैलाश पर्वत उठाये रावण
कैलाश पर्वत उठाये रावण

इस मंदिर में दो गर्भगृह हैं। उत्तर दिशा में शांतलेश्वर तथा दक्षिण दिशा में होयसलेश्वर, जिनके भीतर दो पूर्वमुखी शिवलिंग हैं। दोनों ही मंदिर उत्तर-दक्षिण रेखा पर निर्मित हैं जिनके लिए प्रवेश द्वार पूर्व दिशा में है। दोनों मंदिरों के सभा मंडप एक गलियारे द्वारा जुड़े हुए हैं। पूर्व दिशा में स्थित दो नंदी मंडपों के भीतर दो विशालकाय नंदी स्थापित हैं जो भगवान शिव के वाहन हैं। दोनों नंदी भव्य रूप से अलंकृत हैं। होयसलेश्वर मंदिर की ओर स्थित नंदी मंडप के पृष्ठभाग में सात घोड़ों एवं सारथी अरुणदेव समेत सूर्यदेव की विशाल प्रतिमा है।

लक्ष्मी नारायण को लिए गरुड़
लक्ष्मी नारायण को लिए गरुड़

मंदिर का प्रवेश द्वार

मंदिर के पूर्वी भाग में दो प्रवेश द्वार हैं। एक होयसलेश्वर के लिए तथा दूसरा शांतलेश्वर के लिए। दोनों प्रवेशद्वारों का रक्षण करते द्वारपालों की प्रतिमाएं हैं। द्वारों के ऊपर उत्कृष्ट तोरण हैं। मंदिर का भीतरी भाग चौड़ा एवं प्रशस्त है। मंदिर की भीतरी भित्तियाँ बाहरी भित्तियों की तुलना में अपेक्षाकृत सादी हैं। मंदिर के भीतर विभिन्न देवी-देवताओं को समर्पित अनेक लघु मंदिर हैं किन्तु उनमें से अधिकांश मंदिर भंगित हैं। अनेक समृद्ध भव्य नक्काशी युक्त गोलाकार लेथ स्तंभ मंदिर की भीतरी सुंदरता को चार चाँद लगाते हैं। ये स्तम्भ होयसल वास्तुकला की अद्वितीय शैली के प्रतीक हैं।

मंदिर का भीतरी भाग

होयसलेश्वर मंदिर का दक्षिण द्वार
होयसलेश्वर मंदिर का दक्षिण द्वार

मंदिर का भीतरी भाग मूलतः द्विकुटा विमान परिकल्पना के आधार पर निर्मित है जिसमें दो समरूप मंदिर हैं। प्रत्येक मंदिर में एक गर्भगृह, एक सुकनासी एवं एक दर्शन मंडप अर्थात् नवरंग मंडप हैं। गर्भगृह सुंदर मकर तोरण द्वारा अलंकृत है। तोरण के ऊपर विष्णु के विभिन्न अवतार उत्कीर्णित हैं। मंदिर के समक्ष दो छोटे नंदी विराजमान हैं जो शिवलिंग की ओर मुख किए हुए हैं। मध्यवर्ती गलियारा दोनों मंदिरों के मंडपों को जोड़ता है। इस गलियारे में अनेक स्तंभों की पंक्ति है जो उत्तर-दक्षिण रेखा की सीध पर स्थित हैं। प्रत्येक नवरंग मंडप के भीतर उत्कृष्ट रूप से उत्कीर्णित चार स्तम्भ तथा एक ऊंची छत है।

मंदिर के भीतर सुशोभित गोल स्तम्भ
मंदिर के भीतर सुशोभित गोल स्तम्भ

इन स्तंभों के ऊपरी भागों पर उत्कृष्ट रूप से उत्कीर्णित आकर्षक स्त्रियों के शिल्प हैं जिन्हे मदानिकाएं कहा जाता है। मंदिर की छत भी सूक्ष्मता से उत्कीर्णित है जिस पर विभिन्न देवी-देवता देखे जा सकते हैं। अधिकतर स्तंभों पर उत्कीर्णित मदानिकाओं में से अनेक पूर्णतः अथवा आंशिक रूप से भंगित हैं।

फिलग्री कलाशैली

दक्षिणी द्वार पर फिलग्री कलाशैली में महीनता से उत्कृष्ट उत्कीर्णन किया गया है जो बेजोड़ है। इसे एक अति उत्कृष्ट कलाकृति माना जाता है। इसके मध्य में नटराज मुद्रा में भगवान शिव हैं जो नंदी एवं एक संगीतज्ञ के साथ हैं। द्वार के दोनों ओर छः फुट के विशालकाय द्वारपाल हैं जिन पर उत्तम आभूषण गढ़े गए हैं। दोनों प्रतिमाएं भंगित होने के बाद भी अत्यंत मनमोहक हैं।

भगवान् शिव की प्रतिमा पर फिलग्री का सा काम - होयसलेश्वर मन्दिर
भगवान् शिव की प्रतिमा पर फिलग्री का सा काम – होयसलेश्वर मन्दिर

दक्षिण की ओर एक गरुड़ स्तम्भ है जिसे राजपरिवार के रक्षक ‘गरुड़’ की स्मृति में बनाया गया था। दक्षिणी प्रवेश द्वार पर आठ फुट ऊंची गणेश की एक प्रतिमा भी है।

नंदी पर सवार शिव और पार्वती
नंदी पर सवार शिव और पार्वती

मंदिर संकुल में उत्तम बगीचे हैं जिनमें अनेक प्रकार के पुष्पों के पौधे हैं। यहाँ बैठने की भी सुविधाएं हैं। संकुल के भीतर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग का संग्रहालय है। यहां अनेक ऐसे होयसल शिल्प संग्रहीत कर रखे गए हैं जिन्हे राज्य भर में स्थित विभिन्न होयसल मंदिरों के खंडहरों से प्राप्त किया गया है।

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हैलेबिडु के अन्य महत्वपूर्ण पुण्यस्थल

केदारेश्वर मंदिर

केदारेश्वर मंदिर - हलेबिडू
केदारेश्वर मंदिर – हलेबिडू

होयसलेश्वर मंदिर से दक्षिण-पश्चिम दिशा में एक अन्य उत्कृष्ट होयसल रचना है, केदारेश्वर मंदिर। तारे के आकार के इस त्रिकुटा मंदिर संकुल में तीन मंदिर हैं जो भगवान शिव को समर्पित हैं। अन्य होयसल मंदिरों के समान इस मंदिर संकुल के तीनों मंदिर भी एक ऊंचे मंच पर स्थापित हैं जिसे जगती कहा जाता है। इसका निर्माण राजा वीर बल्लाल द्वितीय एवं उनकी रानी अभिनवी केतला देवी ने करवाया था।

एक मनमोहक बाग के भीतर स्थित इस मंदिर संकुल में दर्शनार्थियों की संख्या अत्यंत कम रहती है। यह स्थान सदा शांत रहता है तथा दैवी उपस्थिति का आभास प्रदान करता है। मैं जब यहाँ पहुंची, तब यह मंदिर संकुल बंद हो चुका था। एक स्थानीय गाइड ने मुझे बताया कि संकुल के भीतर एक मुख्य मंदिर तथा उसके दोनों ओर दो अन्य मंदिर हैं। तीनों मंदिर एक केन्द्रीय महा मंडप द्वारा जुड़े हुए हैं। प्रत्येक मंदिर में उसका एक गर्भगृह है एवं एक सुकनासी है जो महा मंडप से जुड़ा हुआ है। मंदिर की भित्तियों के निचले भागों पर विस्तृत रूप से उत्कीर्णित चित्र वल्लरी हैं जिसमें, होयसलेश्वर मंदिर के ही समान, गज, सिंह, मकर, हंस इत्यादि की अनेक आकृतियाँ हैं। भित्तियों के ऊपरी भागों पर अन्य देवी-देवताओं एवं पुराणों, रामायण व महाभारत इत्यादि की कथाओं के विभिन्न पात्रों के लगभग १८० उत्कृष्ट शिल्प हैं।

हैलेबिडु की जैन बसदियाँ

यद्यपि होयसल वंश के शासन-काल में जैन धर्म का भी विकास हुआ था, तथापि १२ वी. सदी के पश्चात जैनियों को दिए गए संरक्षण में भारी मात्रा में कटौती हो गई थी। हैलेबिडु में तीन जैन बसदियाँ हैं जो जैन धर्म के तीन प्रमुख तीर्थंकरों को समर्पित हैं। तीनों बसदियाँ होयसलेश्वर मंदिर के समीप ही स्थित हैं।

पार्श्वनाथ बसदी

जैन धर्म के २३ वें. तीर्थंकर को समर्पित यह बसदी तीनों जैन बसदियों में से सर्वाधिक महत्वपूर्ण बसदी है। ऐसा माना जाता है कि इसका निर्माण सन् ११३३ में राजा विष्णुवर्धन के एक मंत्री के पुत्र, बोपन्ना ने करवाया था। यह बसदी भव्य प्रतिमाओं एवं विस्तृत नक्काशी से अलंकृत है। केन्द्रीय कक्ष के भीतर आईने के समान चमकदार १२ स्तम्भ हैं। छत पर भी अति उत्कृष्ट उत्कीर्णन हैं। गर्भगृह के भीतर श्री पार्श्वनाथ स्वामी की काले ग्रेनाइट पत्थर में बनी १८ फुट ऊंची प्रतिमा है।

शांतिनाथ बसदी

पार्श्वनाथ बसदी से किंचित छोटी, यह बसदी जैन धर्म के १६ वें. तीर्थंकर श्री शांतिनाथ स्वामी को समर्पित है। इसका निर्माण सन् ११९२ में राजा वीर बल्लाल द्वितीय के शासनकाल में हुआ था। यह तीर्थस्थल भी अप्रतिम प्रतिमाओं एवं आईने के समान चमकदार स्तंभों से अलंकृत है। गर्भगृह के भीतर श्री शांतिनाथ स्वामी की काले ग्रेनाइट पत्थर में बनी १८ फुट ऊंची प्रतिमा है।

आदिनाथ बसदी

आदिनाथ जैन बसदी
आदिनाथ जैन बसदी

श्री आदिनाथ स्वामी को समर्पित यह एक छोटी बसदी है। श्री आदिनाथ स्वामी जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर थे। इस बसदी का निर्माण १२ वीं. सदी में हुआ था। इस के भीतर श्री आदिनाथ की प्रतिमा के साथ देवी सरस्वती की भी छवि है जिन्हे हिन्दू धर्म में ज्ञान व विद्वता की देवी माना जाता है।

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जैन बसदी की छत
जैन बसदी की छत

रूद्रेश्वर  मंदिर

कर्नाटक राज्य परिवहन विकास निगम के अतिथिगृह के समीप स्थित यह रूद्रेश्वर मंदिर भी होयसल काल से संबंध रखता है किन्तु इस पर उत्कीर्णन नाममात्र की है। यह भी एक त्रिकुटा मंदिर है जो तीन मंदिरों से बना हुआ है। उनमें से दो मंदिरों के भीतर शिवलिंग हैं तथा तीसरे में वीरभद्र की प्रतिमा है। मंदिर परिसर के भीतर एक महाद्वार से प्रवेश किया जाता है।

नागेश्वर मंदिर

रूद्रेश्वर मंदिर संकुल के समीप स्थित नागेश्वर मंदिर अब खंडहर रूप में है। इस स्थान के प्राप्त अनेक प्रकार के शिल्प अब संग्रहालय की शोभा बढ़ा रहे हैं।

रंगनाथ मंदिर

होयसलेश्वर मंदिर से उत्तर दिशा की ओर स्थित यह रंगनाथ मंदिर सिंडीकेट बैंक के समीप स्थित है। मूलतः होयसल काल में निर्मित यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित था। कालांतर में इसका विस्तारीकरण किया गया तथा श्री रंगनाथ के रूप में भगवान विष्णु को समर्पित किया गया।

रंगनाथ मंदिर के समीप अन्य अनेक तीर्थस्थल हैं जो होयसल काल से ही संबंध रखते हैं। जैसे, कुंबलेश्वर, गुंडलेश्वर तथा वीरभद्र इत्यादि।

उत्सव

इन मंदिरों में देवताओं का पूजन नहीं होता है। इसी कारण इन मंदिरों में कोई उत्सव भी नहीं मनाया जाता है। ना ही कोई अनुष्ठान किया जाता है। ये मंदिर अपनी उत्कृष्ट वास्तुकला के लिए अत्यंत प्रसिद्ध हैं।

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यात्रा सुझाव

होयसलेश्वर मंदिर की बाहरी दीवार
होयसलेश्वर मंदिर की बाहरी दीवार
  • हैलेबिडु बंगलुरु से २०० किमी की दूरी पर है। बंगलुरु से इसकी एक दिवसीय यात्रा की जा सकती है। सर्वाधिक समीप स्थित नगर हासन है जहां से बेलूर एक घंटे में गाड़ी से चलकर पहुंचा जा सकता है।
  • मेरा सुझाव है कि आप हासन में अपना पड़ाव डालें ताकि बेलूर के साथ साथ आप हैलेबिडु भी उसी दिन देख सकते हैं। हैलेबिडु भी बेलूर के समान होयसल शिल्पकला का उत्कृष्ट नमूना है।
  • हासन कर्नाटक के अन्य महत्वपूर्ण नगरों एवं शहरों से सड़क एवं रेल मार्ग द्वारा सुगमता से जुड़ा हुआ है। कर्नाटक राज्य परिवहन की बसें नियमित रूप से बेलूर एवं अन्य महत्वपूर्ण नगरों के मध्य दौड़ती हैं।
  • हासन में अच्छे अतिथिगृह उपलब्ध हैं। अतः यहाँ ठहरना उत्तम होगा।
  • यद्यपि आप इस मंदिर के दर्शन वर्ष भर में कभी भी कर सकते हैं, तथापि इसके दर्शन की सर्वोत्तम समयावधि अक्टूबर से मार्च के मध्य की है जब यहाँ का वातावरण शीतल रहता है।
  • मंदिरों के दर्शन का सर्वोत्तम समय प्रातःकाल शीघ्र तथा दोपहर के अंतिम प्रहर का है।
  • भोजन तथा जलपान के लिए मंदिर के समीप अनेक अच्छे जलपानगृह तथा भोजनालय उपलब्ध हैं।
  • मेरा सुझाव है कि आप गाइड की सुविधाएं अवश्य लें। गाइड संघों ने उनके शुल्क निर्देशित कर दिए हैं जो ३०० रुपये हैं।
  • मंदिर में प्रवेश के लिए शुल्क नहीं है।
  • मंदिर में दर्शन का समय प्रातः ६:३० बजे से रात्रि ९ बजे तक है।
  • संग्रहालय दर्शन का समय – सोमवार से शुक्रवार – प्रातः ९ बजे से संध्या ५ बजे तक।

यह संस्करण अतिथि संस्करण है जिसे श्रुति मिश्रा ने इंडिटेल इंटर्नशिप आयोजन के अंतर्गत प्रेषित किया है।

श्रुति मिश्रा व्यावसायिक रूप से बैंक में कार्यरत हैं। उन्हे यात्राएं करना, विभिन्न स्थानों के सम्पन्न विरासतों के विषय में जानकारी एकत्र करना तथा विभिन्न स्थलों के विशेष व्यंजन चखना अत्यंत प्रिय हैं। उन्हे पुस्तकों से भी अत्यंत लगाव है। उन्हे पाककला में भी विशेष रुचि है। वर्तमान में वे बंगलुरु में निवास करती हैं। उनकी तीव्र इच्छा है कि वे विरासत के धनी भारत की विस्तृत यात्रा करें तथा अपने अनुभवों पर आधारित एक पुस्तक भी प्रकाशित करें।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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