Inditales https://www.inditales.com/hindi/ श्रेष्ठ यात्रा ब्लॉग Wed, 25 Dec 2024 05:57:28 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.6.2 122217354 नेपाल के चितवन राष्ट्रीय उद्यान में पदभ्रमण https://www.inditales.com/hindi/chitwan-rashtriya-udyan-nepal-pad-bhraman/ https://www.inditales.com/hindi/chitwan-rashtriya-udyan-nepal-pad-bhraman/#respond Wed, 08 Jan 2025 02:30:21 +0000 https://www.inditales.com/hindi/?p=3745

हम प्रातः मुँहअँधेरे ही उठ गए थे। अथवा यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि चितवन राष्ट्रीय उद्यान में गूँजते कोलाहल ने हमें प्रातः शीघ्र जागने के लिए बाध्य कर दिया था। हमें चितवन राष्ट्रीय उद्यान में पदभ्रमण या पैदल सफारी करने के लिए जाना था। हम जिस ‘बरही वन अतिथिगृह’ (जंगल लॉज) में ठहरे थे, […]

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हम प्रातः मुँहअँधेरे ही उठ गए थे। अथवा यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि चितवन राष्ट्रीय उद्यान में गूँजते कोलाहल ने हमें प्रातः शीघ्र जागने के लिए बाध्य कर दिया था। हमें चितवन राष्ट्रीय उद्यान में पदभ्रमण या पैदल सफारी करने के लिए जाना था। हम जिस ‘बरही वन अतिथिगृह’ (जंगल लॉज) में ठहरे थे, उसके एक ओर से राप्ती नदी बहती है। उस राप्ती नदी के दूसरी ओर चितवन राष्ट्रीय उद्यान स्थित है। राप्ती नदी पार करने के लिए हम एक नौका में बैठ गए। नदी पर कोहरे की एक मोटी चादर बिछी थी जो शनैः शनैः ऊपर उठ रही थी। इस कोहरे से भरे वातावरण में चारों ओर का परिदृश्य ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो अपनी परतों में अनेक रहस्य छुपाये हुए है। हमारी नौका धीरे धीरे दूसरे तट की ओर बढ़ रही थी। कुछ अन्य पर्यटक नौकाएं भी हमारे साथ हो लिये। अकस्मात सभी नौकाओं के नाविकों ने सावधान होकर नौकाओं की गति धीमी कर दी। हमने देखा कि वे एक गेंडे को नदी पार करने में प्राथमिकता दे रहे थे। नदी पार कर वह गेंडा वन में प्रवेश कर गया।

चितवन राष्ट्रीय उद्यान नेपाल
चितवन राष्ट्रीय उद्यान नेपाल

जिस स्थान से गेंडे ने वन में प्रवेश किया था, हमारे नाविक ने नौका को उस बिन्दु के समीप ही अँकोड़े से बांध दी। गेंडे का स्मरण कर हम नौका से उतरने के लिए भय से हिचकिचाने लगे। किन्तु हमारे सफारी परिदर्शक ने हमें धीर बंधाया, तब जाकर हमने नौका से उतरकर वन में प्रवेश किया।

चितवन राष्ट्रीय उद्यान में पदभ्रमण

हम जंगल सफारी कर रहे थे किन्तु पदभ्रमण करते हुए। इससे पूर्व हमने जीप तथा नौका में बैठकर वन का सुरक्षित अवलोकन किया था। अब हम वन के भीतर पैदल भ्रमण करने जा रहे थे।

चितवन राष्ट्रीय उद्यान की भोर
चितवन राष्ट्रीय उद्यान की भोर

हमें अब भी स्मरण था कि वह गेंडा यहीं से वन के भीतर गया था। यह तथ्य हमें उत्सुकता के साथ भयभीत भी कर रहा था। हमारा परिदर्शक हमें अनवरत स्मरण कर रहा था कि चितवन राष्ट्रीय उद्यान में एक नहीं, अपितु ६०० से अधिक गेंडे हैं। वे हमारे चारों ओर उपस्थित हैं, चाहे हम उन्हे देख पायें अथवा नहीं। उन्होंने हमें आश्वस्त कराया कि गेंडों को मानवों में रुचि नहीं होती। वे तब तक आक्रमण नहीं करते जब तक कि उन्हे हमारी ओर से संकट का आभास ना हो। मैं विचार करने लगी कि गेंडों को यह कैसे ज्ञात होगा कि यहाँ हमें उनसे भय प्रतीत हो रहा है तथा उन्हे हमसे भयभीत होने की कोई आवश्यकता नहीं है, जबकि उन्हे यह स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा है कि मैं उसी प्रजाति का भाग हूँ जो उनका अप्राकृतिक व उनकी प्रजाति के उन्मूलन की सीमा तक वध करने के लिए जाना जाता है।

चितवन का प्राकृतिक सौन्दर्य

जैसे ही हमने पदभ्रमण आरंभ किया। हमारा भय शनैः शनैः लुप्त होने लगा। प्रकृति की सुंदरता नयनों में बसने लगी थी। प्राकृतिक सौन्दर्य का आनंद हृदय में भय का स्थान ग्रहण करने लगा था। वन में छाया कोहरा अब विरल होने लगा था। वन में अनेक छोटे-बड़े सरोवर दृष्टिगोचर होने लगे थे जिनके जल पर ऊँचे ऊँचे वृक्षों का प्रतिबिंब पड़ रहा था। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो कोहरे की परत हटाकर सरोवर शनैः शनैः स्वयं को प्रकट करने का प्रयास कर रहा है।

भूमि पर बिखरे सूखे पत्तों पर चलने के कारण सरसराहट हो रही थी। हमारे मस्तिष्क में शंका उठ रही थी, यदि आसपास स्थित गेंडों अथवा उनके अन्य वन्य प्राणी मित्रों ने यह ध्वनि सुनकर कोई अवांछित प्रतिक्रिया व्यक्त कर दी तो क्या होगा!

चारों ओर अनुपम परिदृश्य था। ऊँचे ऊँचे वृक्ष थे जिनके नीचे सूखी पत्तियों की भूरी चादर बिछी हुई थी। अनेक स्थानों पर ऊँचे वृक्षों की शाखाएं आपस में मिलकर मंडप बना रही थीं, मानो हमारा स्वागत कर रही हों।

वन भ्रमण में हमारा नेतृत्व करने वाला साथी, साकेत लघु वन प्राणियों की ओर हमारा लक्ष्य केंद्रित कर रहा था। मुझे किंचित क्षोभ हुआ कि ये लघु प्राणी बिना किसी संकेत के उसे इतनी सुगमता से कैसे दृष्टिगोचर हो रहे थे! मुझे तो उसके द्वारा संकेतिक दिशा में गहनता से देखने के पश्चात भी प्राणियों को ढूँढने में समय लग रहा था। किन्तु जब हमने वृक्षों की शाखाओं पर बैठे हमारे पंख वाले मित्रों को देखना आरंभ किया तब मैं भी साकेत को चुनौती देने में सक्षम हो गयी थी। हमने अनेक प्रकार के रंगबिरंगे वन्य पक्षियों को देखा।

चितवन राष्ट्रीय उद्यान में हमारे द्वारा देखे वन्य पक्षियों पर मैंने एक विस्तृत संस्करण प्रकाशित किया है। आप इसे अवश्य पढ़ें: चितवन राष्ट्रीय उद्यान के वन्य पक्षी

वृक्षों की शाखाओं पर विराजमान पक्षी पत्तियों के पीछे छुप कर बैठे थे। हम उन्हे ढूंढ तो पा रहे थे किन्तु उनका स्पष्ट छायाचित्र ले पाना असंभव हो रहा था। मैंने छायाचित्र लेने का प्रयत्न करना ही छोड़ दिया। उसके स्थान पर मैंने पक्षियों के विविध रंगों एवं उनके हाव-भाव का आनंद उठाना आरंभ किया। पक्षियों को चहचहाते तथा एक शाखा से दूसरी शाखा पर उड़ते देखने में मैं रम गयी थी। एक क्षण ऐसा आया जब मुझे चटक लाल रंग का एक पक्षी दृष्टिगोचर हुआ। उसे देख मेरे हाथों ने सहज ही कैमरा उठा लिया। हमने कुछ क्षण लुका-छिपी का खेल खेला। अंततः मैं उसका चित्र लेने में सफल हो पायी तथा अपने दल में पुनः सम्मिलित हो गयी।

चितवन राष्ट्रीय उद्यान में वन्यजीवन के विविध चिन्ह

साकेत ने हमें भूमि पर चींटियों के घर, सांप की बाँबी आदि दिखाई। उन्होंने हमें अनेक वन्य प्राणियों के पदचिन्ह दिखाए। वे ना केवल यह जानते थे कि वो किस प्राणी के पदचिन्ह हैं, अपितु वे यह भी जानते थे कि वो प्राणी किस आयुवर्ग का हो सकता है। अद्भुत!

हमने अनेक प्रकार व आकार की मकड़ियाँ अपने जालों में लटकती देखीं। उनके जाले ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानो वे शाखाओं को जोड़ने की चेष्टा कर रही हों। कई कई स्थानों पर वे वृक्षों को जोड़ने का प्रयास करती प्रतीत हुईं।

प्रातः लगभग ८ बजे हम जलपान के लिए रुके। हमारा वन मार्गदर्शक हमें एक खुले स्थान पर ले गया जहाँ एक वृक्ष आड़ा पड़ा हुआ था। उस पर बैठकर हमने साथ लिया हुआ जलपान किया। सम्पूर्ण परिस्थिति हमें गदगद कर रही थी। ऊँचे ऊँचे वृक्षों से परिपूर्ण सघन वन के मध्य एक मुक्ताकाश स्थल, बैठक के रूप में गिरा हुआ विशाल वृक्ष, वन का प्राकृतिक वातावरण तथा प्रातःकालीन शीतल वातावरण में बैठकर जलपान करना, सब कुछ अत्यंत अद्भुत था।

जलपान कर हम जैसे ही उठे, एक मादा गेंडा अपने शावक के साथ हमारे समक्ष उपस्थित हो गयी, केवल  लगभग १०० मीटर दूर!

हम सब एक वृक्ष के पीछे छुप गए तथा मन ही मन प्रार्थना करने लगे कि हम उसकी दृष्टि में ना आयें, ना ही उसके मार्ग में। एक ही धरातल पर, इतने समीप से इस विशाल प्राणी को देखना अत्यंत रोमांचकारी था, भले ही हम छुपकर देख रहे थे। इससे पूर्व मैंने जीप अथवा हाथी की पीठ पर बैठ कर ही गेंडों के दर्शन किये थे।

और पढ़ें – कपिलवस्तु – नेपाल में बुद्ध के शाक्य वंश की राजधानी

कांचीरूवा के दर्शन

चितवन के वन में पदभ्रमण का सर्वाधिक रोमांचकारी वह क्षण था जब हमने अकस्मात ही कांचीरूवा नामक एक गेंडे का कंकाल देखा। एक कान कटा होने के कारण उसे इस नाम से बुलाया जाता था।

कंकाल के विभिन्न भाग यहाँ-वहाँ बिखरे हुए थे। जब हम उसके शीष के निकट गए तब हमें आभास हुआ कि गेंडा वास्तव में कितना विशालकाय प्राणी है। उसकी लंबी लंबी पसलियाँ शाखाओं सी प्रतीत हो रही थीं। उसके दाँत का आकार मानवी चरण का लगभग चौथाई भाग जितना था।

यदि यहाँ जन्तु विज्ञान का कोई विद्यार्थी आ जाता तो इस कंकाल का अध्ययन करते घंटों व्यतीत कर सकता था। चमड़ी व माँसपेशियाँ विहीन होने के पश्चात भी उस कंकाल का विशालकाय आकार मुझे स्तंभित कर रहा था।

वापिस आकार जब मैं उस कंकाल के छायाचित्र देख रही थी तब मुझे वन के अनकहित नियम का साक्षात्कार हुआ। जब तक वह गेंडा जीवित था, उसने कदाचित इस वन में राज किया होगा। मृत्यु के पश्चात वही गेंडा अपने साथी पशुओं का भोजन बना होगा तथा हम जैसे पर्यटकों के लिए प्रदर्शनीय वस्तु। हमें बताया गया कि वन में प्राणियों की मृत्यु होती रहती है किन्तु हमें अन्य कोई कंकाल नहीं दिखा।

ध्यान से देखें

पदभ्रमण करते हुए हम आगे बढ़े। हमने अनेक बहुरंगी तितलियाँ एवं कीट देखे। किन्तु उन्हे देखने के लिए सम्पूर्ण ध्यान की आवश्यकता होती है। गहरे हरे रंग के पत्ते पर बैठे हरे रंग के टिड्डे को देखना, सूखी पत्तियों के बीच छोटे छोटे सुंदर कीटों को देखना, पत्तों के झुरमुट में बैठी तितली को ढूँढना, सब अत्यंत मनोरंजक था। मार्ग में एक सरोवर के पास भ्रमण करते हुए हमने जल के ऊपर लटकती शाखा पर बैठे एक नीलकंठ को देखा।

हमने मोटी बेलें देखी जिन पर बड़े बड़े त्रिकोणाकार कांटे थे। उनका आकार लगभग हमारे हाथों जितना था। कदाचित प्रकृति ने ही उन्हे इन काँटों के द्वारा सक्षम बनाया है कि वे स्वयं का संरक्षण कर सकें।

और पढ़ें – लुम्बिनी का माता मायादेवी मंदिर – नेपाल में बुद्ध की जन्मस्थली

यहाँ-वहाँ पड़े मृत वृक्ष के तनों पर भिन्न भिन्न प्रकार के कुकुरमुत्ते उगे हुए थे। क्या वे सभी प्रजातियाँ मानवी उपभोग के लिए सुरक्षित हैं? क्या गेंडे जैसे वन के शाकाहारी प्राणी भी उन्हे खाते होंगे? ऐसे अनेक विचार मस्तिष्क में उभरने लगे। अपने चारों ओर के वनीय प्रदेश के जटिल पारिस्थितिकी तंत्र को जानने व समझने के प्रयास में मस्तिष्क में उभरते प्रश्न श्रंखला में से ये भी कुछ प्रश्न थे।

सेमल के लाल पुष्प

भूमि पर गिरे सेमल के लाल पुष्प बेरंग बालुई भूमि पर रंग भर रहे थे। किन्तु आज का सर्वोत्तम शोध था, छोटे छोटे नारंगी रंग के गोले। उन्हे स्पर्श करते ही हमारे हाथ नारंगी हो रहे थे। गोले हाथों में नारंगी रंग का चूर्ण छोड़ रहे थे। हमें यह स्पष्ट आभास हो रहा था कि ये साधारण गोले नहीं हैं। इसका कुछ ना कुछ महत्वपूर्ण उपयोग अवश्य ही होगा। किन्तु क्या? तभी हमारे वन परिदर्शक ने हमें जानकारी दी कि स्थानीय भाषा में इसे सिंधुरे कहा जाता है। हमारे मस्तिष्क में बिजली कौंधी। इसे नेपाली, हिन्दी एवं संस्कृत भाषा में भी तो यही कहा जाता है!

वन में पर्याप्त पदभ्रमण करने के पश्चात हम अपने बरही जंगल लॉज में पहुँचे। हमने उनके पुस्तकालय में इस नारंगी रंग के फल के विषय में जानकारी ढूँढी। हमें एक रोचक जानकारी प्राप्त हुई कि प्राचीन काल में इस फल से प्राप्त प्राकृतिक रंग से रेशम को रंगा जाता था।

चितवन वन में लगभग ४-५ घंटे पदभ्रमण कर तथा वन के विविध रंगों व गंधों में सराबोर होने के पश्चात हम वापिस राप्ती नदी के तट पर पहुँचे। वहाँ वृक्ष के एकल तने से निर्मित एक संकरी नौका हमारी प्रतीक्षा कर रही थी। नौका पर चढ़ने से पूर्व मैंने पीछे मुड़कर इस वन को पुनः निहारा। तत्पश्चात नदी के तट को देखा। मैंने देखा कि नदी के भीतर भी उसका एक स्वयं का वन है। इसके जल के ऊपर तथा भीतर अनेक प्रकार के जलीय पौधे तैर रहे थे मानो एक भिन्न वन बना रहे हों।

मुझे चितवन वन के भीतर किया इस पदभ्रमण का दीर्घ काल तक स्मरण रहेगा। एक ओर शांत व शीतल प्राकृतिक वातावरण था, तो दूसरी ओर अधीरता थी। मन में अनेक प्रकार के भाव उठ रहे थे। कभी विस्मय तो कभी शांति, कभी आनंद तो कभी भय। साथ ही भरपूर्ण शारीरिक व्यायाम।

नेपाल की यात्रा नियोजित करने से पूर्ण मेरे इन यात्रा संस्करणों को अवश्य पढ़ें जो आपको नेपाल, विशेषतः काठमांडू के आसपास के रोचक व अछूते दर्शनीय स्थलों के विषय में विस्तृत जानकारी प्रदान करेगा।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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लद्दाख में शाकाहारी भोजन के विकल्प https://www.inditales.com/hindi/ladhak-ka-shakahari-bhojan/ https://www.inditales.com/hindi/ladhak-ka-shakahari-bhojan/#respond Wed, 01 Jan 2025 02:30:17 +0000 https://www.inditales.com/hindi/?p=3741

यात्राएं एवं भ्रमण करने वालों के लिए आहार एक महत्वपूर्ण आयाम होता है। हमारे स्वास्थ्य के लिए स्वच्छ व सुरक्षित आहार तो आवश्यक है ही, अनेक यात्रियों एवं पर्यटकों को भिन्न भिन्न पर्यटन स्थलों के विशेष व्यंजनों का आनंद लेना भी अत्यंत भाता है। सामान्यतः शाकाहारी भोजन सभी करते हैं। कुछ को सामिष भोजन भी […]

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यात्राएं एवं भ्रमण करने वालों के लिए आहार एक महत्वपूर्ण आयाम होता है। हमारे स्वास्थ्य के लिए स्वच्छ व सुरक्षित आहार तो आवश्यक है ही, अनेक यात्रियों एवं पर्यटकों को भिन्न भिन्न पर्यटन स्थलों के विशेष व्यंजनों का आनंद लेना भी अत्यंत भाता है। सामान्यतः शाकाहारी भोजन सभी करते हैं। कुछ को सामिष भोजन भी प्रिय होता है। किन्तु मेरे जैसे अनेक ऐसे यात्री हैं जो केवल शाकाहारी भोजन ही खाते हैं।

लद्दाख में शाकाहारी भोजन
लद्दाख में शाकाहारी भोजन

कुछ पर्यटन गंतव्यों में हमारे जैसों के समक्ष एक प्रश्न सदैव खड़ा रहता है कि क्या खाएं। ऐसे कुछ पर्यटन गंतव्य हैं, थाईलैण्ड, मलेशिया तथा हमारा अपना लद्दाख।

क्या लद्दाख में मेरे जैसे शाकाहरियों के लिए पर्याप्त भोजन विकल्प उपलब्ध हैं? आईए देखते हैं-

शाकाहारियों के लिए लद्दाख –  यात्रा का एक मुख्य आयाम

मनभावन छायाचित्रों से अलंकृत यह संस्करण आपको भोजन की उस श्रंखला से परिचित कराएगा जिसे थामकर मैंने अपनी लद्दाख यात्रा पूर्ण की थी। यहाँ मैं केवल लद्दाख के विशेष व्यंजनों का ही उल्लेख कर रही हूँ। यह संस्करण उन शाकाहारियों के लिए है जो लद्दाख भ्रमण पर वहाँ के विशेष व्यंजनों का आस्वाद लेना चाहते हैं। अन्यथा उच्च-स्तरीय भोजनालयों में अन्य राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय भोजन विकल्प उपलब्ध हैं जिनका उल्लेख यहाँ मैं नहीं कर रही हूँ।

गुड़ गुड़ चाय

यदि आपके दिवस का आरंभ किसी मठ में हो रहा है, जैसा कि एक दिवस मेरे साथ हुआ, आप वहाँ के बौद्ध भिक्षुओं को गुड़ गुड़ चाय पीते देखेंगे। वे प्रातःकाल की सम्पूर्ण अवधि में यह चाय पीते रहते हैं। यदि वे इससे अवकाश लेते हैं तो केवल दलिया का नाश्ता खाने के लिए।

ठिकसे मठ में गुड गुड चाय
ठिकसे मठ में गुड गुड चाय

बाल भिक्षुक कुछ कुछ मिनटों में उठते रहते हैं तथा अन्य भिक्षुओं के पात्र चाय एवं कुछ खाद्य से भरते रहते हैं। वे अपना यह कार्य इतनी तल्लीनता से करते रहते हैं कि यह उनकी ध्यान-साधना का ही एक अभिन्न अंग बन जाता है।

गुड गुड चाय
गुड गुड चाय

आप इस चित्र में गुड़ गुड़ चाय देख सकते हैं। इसे पोचा तथा बटर टी भी कहते हैं। इसमें चाय की पत्ती, गुड़ तथा दूध के साथ साथ नमक एवं मक्खन भी डाल जाता है। इसे नून चाय भी कहते हैं। पंजाबी में नमक को नून कहते हैं। किन्तु यह बटर टी के नाम से अधिक लोकप्रिय है। लद्दाख की शीतल जलवायु में यह शरीर को आंतरिक ऊष्मा पहुँचाती है।

और पढ़ें: भारत में चाय के भिन्न भिन्न प्रकार

सिकी रोटी

प्रातः अल्पाहार के लिए गुड़ गुड़ चाय के साथ सिकी हुई मोटी रोटी का आनंद लीजिए। यह रोटी जैसे ही भट्टी से बाहर आती है, लद्दाख के शीत वातावरण में त्वरित ठंडी हो जाती है। इसलिए इसका आनंद भाप निकलती गुड़ गुड़ चाय के साथ उठायिए।

लद्दाखी सिकी रोटी
लद्दाखी सिकी रोटी

हमें वहाँ इन रोटियों के साथ अंडे का ऑमलेट भी दिया गया था किन्तु चूंकि मैं अंडे भी नहीं खाती, मैंने इन्हे मक्खन के साथ खाया। लद्दाख की जलवायु में मक्खन भी जमा हुआ था। किन्तु लद्दाख में शीत ऋतु में जब बाहर -२३ अंश का तापमान हो तो गर्म गर्म बटर टी के साथ यही मक्खन-रोटी भी स्वर्ग का आनंद देती है।

पर्वतों के साथ भोजन
पर्वतों के साथ भोजन

हमने लद्दाख के एक सामान्य निवासस्थान में बैठकर, पर्वतों का मनमोहक दृश्य निहारते हुए रोटी एवं भाप निकलते गुड़ गुड़ चाय का अल्पाहार किया।

और पढ़ें: भारत के विभिन्न क्षेत्रों की भोजन थालियाँ

छांग एवं अन्य स्थानीय पेय 

छांग – भारत के प्रत्येक क्षेत्र के अपने स्वयं के स्थानीय पेय होते हैं। इसमें लद्दाख पीछे कैसे रह सकता है? छांग एक स्थानीय पेय है जिसे बाहरी वातावरण के अनुसार शीतल अथवा गर्म परोसा जाता है।

छांग
छांग

इसे पीतल के कटोरे में अथवा लकड़ी के पात्र में परोसा जाता है जिसे कोरे भी कहते हैं। मठों में यही लकड़ी के पात्र चाय तथा दलिये  के लिए भी प्रयुक्त होते हैं। यह एक खमीरी अथवा किण्वित पेय है जिसे जौ, बाजरा अथवा चावल से बनाया जाता है।

छोटे चने डले हुए घर में बना नूडल सूप – इस सूप में मुख्यतः नूडल, काले चने तथा नमक व कुछ मसाले डले होते हैं।

सूप
सूप

थुपका या नूडल सूप – यह लद्दाख का सर्वाधिक लोकप्रिय मूल भोजन है। इस सूप में विभिन्न शाक भाजियों का सम्मिश्रण होता है। इसके सामिष रूप में भिन्न भिन्न प्रकार के माँस का भी प्रयोग किया जाता है। किन्तु मैंने इसके शाकाहारी रूप का अत्यधिक आनंद उठाया। लद्दाख में यह एक सम्पूर्ण भोजन माना जाता है। भाप निकलता गरमागरम थुपका सूप का एक बड़ा पात्र! उदर को शांति तो प्राप्त होती ही है, साथ ही देह को प्राप्त ऊष्मा भी सुख प्रदान करती है।

लहसुन का सूप – यह भी लद्दाख का एक लोकप्रिय मूल आहार है। जब भी लोग कम ऊंचाई से पहाड़ों के ऊपरी भागों में पहुँचते हैं तब उन्हे यह सूप दिया जाता है। ऐसी मान्यता है कि यह लहसुन का सूप उन्हे Acute Mountain Sickness अर्थात स्वास्थ्य संबंधी तीव्र पर्वतीय जटिलताओं से जूझने में सहायता करता है।

अखरोट चटनी के साथ मोमो

मेरे लद्दाख यात्रा का नायक यही मोमो था जिसे अखरोट की चटनी के साथ परोसा गया था। मोमो सम्पूर्ण विश्व में हिमालयीन व्यंजन के रूप में लोकप्रिय है।

अखरोट की चटनी के साथ मोमो
अखरोट की चटनी के साथ मोमो

हिमालयी क्षेत्रों के निवासी उन क्षेत्रों में उगते सभी उत्पादनों से चटनी, जैम आदि बना लेते हैं। जैसे आड़ू, आड़ू के बीज, सेब, अखरोट आदि। इनकी एक विशेषता है कि इनमें शक्कर का न्यूनतम प्रयोग किया जाता है। इसीलिए जब मैंने इन्हे चखा तब ये मुझे मीठे कम, खट्टे अधिक प्रतीत हुए। इससे मुझे यह आभास हुआ कि जब तक संसाधित खाद्य पदार्थ हमारे जीवन का अभिन्न अंग नहीं बने थे, हम स्वास्थ्य वर्धक खाद्य पदार्थों के अभ्यस्त थे।

आड़ू का मिष्ठान्न

आड़ू से चटनी एवं जैम के अतिरिक्त मीठा भी बनाया जाता है। यह मिष्ठान्न अत्यधिक स्वादिष्ट एवं स्वास्थ्य वर्धक होता है।

आडू का मीठा
आडू का मीठा

लद्दाख का वातावरण अत्यधिक शीतल होता है। इसीलिए यहाँ पनीर एवं चीज़ का चलन है। यहाँ सामान्य गाय-भैंस के दूध से निर्मित चीज़ के अतिरिक्त याक के दूध से निर्मित चीज़ भी उपलब्ध होते हैं। यहाँ के याक चीज़ का एक अन्य रूप भी बहुत लोकप्रिय है, सुखाये हुए चीज़ के टुकड़े।

यद्यपि लद्दाख में शाकाहारी व्यंजनों के पर्याप्त विकल्प उपलब्ध है, तथापि किसी विपरीत परिस्थिति में आप फलों का सेवन कर सकते हैं। यहाँ बड़ी मात्रा में विविध फल उपलब्ध होते हैं। हिमालयीन क्षेत्रों में उत्पादित फलों का सेवन अवश्य करें। ये आपको अन्यत्र उपलब्ध नहीं होंगे।

सूखे मेवे

यदि आप फल खाने में कम रुचि रखते हैं अथवा शीतल वातावरण में फल की ओर कम रुझान हो तो आप लेह के हाट से प्रसिद्ध सूखे मेवे अवश्य खाएं। सूखे मेवे हमारे शरीर को भीतर से ऊष्मा प्रदान करते हैं।

लद्दाख के सूखे मेवे
लद्दाख के सूखे मेवे

शरीर को भीतर से ऊष्मा प्रदान करने के लिए तथा शीत मरुभूमि में स्वयं को आर्द्र रखने के लिए काहवा तो है ही। काहवा एक लदाखी चाय है।

लद्दाखी चाय का पात्र
लद्दाखी चाय का पात्र

अंत में, उन पात्रों को भी ध्यान से देखें जिनमें चाय, काहवा, छांग आदि परोसा जाता है। ये सुंदर अलंकृत धातुई पात्र होते हैं। उन पात्रों पर मोहित हो जाएँ तो स्थानीय हाट से उन्हे क्रय कर सकते हैं।

अब किसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं! त्वरित लद्दाख यात्रा का नियोजन कर लें। आप शाकाहारी हैं? चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है। इस संस्करण से आपको अवश्य यह आभास हो गया होगा कि लद्दाख में शाकाहारियों के लिए भी भोजन विकल्पों की कोई कमी नहीं है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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नामेरी राष्ट्रीय उद्यान और बाघ अभयारण्य, असम – भारत के राष्ट्रीय उद्यान https://www.inditales.com/hindi/nameri-rashtriya-udyan-assam/ https://www.inditales.com/hindi/nameri-rashtriya-udyan-assam/#respond Wed, 25 Dec 2024 02:30:58 +0000 https://www.inditales.com/hindi/?p=650

अरुणाचल प्रदेश जाते समय हमने नामेरी राष्ट्रीय उद्यान की पहली झलक देखी थी, लेकिन उस समय हम उसके दर्शन नहीं कर पाए थे। बाद में अरुणाचल से वापस आते समय जब हम रास्ते में स्थित पर्यावरण शिविर में रुके थे, तब कई बार हमे इस उद्यान की अनेक झलकियाँ देखने को मिली। नामेरी राष्ट्रीय उद्यान   […]

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अरुणाचल प्रदेश जाते समय हमने नामेरी राष्ट्रीय उद्यान की पहली झलक देखी थी, लेकिन उस समय हम उसके दर्शन नहीं कर पाए थे। बाद में अरुणाचल से वापस आते समय जब हम रास्ते में स्थित पर्यावरण शिविर में रुके थे, तब कई बार हमे इस उद्यान की अनेक झलकियाँ देखने को मिली।

नामेरी राष्ट्रीय उद्यान  

अरुणाचल जाते वक्त हमे रास्ते में एक खोदे हुए मार्ग से गुजरना पड़ा था, जिस पर से जाते समय मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे हम किसी रोलर कोस्टर की सवारी पर बैठे हो। अरुणाचल से जुड़ा यह मेरा पहला यादगार पल था। इसी बीच अचानक से एक हाथी ने आकर हमारा रास्ता रोक दिया और अपनी सूंढ से गाड़ी-चालक की खिड़की खटखटाने लगा। मैं उत्सुकतापूर्वक यह सब देखती रही।

नामेरी राष्ट्रीय उद्यान में जिया भोरोली नदी
नामेरी राष्ट्रीय उद्यान में जिया भोरोली नदी

हमारे चालक ने अपनी खिड़की का काँच नीचे किया और उस हाथी को 10 रूपय का नोट दे दिया और पैसे लेकर वह हाथी दूसरी गाड़ी की ओर बढ़ गया। उसके जाने के बाद हमारे चालक ने हमे बताया कि जब तक आप इन हाथियों को पैसे नहीं देते तब तक वे आपको आगे बढ़ने नहीं देते। वैसे कहा जाए तो यह एक प्रकार का हाथी कर ही है। जाहीर है कि उनके मालिकों ने उन्हें इस कार्य के लिए प्रशिक्षित किया होगा।

जो भी यहाँ पर पहली बार आता है, उसके लिए यह सबकुछ बहुत ही मनोरंजक होता है। क्योंकि अचानक से किसी हाथी का इस प्रकार से गाड़ी के पास आकर शहरों की सड़कों पर मिलनेवाले भिखारियों की तरह या फिर शायद पुलिस वालों की तरह व्यवहार करना कुछ अजीब सा है।

नामेरी पर्यावरण शिविर   

वापस आते समय जब तक हम भालुकपोंग पार कर चुके थे हम सब एक लंबी यात्रा के कारण काफी थक चुके थे और रात भी अपनी काली चादर ओढ़ते हुए दस्तक देने लगी थी। ऐसे में यहाँ की सुनसान सड़कों पर सफर करना थोड़ा खतरनाक हो सकता था। थोड़ा आगे जाने के बाद हमे रास्ते में नामेरी पर्यावरण शिविर का एक तख़्ता दिखा और हमने वहाँ पर जाने का निश्चय कर लिया। शुक्र है कि यह पर्यटन का मौसम नहीं था, जिसकी वजह से हमे यहाँ पर रहने की जगह मिल गयी और हम सब रात को यहीं पर रुक गए।

पर्यावरण शिविर एक ऐसी जगह है जहां पर कोई भी निसर्ग प्रेमी जरूर रहना पसंद करेगा। लेकिन एक बात है कि यहाँ पर भिनभिनानेवाले मच्छरों से आपको अपनी रक्षा स्वयं ही करनी पड़ती है। यहाँ पर बहुत ही सुंदर झोपड़ियाँ और तम्बू हैं और उन्हीं से जुड़कर उनके स्नानकक्ष बनवाए गए हैं। इनके पास ही एक खुला मैदान है जहाँ पर लकड़ी के लट्ठों से बनी बैठकें और रंगबिरंगी झूले हैं। यहाँ पर एक भोजनालय भी है जहाँ पर साधारण लेकिन पौष्टिक भोजन परोसा जाता है। इस भोजनालय में यहाँ-वहाँ उद्यान से जुड़ी जानकारी प्रदर्शित की गयी है। यह संपत्ति किसी पुरानी मछली पकड़ने वाली समिति की है जो आज भी यहाँ से संचालित होती है।

जंगलों की सैर

दूसरे दिन सुबह-सुबह हम सब चलते हुए जिया–भोरोली नदी (और उसकी उप-नदियां यानी डीजी, दिनाई, डोईगुरुंग, नामेरी, डिकोराइ, खारी आदि) के किनारे चले गए जो नामेरी राष्ट्रीय उद्यान से आड़े-तिरछे तरीके से होते हुए गुजरती है। यहाँ पर एक कीचड़वाला मार्ग है, जिसमें बने हुए पैरों के निशान ये साफ बता रहे थे कि अभी कुछ घंटों पहले ही यहाँ से एक हाथी गुजरा था।

हमे इसी मार्ग के आधार पर आगे बढ़ने के लिए कहा गया था और जंगल में जाने से मना किया गया था। हमने हमारे गाइड की इस सलाह का पूरी तरह से पालन किया। इतनी सुबह-सुबह नदी का यह पूरा नज़ारा सचमुच बहुत ही सुखदायक था। कलकल बहता हुआ नदी का साफ नीला पानी, किनारे पर पड़े हुए पत्थर, नदी पार करती हुई एक नाव और वहाँ पर मौजूद कुछ लोग। यह सबकुछ जैसे किसी खूबसूरत सपने की भांति लग रहा था।

ऐसे वातावरण में नदी के किनारे किसी बड़े से पत्थर पर बैठकर पानी में पाँव डुबोना और बालों के साथ खेलती ठंडी हवा का आनंद लेना, ये सारे पल जैसे इस पूरी यात्रा को और भी खूबसूरत बना रहे थे। यहाँ पर आकर आप जैसे अपनी सारी मुश्किलें भूल जाते हैं और सिर्फ इस मंत्रमुग्ध कर देनेवाले वातावरण में खो जाना चाहते हैं और इस पल को पूरी तरह से जीना चाहते हैं। अगर आपकी किस्मत अच्छी हुई तो आपको नदी के उस पार कुछ जंगली जानवर भी दिखाई दे सकते हैं। इस वक्त मुझे अपनी दूरबीन की बहुत ज्यादा याद आ रही थी। ये पल मेरी पूरी उत्तर पूर्वीय भारत की यात्रा के सबसे शांतिपूर्ण और यादगार पल थे।

उद्यान और आस-पास के जगहों की सैर   

आपको इस उद्यान के आस-पास की जगहें जरूर देखनी चाहिए। वहाँ पर एक छोटा सा मंदिर है जो एक सुंदर से पेड़ की छाया में खड़ा है। उज्वलित लाल रंग का यह पेड़ यहाँ के पूरे हरे-भरे परिदृश्य को और भी आकर्षक बनाता है। यहाँ पर एक मत्स्य पालन केंद्र भी है जहाँ पर मछलियों की नयी-नयी जातियों को लाकर उनका पोषण किया जाता है। इसी के साथ उन मछलियों पर संशोधन भी किया जाता है और फिर उसका दस्तावेजीकरण किया जाता है। बाद में संशोधन पूर्ण होने के पश्चात इन मछलियों को नदी में छोड़ दिया जाता है।

यहाँ पर रंगबिरंगी तितलियाँ और पक्षी भी हैं जो आपको उन्हें अपने कैमरे में कैद करने के लिए लुभाते हैं, लेकिन वे इतनी आसानी से आपकी पकड़ में नहीं आते। इसके अतिरिक्त यहाँ पर एक आवासशाला भी है जो 12-15 लोगों एक साथ अपनी छत्रछाया में ले सकता है, ताकि लोगों को कोई असुविधा ना हो। पर्यटन के मौसम में आप चाहे तो यहाँ पर रिवर राफ्टिंग के लिए जा सकते हैं, मछली भी पकड़ सकते हैं और वहाँ के जंगली प्राणियों को देखने के लिए आरक्षित क्षेत्रों में भी जा सकते हैं।

मुझे तो लगता है कि वन्यजीवन के सरगर्मों को एक बार तो नामेरी राष्ट्रीय उद्यान जरूर जाना चाहिए।

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रेलगाड़ी पर फिल्माए लोकप्रिय बॉलीवुड गीतों की यात्रा – एक झलक https://www.inditales.com/hindi/rail-gadi-par-filmaaye-geet/ https://www.inditales.com/hindi/rail-gadi-par-filmaaye-geet/#respond Wed, 18 Dec 2024 02:30:10 +0000 https://www.inditales.com/hindi/?p=3735

बॉलीवुड के चित्रपट सामान्यतः अपने निर्मिती कालखंड व उस समय की परिस्थिति के प्रतिबिम्ब होते हैं। उनमें कुछ काल्पनिक तथा कुछ वास्तविक कथानकों द्वारा समय के साथ परिवर्तित होते समाज एवं व्यवस्थाओं का सुन्दर चित्रण किया जाता रहा है। यात्रायें समाज का अभिन्न अंग हैं। तो स्वाभाविक ही है कि हमारे बॉलीवुड चित्रपटों के पटकथाओं […]

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बॉलीवुड के चित्रपट सामान्यतः अपने निर्मिती कालखंड व उस समय की परिस्थिति के प्रतिबिम्ब होते हैं। उनमें कुछ काल्पनिक तथा कुछ वास्तविक कथानकों द्वारा समय के साथ परिवर्तित होते समाज एवं व्यवस्थाओं का सुन्दर चित्रण किया जाता रहा है। यात्रायें समाज का अभिन्न अंग हैं। तो स्वाभाविक ही है कि हमारे बॉलीवुड चित्रपटों के पटकथाओं में भी यात्राओं एवं उससे जुडी यंत्रणाओं का कभी उद्देश्यपूर्ण रीति से तो कभी सौन्दर्यवृद्धि की दृष्टी से उल्लेख किया जाता रहा है।

इसी कारण आप बॉलीवुड चित्रपटों में अनेक गीत देखेंगे जिनका परोक्ष या अपरोक्ष रूप से यात्राओं से सम्बन्ध रहा है। यात्रा चाहे तांगे से हो या, रिक्शा से, साइकिल से हो या बस से, विमान से हो या रेलगाड़ी से। समय से साथ टाँगे, रिक्शा आदि का स्थान दुपहिये वाहनों ने ले लिया है। बस स्थानकों के दृश्यों के स्थान पर अब विमानतल के दृश्य अधिक दिखाई देते हैं। किन्तु एक दृश्य ऐसा है जो अब तक वैसा कि वैसा ही है, तटस्थ। वह है रेलगाड़ी या ट्रेन का दृश्य।

रेलयात्रा में जो लुभावनापन है, आकर्षण है, प्रेमी-प्रेमिकाओं का प्रेम व्यक्त करना है, यहाँ तक कि अपरोक्ष रूप से कोई सन्देश देना है, उसे यात्रा का अन्य कोई भी माध्यम मात नहीं दे सकता। स्वाभाविक है कि अनेक दशकों से बॉलीवुड के कुछ अत्यंत लोकप्रिय, भावुक तथा कल्पनाशील गीत ट्रेन पर ही चित्रित हैं। भारतीय रेल पर। आप यदि ध्यान से सोचें तो बॉलीवुड के अनेक भावनाशील तथा दार्शनिक गीतों की पार्श्वभूमी में भी आप ट्रेन का सम्बन्ध अवश्य देखेंगे, विशेषतः आरंभिक दशकों के गीतों में।

रेल पर चित्रित बॉलीवुड के २० सर्वोत्तम गीत

दशकों से बॉलीवुड के चित्रपटों में जो गीत रेलगाड़ी पर फिल्माए जा रहे हैं, उनसे हमें भारतीय रेल की अब तक की यात्रा के विषय में भी जानकारी मिलती है। अंग्रेजों के लिए बने अतिविलासी डब्बों से दूसरे दर्जे के आम डब्बों तक, धरोहर रेलों से स्थानिक रेलों तक, यहाँ तक कि मालवाहक रेलों की भी यात्रा समझ में आती है। तो आईये मेरे साथ भारतीय रेलों पर फिल्माए बॉलीवुड संगीत की संगीतमय यात्रा पर जो आपको कल्पना के जग में ले जायेगी।

तूफान मेल – जवाब (१९४२)

१९४२, वह वर्ष जब भारत में “भारत छोडो” आन्दोलन चल रहा था। यह वही वर्ष था जब कमल दासगुप्ता के संगीत पर पंडित मधुर द्वारा लिखे इस अमर गीत को कानन देवी सिंह ने गया था।

तूफान मेल – उस काल में रेलों के नाम भी अनोखे होते थे। आजकल रेलों के कितने नीरस नाम होते हैं। कल्पना कीजिये कि आप तूफान मेल नाम के ट्रेन में यात्रा करने वाले हैं।

आओ बच्चों तुम्हे दिखाएँ – जागृति (१९५४)

इस अमर गीत में ट्रेन की यात्रा दिखाई गयी है जो वास्तव में आपको भारत के विभिन्न क्षेत्रों एवं विविधताओं की सैर कराती है। भारत में हम गर्व से कहते हैं कि भारतीय रेल भारत के कोने कोने में जाती है। देश के एक छोर को दूसरे छोर से जोड़ती है। यह गीत ठीक उसी भावना का प्रदर्शन करता है। इस गीत से मुझे अपने शालेय दिवसों का स्मरण हो आता है। किसी ना किसी रूप में इस गीत ने मुझे यात्राएं करने के लिए प्रेरित किया है। आज मैं जितनी यात्राएं करती हूँ, यहाँ तक कि उसे मैंने अपना व्यवसाय ही बना लिया है, मेरे अनुमान से उसमें इस गीत की बड़ी भूमिका है। कवि प्रदीप द्वारा गाये गए इस गीत को हेमंत कुमार ने संगीतबद्ध किया है।

देख तेरे संसार की हालत – नास्तिक (१९५४)

भारत विभाजन के समय भी रेलों ने बड़ी भूमिका निभाई थी। एक ओर से दूसरी ओर लोगों को ले जाना। रेलें लोगों से खचाखच भरी होती थीं। खिडकियों, दरवाजों से लटकते लोग। छत पर बैठे लोगों की भीड़। ऐसा प्रतीत होता है कि इस गीत ने इस दृश्य व भावना को आत्मसात करने का प्रयास किया है। प्रदीप द्वारा गाया गया यह गीत आपको आपके आज की सुख-सुविधाओं भरे जीवन के विषय में अवश्य कृतज्ञ कर देगा।

बस्ती बस्ती पर्बत पर्बत – रेलवे प्लेटफोर्म (१९५५)

इस दृश्य में पटरी को पीछे छोड़कर रेलगाड़ी आगे बढ़ रही है, सा

थ ही चित्रपट के कलाकारों एवं सहायकों के नाम पटल पर आते जा रहे हैं। यह एक यात्री की गाथा प्रतीत होती है।

इस गीत को साहिर लुधियानवी ने लिखा, मदन मोहन ने संगीतबद्ध किया तथा मोहम्मद रफ़ी ने अपने मधुर आवाज में गाया है।

है अपना दिल तो आवारा – सोलवां सावन (१९५८)

यह मेरा सदा-प्रिय, एक अल्हड़ गीत है जिसे देव आनंद एवं वहीदा रहमान की सुन्दर जोड़ी पर फिल्माया गया है। यह गीत रेलगाड़ी के भीतर फिल्माया गया है, इसे समझने में मुझे कुछ समय लगा था। क्योंकि मैंने तब तक ऐसी रेलगाड़ी नहीं देखी थी। मजरूह सुल्तानपुरी के शब्दों को एस. डी. बर्मन ने संगीतबद्ध किया है। इस मस्ती भरे गीत को हेमंत कुमार ने अपनी गायकी से अमर कर दिया है।

 मेरे अनुमान से यह गीत कोलकाता के स्थानीय इलेक्ट्रिकल मल्टीपल यूनिट (EMU) में फिल्माया गया है।

औरतों के डब्बे में – मुड़ मुड़ के ना देख (१९६०)

यह एक मस्ती भरा गीत है जिसमें स्त्री-पुरुष के मध्य सदाबहार नोकझोंक को प्रदर्शित किया है। इस दृश्य में एक पुरुष महिलाओं के डिब्बे में प्रवेश कर जाता है।

इस दृश्य में भारत भूषण, जो बहुधा गंभीर भूमिका निभाते थे, चंचलता भरी भूमिका कर रहे हैं। इस गीत को मोहम्मद रफ़ी एवं सुमन कल्याणपुर ने गाया है, हंसराज बहल ने संगीतबद्ध किया है तथा इसके बोल प्रेम धवन ने लिखे हैं।

मैं हूँ झुम झुम झुमरू – झुमरू (१९६१)

दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे पर फिल्माया यह अमर गीत झुमरू चित्रपट का शीर्षक गीत भी है। इस गीत को गायक व नायक किशोर कुमार ने अत्यंत अल्हड़ शैली में गाया है। इस चित्रपट में मुख्य भूमिका में स्वयं किशोर कुमार तथा मधुबाला हैं। रेलगाड़ी से सम्बंधित मस्तीभरे गीत चुने जाएँ तो सूची में ये गीत सर्वोच्च स्थान पर हो सकता है। इस गीत को संगीतबद्ध भी किशोर कुमार ने ही किया है। इसके शब्द मजरूह सुल्तानपुरी ने लिखे हैं।

मुझे अपना यार बना लो – बॉय फ्रेंड (१९६१)

इस गीत में नायक शम्मी कपूर हिमालय की शिवालिक पर्वत श्रंखला से जाती हुई शिमला-कालका रेलगाड़ी की छत पर कूदते-फांदते दिख रहे हैं। यह उनकी सर्वधिक लोकप्रिय शैली है। श्वेत-श्याम चित्रपट होते हुए भी हिमाच्छादित पर्वत शिखर अत्यंत सुन्दर दिख रहे हैं।

गायक – मोहम्मद रफ़ी, संगीत – शंकर जयकिशन, गीत – हसरत जयपुरी

मैं चली मैं चली – प्रोफेसर (१९६२)

यह गीत भी दार्जीलिंग हिमालयन रेल पर फिल्माया गया है जिसमें शम्मी कपूर व कल्पना आपस में प्रेम व्यक्त कर रहे हैं।

गायक – मोहम्मद रफ़ी व लता मंगेशकर, संगीत – शंकर जयकिशन, गीत – हसरत जयपुरी

रुख से जरा नकाब हटा दो – मेरे हजूर (१९६८)

रेलगाड़ी में बैठी नायिका पर फिल्माया गया एक सुन्दर गीत जिसे मोहम्मद रफ़ी ने अपना मधुर स्वर प्रदान किया है। इस मधुर गीत को संगीतबद्ध किया शंकर जयकिशन ने।

मेरे सपनों की रानी – आराधना (१९६९)

इस गीत में दार्जीलिंग हिमालयन रेल का सुन्दर दृश्य दिखाया गया है। यह ऐसा गीत है जिसे छोटे बड़े सभी ने मस्ती में गया होगा।

इस गीत के इतने लोकप्रिय होने के पीछे किशोर कुमार की मदमस्त आवाज, आनंद बक्शी के बोल, सुप्रसिद्ध संगीतकार आर. डी. बर्मन का मस्ती भरा संगीत व लोकप्रिय नायक राजेश खन्ना, इस सब का मधुर संगम है।

हम दोनों दो प्रेमी – अजनबी (१९७४)

चित्रपट के नायक व नायिका, राजेश खन्ना व जीनत अमान एक मालगाड़ी के डिब्बे पर सवार दिखाए गए हैं। पहले दृश्य में ही रेल क्रमांक १९२२८ भी दिखाई देता है। उस काल में रेलगाड़ी में भाप का इंजिन लगता था। एक मालगाड़ी का इतना सुन्दर रूप किसी ने कभी नहीं देखा होगा। किशोर कुमार व लता मंगेशकर ने आर. डी. बर्मन के संगीत पर आनंद बक्शी के इस गीत को पूर्ण न्याय किया है।

गाड़ी बुला रही है – दोस्त (१९७४)

इस गीत में ट्रेन या रेलगाड़ी को एक रूपक के रूप में प्रयोग किया गया है। इस गीत में केवल दो ही तत्व दर्शाए गए हैं, नायक धर्मेन्द्र एवं रेलगाड़ी। गाड़ी के माध्यम से जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा दी गयी है। इस गीत में कालका-शिमला पर्वतीय रेल दिखाया गया है। इस स्फूर्तिदायक गीत को किशोर कुमार ने गया है, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने संगीत दिया है तथा गीतकार हैं आनंद बक्शी।

होगा तुमसे प्यारा कौन – जमाने को दिखाना है (१९७७)

एक बार फिर दार्जीलिंग हिमालयन रेल। केवल नायक व नायिका भिन्न हैं। यहाँ ऋषि कपूर पद्मिनी कोल्हापुरे के समक्ष अपना प्रेम व्यक्त कर रहे हैं। रेलगाड़ी का ऊपर से अप्रतिम दृश्य लिया गया है। संगीत की तान से मेल खाती रेलगाड़ी की आवाज एवं भाप इंजिन से निकलते धुंए का सुन्दर ढंग से प्रयोग किया गया है। आर. डी. बर्मन द्वारा संगीतबद्ध इस गीत को शैलेन्द्र सिंग ने अपने स्वर प्रदान किये हैं जो ऋषि कपूर पर अच्छे लगते हैं।

पर दो पल का साथ हमारा – द बर्निंग ट्रेन (१९८०)

पल दो पल का साथ हमारा, पल दो पल का याराना है। ये शब्द रेल यात्रा को सुन्दर शैली में व्यक्त करते हैं। रेलयात्रा का यही सत्य है। रेलगाड़ी के भीतर फिल्माए गए इस गीत को मोहम्मद रफी एवं आशा भोंसले ने गाया है। आर.डी. बर्मन द्वारा संगीतबद्ध इस गीत के बोल साहिर लुधियानवी ने लिखे हैं।

हाथों की चंद लकीरों का – विधाता (१९८२)

यह एक दार्शनिक गीत है जिसमें दो वयस्क नायकों, दिलीप कुमार व शम्मी कपूर को दिखाया गया है। इस गीत के माध्यम से वे नियति एवं कर्म पर आपस में तर्क कर रहे हैं। इस गीत में दोनों रेल के डब्बे के भीतर नहीं, इंजिन के भीतर हैं तथा रेलगाड़ी चला रहे हैं। सुरेश वाडकर एवं अनवर हुसैन द्वारा गाये गए इस गीत को कल्याणजी आनंदजी ने संगीतबद्ध किया तथा इसके बोल लिखे हैं, आनंद बक्शी ने।

सारी दुनिया का बोझ हम उठाते हैं – कुली (१९८३)

इस चित्रपट के नाम से ही यह समझ में आ जाता है कि यह एक कुली की कथा है। यह गीत बंगलुरु सिटी स्टेशन पर फिल्माया गया है जो इस गीत का वास्तविक नायक है।

गायक – शब्बीर कुमार, संगीतकार – लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, गीतकार – आनंद बक्शी

साजन मेरे उस पार – गंगा जमुना सरस्वती  (१९८८)

इस गीत में भारतीय रेल की विभिन्न श्रेणियां दिखाई गयी हैं जिनके माध्यम से उनके मध्य सामाजिक व आर्थिक विभाजन दर्शाया गया है।

गायिका – लता मंगेशकर, संगीतकार – अनु मालिक, गीतकार – इन्दीवर

कब से करे है तेरा इंतजार – कभी हाँ कभी ना (१९९४)

यह मधुर गीत कोंकण रेलवे का उत्सव मनाता है। भारत के सर्वाधिक हरियाली भरे क्षेत्रों से जाते हुए कोंकण क्षेत्र का अप्रतिम परिदृश्य दिखाया गया है। इसमें वास्को द गामा रेल स्टेशन भी दिखाया गया है।

अमित कुमार की मस्ती भरी गायकी को शाहरुख खान ने उतनी ही रोमांचक प्रस्तुति से अलंकृत किया है। जतिन-ललित के उत्कृष्ट संगीत व मजरूह सुल्तानपुरी के बोल, दोनों ने इस गीत को अत्यधिक लोकप्रिय बना दिया है।

और पढ़ें: मानसून में कोंकण रेलवे की यात्रा

छैंया छैंया – दिल से ( १९९८)

शाहरुख खान एवं मलाइका अरोरा ने नीलगिरी धरोहर रेलगाड़ी की छत पर फिल्माए इस रोमांचक गीत से चित्रपट प्रेमियों में धूम मचा दी थी। मेरे लिए इस गीत की विशेषता है, सुखविंदर सिंग एवं सपना अवस्थी के सशक्त स्वर जिसे लोक शैली में संगीतबद्ध किया ए. आर. रहमान ने। गीत लिखा गुलजार ने। ट्रेन पर फिल्माये बॉलीवुड गीतों में सर्वाधिक लोकप्रिय गीत।

कस्तो मज्जा है रेलैमा – परिणीता (२००५)

नायिका विद्या बालन का स्मरण करते नायक सैफ अली खान एक बार फिर दार्जीलिंग हिमालयन रेल में सवार हो गए हैं। यह गीत आपको अतीत काल में ले जाता है तथा रेलों का स्वर्णिम युग आपके समक्ष प्रस्तुत करता है। यह एक सुन्दर गीत है जिसे उतनी ही सुन्दर शैली में चित्रित किया है। इस मधुर गीत को मधुर स्वर प्रदान किये हैं गायक सोनू निगम ने। शांतनु मोइत्रा ने स्वानंद किरकिरे द्वारा लिखित इस गीत को सुन्दर संगीत प्रदान किया है।

मनु भैय्या क्या करेंगे – तनु वेड्स मनु (२०११)

दूसरे दर्जे के रेल डिब्बे में यात्रा कर रहा एक भरा पूरा परिवार इस लोकगीत के द्वारा अचानक उर्जा से भर जाता है तथा आनंद मनाने लगता है। रेलगाड़ी जैसे जैसे आगे बढ़ रही है, परिवार के सदस्य नाचते गाते हैं तथा डिब्बे में ही विवाह उत्सव की विभिन्न विधियां एवं संस्कार करते हैं। मोहित चौहान के संगीत पर सुनिधी चौहान, उज्जैनी मुखर्जी एवं निलाद्री देबनाथ ने इस लोकगीत की सुन्दर प्रस्तुति की है।

फूलिश्क – की एंड का (२०१६)

यह गीत रेवाड़ी धरोहर रेल पर फिल्माया गया है। यह धरोहर रेलगाड़ी दिल्ली व रेवाड़ी के मध्य चलती है। इन दिनों यह चित्रपटों में अधिक दिखाई देती है। इस गीत का कोई औचित्य नहीं है। मेरे लिए यह गीत रेल संग्रहालय का भ्रमण है।

इनमें से आपके प्रिय गीत कौन से हैं? यदि मुझसे रेल पर फिल्माया कोई बॉलीवुड गीत छूट गया हो, जो आपको प्रिय हो, टिप्पणी खंड द्वारा मुझे अवश्य सूचित करें।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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देवी बूढ़ी नागिन सेरोलसर सरोवर की संरक्षक https://www.inditales.com/hindi/himachal-serolsar-sarovar-bushi-nagin-mandir/ https://www.inditales.com/hindi/himachal-serolsar-sarovar-bushi-nagin-mandir/#respond Wed, 11 Dec 2024 02:30:47 +0000 https://www.inditales.com/hindi/?p=3731

एक गौमाता जब प्रसूती होती है, उसके पश्चात उसके दूध से जो प्रथम घी बनता है, उसे पूजा-आराधना के उद्देश्य से पृथक रख दिया जाता है। भारतीय संस्कृति में प्रसूती के पश्चात प्राप्त दूध को अत्यंत पावन माना जाता है। मैं इसे अपना सौभाग्य मानती हूँ कि मेरा जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ है […]

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एक गौमाता जब प्रसूती होती है, उसके पश्चात उसके दूध से जो प्रथम घी बनता है, उसे पूजा-आराधना के उद्देश्य से पृथक रख दिया जाता है। भारतीय संस्कृति में प्रसूती के पश्चात प्राप्त दूध को अत्यंत पावन माना जाता है। मैं इसे अपना सौभाग्य मानती हूँ कि मेरा जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ है जिसमें गाय को हमारी संस्कृति का एक अभिन्न अंग माना जाता है।

जब जब हमारे परिवार में गौमाता का प्रसूतीकरण होता था, तब तब मैंने अपनी माता एवं दादीजी को इस परंपरा का पालन करते हुए देखा है। बछड़ा दूध पी ले, उसके पश्चात बचा हुआ दूध एकत्र कर उससे घी बनाया जाता था तथा उस घी को एक पृथक बर्नी में सुरक्षित रखा जाता था। उस बर्नी के घी को खाने की अनुमति किसी को नहीं होती थी। मैंने अपनी दादीजी से इसका कारण जानने का प्रयास किया। उन्होंने मुझे बताया कि गौमाता के प्रथम दूध से निर्मित घी को सेरोलसर सरोवर की संरक्षिका देवी बूढ़ी नागिन के लिए पृथक रखा जाता है।

बूढ़ी नागिन की कथा

बूढ़ी नागिन के नाम से प्रसिद्ध देवी को नवदुर्गा का अवतार माना जाता है। बूढ़ी नागिन हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले में सेराज क्षेत्र में रहती थी। विवाह के पश्चात वे सुकेत क्षेत्र में चली गईं जो अब हिमाचल के करसोग जिले में है।

बूढ़ी नागिन मंदिर हिमाचल प्रदेश
बूढ़ी नागिन मंदिर हिमाचल प्रदेश

एक समय बूढ़ी नागिन उनके क्षेत्र से बहती सतलज नदी के तट पर गयी। अपने घर से चलने से पूर्व उन्होंने अपनी माता से कहा था कि उनके लौट आने से पूर्व वे उनकी संतानों को निद्रा से ना जगायें। उस समय उनकी संतानें रसोईघर में रखी एक टोकरी में भूसे के ऊपर निद्रामग्न थे। आपको यह पढ़कर आश्चर्य हुआ होगा किन्तु उस काल में पालने का प्रचलन नहीं था। माता अपनी संतान को टोकरी में भूसे के ऊपर ही सुलाती थी।

जब दीर्घ काल तक भी बूढ़ी नागिन की संतानें निद्रा से जागी नहीं तो उनकी माता चिंतित हो गयी। बूढ़ी नागिन के निर्देशों की उपेक्षा करते हुए उन्होंने उन संतानों के ऊपर से कंबल हटाया। कंबल हटाते ही वे भौंचकी रह गईं। टोकरी में ५-६ सर्प थे। सर्पों को देखते ही भयवश उन्होंने चूल्हे की राख उन पर बिखेर दी। सभी सर्प इधर-उधर भाग गये।

जब बूढ़ी नागिन वापिस आयी, उन्हे उनकी संतानें कहीं नहीं दिखीं। संतानों से बिछड़ जाने पर वो अत्यंत दुखी हो गयी और उन्होंने गाँव का त्याग कर दिया।

बूढ़ी नागिन की स्मृति में भुईरी गाँव स्थित उनके निवासगृह में उनका एक लघु शैल विग्रह रखा गया है तथा उसकी पूजा आराधना की जाती है। बूढ़ी नागिन के छोटे से गृह का ना तो पुनर्निर्माण किया जा सकता है, ना ही उसका पुनरुद्धार किया जा सकता है।

बूढ़ी नागिन अपने गृह का त्याग कर सेरोलसर सरोवर पहुँची जो हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले में बंजर घाटी में जालोरी दर्रे के समीप स्थित है।

नाग आराधना

ऐसी मान्यता है कि बूढ़ी नागिन नाग देवताओं की माता है। इस क्षेत्र के स्थानीय निवासियों की मान्यताओं के अनुसार नाग का संबंध भगवान शिव से है। प्रत्येक नाग का स्वयं का क्षेत्र एवं गाँव है जिनका नाम उन्ही पर रखा गया है, जैसे चौवासी नाग, हुंगरू नाग तथा झाकड़ नाग।

इन गांवों में अनेक मंदिरों का निर्माण कराया गया है जिनकी वास्तुशैली हिमाचली है। इनमें काष्ठ का प्रयोग बहुतायत से किया जाता है। काष्ठ पर अप्रतिम उत्कीर्णन होते हैं। प्रत्येक वर्ष मंदिरों के पुरोहित तथा गाँववासी इन मंदिरों का भ्रमण करते हैं। ऐसी मान्यता है कि नाग देवता भी इन सभी मंदिरों में भ्रमण करते हैं। भक्तगण नागों को विविध वस्तुएं अर्पण करते हैं। स्थानीय कलाकार हिमाचली शैली में लोकनृत्य भी करते हैं जिसे नटी कहते हैं।

सेरोलसर सरोवर एक तृण आच्छादित सुंदर भूभाग के मध्य स्थित है। यहाँ से सूर्यास्त का अप्रतिम दृश्य दिखाई पड़ता है। आप यहाँ से चारों ओर दृष्टिगोचर पर्वत शिखरों का भी अवलोकन कर सकते हैं।

सेरोलसर सरोवर की आभी चिड़िया

स्थानीय लोककथा के अनुसार बूढ़ी नागिन अपने गाँव का त्याग कर सेरोलसर आ गयी तथा एक विशाल शिला पर बैठ गयी। यहाँ ६० योगिनियाँ थीं जिन्हे इंद्रदेव की पौरी कहते हैं। कुछ योगिनियाँ मंडी में शिकारी देवी के पास जा रही थीं तो कुछ जालोरी जोत  जा रही थीं। उन्होंने बूढ़ी नागिन को वहाँ बैठे देखा। योगिनियाँ उनके पास गयीं तथा उन्हे खेल खेलने के लिए आमंत्रित किया।

उन्हे लगा कि नागिन बूढ़ी है इसलिए उन्हे आसानी से परास्त किया जा सकता है। खेल से पूर्व कुछ नियम निर्धारित किये गये। यदि खेल में बूढ़ी नागिन विजयी होती हैं तो वे इस स्थान को अपने पावन स्थल के रूप में स्वीकार करेंगी। यदि योगिनियाँ विजयी होती हैं तो बूढ़ी नागिन यह स्थान छोड़कर अन्यत्र चली जाएंगी।

क्रीडा के मध्य एक योगिनी ने छल किया। यह देख बूढ़ी नागिन क्रोधित हो उठी। उन्होंने उसे श्राप दिया कि वो सदा के लिए एक छोटा पक्षी बन जाए। बूढ़ी नागिन ने उस पक्षी को सेरोलसर की स्वच्छता करते रहने का कार्य सौंप दिया। उस पक्षी को आभी चिड़िया कहते हैं।

बूढ़ी नागिन उस खेल में विजयी हुई तथा सदा के लिए यहीं बस गयी। बूढ़ी नागिन ने जब अपने निवास एवं गाँव का त्याग किया था, वे अपने साथ एक कलश ले कर चली थीं। सेरोलसर में भ्रमण करते समय उनके हाथ से वह कलश छूट गया तथा उससे निकले जल से यहाँ एक सरोवर की उत्पत्ति हुई। वही सेरोलसर सरोवर बना।

जिस शिला पर बूढ़ी नागिन बैठे हुई थी, उस शिला को काला पत्थर कहते हैं।

पांडव कथा

पांडव अपने वनवास काल में जालोरी दर्रे पर पहुँचने के पश्चात सेरोलसर सरोवर आये थे। उन्होंने सरोवर के निकट धान की खेती आरंभ की। ऐसा कहा जाता है कि बूढ़ी नागिन ने सरोवर से प्रकट होकर उन्हे दर्शन दिए तथा पुनः सरोवर में अन्तर्धान हो गयी।

सरोवर पांडवों ने सरोवर से बूढ़ी नागिन का विग्रह निकालकर उसे सरोवर के निकट स्थापित किया। सरोवर के तट पर उनके लिए एक मंदिर का निर्माण किया। कालांतर में इस मंदिर के नवीनीकरण के चार आवर्तन हुए। मंदिर की वर्तमान संरचना चौथे नवीनीकरण का परिणाम है।

बूढ़ी नागिन मंदिर में शुद्ध घी का अर्पण

मंडी एवं कुल्लू क्षेत्रों के सभी नाग देवताओं की माता, बूढ़ी नागिन को गायों से अत्यंत प्रेम था। इसलिए भक्तगण जब भी बूढ़ी नागिन के दर्शन के लिए उनके मंदिर जाते हैं तब अपने संग उनके लिए गाय के दूध का घी भी ले जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि यदि आप इस मंदिर में घी का अर्पण करें तो वह घी सीधे सरोवर के मध्य पहुँच जाता है जहाँ बूढ़ी नागिन निवास करती हैं।

प्राचीन बूढी नागिन मंदिर
प्राचीन बूढी नागिन मंदिर

भक्तगण मंदिर में कई किलोग्राम घी का अर्पण करते हैं। प्रत्येक वर्ष, विशेष अवसरों पर इस क्षेत्र के सभी नाग बूढ़ी नागिन से भेंट करने यहाँ अवश्य आते हैं। इन विशेष अवसरों की घोषणा यहाँ के स्थानीय पुरोहित करते हैं।

शीत ऋतु में भीषण हिमपात के कारण यह मंदिर बंद रहता है।

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सेरोलसर सरोवर के गूढ़ रहस्य

सेरोलसर सरोवर की गहराई किसी को ज्ञात नहीं है।

सेरोलसर सरोवर से संबंधित एक अन्य रहस्यमयी कथा भी है। एक समय एक ब्राह्मण अपने परिवार के संग सरोवर के आसपास पदभ्रमण कर रहा था। अकस्मात ही वह फिसल कर सरोवर में गिर गया। उसके परिवार के सदस्यों ने उसे बचाने के अनेक प्रयत्न किये किन्तु वे असफल रहे। उन्हे ब्राह्मण के बिना ही लौटना पड़ा। महद आश्चर्य कि तीन वर्षों पश्चात वह ब्राह्मण सरोवर से पुनः अपने निवास लौट आया। बूढ़ी नागिन ने उसे शपथबद्ध किया था कि वह उनके विषय में किसी से नहीं कहेगा।

ब्राह्मण के परिवारजन उनसे अनवरत प्रश्न करते रहे, ‘तुम कहाँ गये थे?’, ‘तुम बचे कैसे?’, ‘तुम्हें किसने बचाया?’ आदि। अंत में ब्राह्मण के धैर्य का बांध टूट गया तथा उसने सम्पूर्ण वृत्तान्त का बखान कर दिया। उसने बताया कि जैसे ही वह सरोवर में गिरा, वह सीधे सरोवर के तल में जा पहुँचा। वहाँ बूढ़ी नागिन ने उसकी रक्षा की। उसने यह भी जानकारी दी कि सरोवर के तल पर बूढ़ी नागिन अपने स्वर्ण महल में निवास करती है। यह भी बताया कि उसने वहाँ दूध के अनेक पात्र देखे। बूढ़ी नागिन वहाँ दही भी बिलोती है।

जैसे ही ब्राह्मण के मुख से इस घटना का सत्य प्रकट हुआ, उसकी मृत्यु हो गयी। इसके पश्चात सरोवर पर गाँववासियों का ताँता लग गया। सभी गाँववासियों को कुछ ना कुछ रहस्यमयी एवं भीतिदायक अनुभव हुए। इससे ऐसा निष्कर्ष निकाला गया कि कदाचित बूढ़ी नागिन इस सरोवर को मानवी क्रियाकलापों से अछूता रखना चाहती हैं। कदाचित वे इस सरोवर को अनवरत स्वच्छ रखना चाहती हैं। मैंने देखा कि वास्तव में यह सरोवर अत्यंत स्वच्छ है। मैंने एक पत्ता भी सरोवर के जल में नहीं देखा।

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जालोरी दर्रा

करसोग का सुकेत क्षेत्र कुल्लू जिले में बंजर घाटी के जालोरी दर्रे से लगा हुआ है। कुल्लू एवं शिमला जिलों को जोड़ते अनेक दर्रों में से जालोरी भी एक मुख्य दर्रा है। इस दर्रे की रचना शिमला से कुल्लू जाने के लिए अंग्रेजों ने की थी। यह दर्रा कुल्लू जिले में स्थित है।

जलोरी दर्रा समुद्र तल से लगभग २००० मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। भीषण हिमपात के कारण शीत ऋतु में यह दर्रा बंद रहता है। कुल्लू जिले में स्थित बंजर घाटी एक सुंदर पर्यटन स्थल भी है जो अपारंपरिक पर्यटकों में अत्यंत लोकप्रिय है।

कुल्लू जिला तीन प्रमुख घाटियों में विभाजित है, तीर्थन, बंजर एवं सैंज घाटी। जालोरी दर्रा एक सुंदर मार्ग है जो एक ओर जीभी गाँव की ओर जाता है तो दूसरी ओर अन्नी गाँव जाता है। यह देवदार के सघन मनमोहक वन से घिरा हुआ है।

जालोरी दर्रे के दूसरी ओर स्थित कुल्लू का अन्नी क्षेत्र भी लोकप्रिय पर्यटन स्थल है। यह सेब के उद्यानों के लिए प्रसिद्ध है। सेबों की फसल आने पर यह क्षेत्र अत्यंत मनमोहक व आकर्षक हो जाता है। आप यहाँ सेबों को सीधे वृक्षों से तोड़कर खाने का भी आनंद ले सकते हैं।

सेरोलसर सरोवर तक रोमांचक पदयात्रा

क्या आप अपने दैनंदिनी नगरी दिनचर्या से उकता गये हैं? आपके लिए सर्वोत्तम आनंद होगा, प्रकृति से जुड़ना। इसीलिए मेरा आग्रह  है कि आप हिमाचल के पर्वतीय क्षेत्रों में पदभ्रमण करें तथा स्वच्छ पर्यावरण का आनंद उठायें। जालोरी दर्रे में स्थित सेरोलसर सरोवर तक ५ किलोमीटर की पदयात्रा एक नितांत रोमांचक तथा आनंददायी अनुभव है।

यह एक सरल पदयात्रा है। देवदार तथा वटवृक्षों से आच्छादित वनों के मध्य से प्रगत यह एक सीधा मार्ग है जिस पर चलकर आप सरोवर तक पहुँचते हैं। चारों ओर स्थित सुंदर पर्वत एवं उनके मध्य होते सूर्यास्त के अप्रतिम दृश्य आपको आनंदविभोर कर देंगे।

प्रत्येक ऋतु में यह मार्ग भिन्न भिन्न आनंद प्रदान करता है। विशेषतः ग्रीष्म ऋतु में यह मार्ग विविध रंगों से परिपूर्ण होता है। वृक्षों के तने चटक रंगों के सेवार से ढँक जाते हैं। आप यहाँ दुर्लभ प्रजातियों के पुष्प, वनस्पतियाँ, औषधियों के पौधे व वृक्ष आदि देख सकते हैं। ऊँचे ऊँचे देवदार के वृक्ष मंत्रमुग्ध कर देते हैं।

यात्रा सुझाव

  • जालोरी दर्रे के निकट आश्रय के लिए अनेक होमस्टे अथवा घर हैं जो न्यूनतम शुल्क पर उपलब्ध होते हैं। जलोरी दर्रे के मैदानी क्षेत्रों में तंबू-निवासों की सुविधाएं भी उपलब्ध हैं।
  • जालोरी दर्रा शिमला से कुल्लू जाते मार्ग पर स्थित है। यहाँ सड़क मार्ग द्वारा सुगमता से पहुँचा जा सकता है।
  • सेरोलसर सरोवर की यात्रा करने के लिए वसंत ऋतु तथा ग्रीष्म ऋतु सर्वोत्तम हैं।
  • सेरोलसर सरोवर तक रोमांचक पदयात्रा कुल ५ किलोमीटर की है।
  • पदयात्रा का स्तर ‘सरल’ श्रेणी के अंतर्गत है।
  • शिमला से जलोरी दर्रे की दूरी लगभग १५८ किलोमीटर है जिसके लिए सड़क मार्ग द्वारा चौपहिया वाहन से सामान्यतः ५ घंटे लगते हैं।
  • जालोरी दर्रे से निकटतम गाँव जीभी है जो १२ किलोमीटर दूर स्थित है।

IndiTales Internship Program के अंतर्गत यह यात्रा संस्करण पल्लवी ठाकुर ने लिखा है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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महाभारत कथाओं में क्रोध एवं क्षमा के प्रसंग https://www.inditales.com/hindi/mahabharat-kab-krodh-karen-kab-kshama/ https://www.inditales.com/hindi/mahabharat-kab-krodh-karen-kab-kshama/#respond Wed, 04 Dec 2024 02:30:15 +0000 https://www.inditales.com/hindi/?p=3727

यदि आप मुझसे प्रश्न करें कि क्रोध एवं क्षमा में श्रेष्ठ क्या है, मुझे विश्वास है कि आप भी अधिकांश प्रसंगों में क्षमा का ही चुनाव करेंगे। हमें शिक्षा भी ऐसी ही दी गयी है। चूक करना मानवी स्वभाव है लेकिन क्षमा कर पाना एक दैवी उपलब्धि है। क्रोध एवं क्षमा – श्रेष्ठ क्या है? […]

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यदि आप मुझसे प्रश्न करें कि क्रोध एवं क्षमा में श्रेष्ठ क्या है, मुझे विश्वास है कि आप भी अधिकांश प्रसंगों में क्षमा का ही चुनाव करेंगे। हमें शिक्षा भी ऐसी ही दी गयी है। चूक करना मानवी स्वभाव है लेकिन क्षमा कर पाना एक दैवी उपलब्धि है।

क्रोध एवं क्षमा – श्रेष्ठ क्या है?

महाभारत के तीसरे भाग में, अर्थात वन पर्व में कौरवों ने पांडवों को द्यूत क्रीडा में परास्त किया था तथा उन्हे पूर्वनिश्चित नियमों के अनुसार १२ वर्षों तक वन गमन का दंड दिया गया था।

वन तक उनके साथ सहगमन करते तथा वन में उनसे भेंट के लिए आए कृष्ण व दृष्टद्युम्न जैसे परिजनों, मित्रों एवं नागरिकों को वापिस नगर में लौटने की विनती कर सभी पांडव भ्राता एक सरोवर के निकट स्थाई हो गए। द्वैतवन नामक इस सुंदर सरोवर के चारों ओर पुष्पों एवं फलों के वृक्ष थे।

सरोवर के निकट बसेरा स्थापित करने के पश्चात द्रौपदी के ध्यान में आया कि इतने दुर्भाग्यपूर्ण प्रसंग के पश्चात भी युधिष्ठिर अत्यंत शांत हैं। उन्हे ऐसा प्रतीत हुआ कि युधिष्ठिर अपने साथ हुए अन्याय को विस्मृत कर चुके हैं तथा दोषियों को क्षमा कर दिए हैं।

द्रौपदी युधिष्ठिर के निकट बैठकर उन्हे अपने साथ हुए अन्यायपूर्ण व्यवहार का स्मरण कराती हैं। उनका ध्यान इस ओर आकर्षित करती हैं कि किस प्रकार कौरवों ने उनका एवं उनके चारों भ्राताओं का अपमान किया था। उन्होंने एक सुंदर कविता की रचना की जिसमें वे प्रत्येक पांडव के निरादर का उल्लेख करती हैं तथा उनके वर्तमान परिस्थिति का वर्णन करती हुई युधिष्ठिर से प्रश्न करती हैं कि इस सम्पूर्ण परिस्थिति में उन्हे क्रोध क्यों नहीं आ रहा है?

अंत में वे युधिष्ठिर को कौरवों द्वारा उनके स्वयं के मानमर्दन का स्मरण करती हैं तथा पुनः उनसे प्रश्न करती हैं कि यह सब उन्हे क्रोधित क्यों नहीं कर रहा है?

द्रौपदी युधिष्ठिर का ध्यान इस ओर भी आकर्षित करती हैं कि हस्तिनापुर से उनके निष्कासन के समय सभी परिजनों, मित्रों एवं नागरिकों के नयन अश्रुपूर्ण थे, लेकिन दुर्योधन, कर्ण, शकुनि एवं दुशासन, इन चारों के नयन अश्रुरहित थे।

तत्पश्चात, अपना पक्ष स्पष्ट करने के लिए द्रौपदी प्रह्लाद एवं उनके पोते बलि के मध्य हुए संवाद का वर्णन करती हैं।

प्रह्लाद एवं बलि के मध्य क्रोध एवं क्षमा विषय पर संवाद

एक समय असुरों के राजा बलि ने अपने दादा प्रह्लाद से प्रश्न किया कि कठोरता एवं क्षमा में श्रेष्ठ क्या है?

प्रह्लाद ने उत्तर दिया कि इनमें से कोई भी दूसरे से श्रेष्ठ नहीं है। एक ज्ञानी व्यक्ति ने काल एवं परिस्थिति के अनुसार उनका प्रयोग करना चाहिए।

यदि कोई दोषी सुगमता से क्षमा प्राप्त कर लेता है तो उसके सुधार की संभावना कम हो जाती है। यदि आपने किसी दोषी को आसानी से क्षमा कर दिया तो वह ना आपका, ना ही उस विषय का महत्व जान पाएगा। किसी को अतिशीघ्र क्षमा करने का स्वभाव होने पर एक भय यह भी होता है कि आपके अपने परिजन, आपके शत्रु एवं सामान्य जन आपका महत्व ना समझें तथा आपका यथोचित सम्मान ना करें।

जिन  व्यक्तियों का स्वभाव सदा ही क्षमाशील होता है, लोग उनके प्रति विनयी नहीं होते। अतः एक ज्ञानी व्यक्ति वही है जो सदा ही क्षमाशील नहीं होता। काल एवं परिस्थिति के अनुसार दोषी को दंड भी देना चाहिए।

आपका सेवक, कर्मचारी अथवा अधीनस्थ, प्रदत्त नियमों का पालन ना कर अपनी मनमानी कर सकता है क्योंकि वह जानता है कि आप अत्यंत क्षमाशील हैं। उसे तुरंत क्षमा कर देंगे। आगे जाकर वे अपराध कर सकते हैं। स्वयं के लाभ के लिए आपकी वस्तुओं का दुरुपयोग कर सकते हैं। आपकी अवमानना एवं अपमान कर सकते हैं।

अपने सेवक के द्वारा अपमानित होना मृत्यु से भी अधिक निकृष्ट माना जाता है।

आपकी क्षमाशीलता एवं मृदु स्वभाव देखकर आपके स्वयं के परिजन आपकी संपत्ति हथियाने का प्रयास कर सकते हैं। आपके सेवक, आपके पुत्र, आप पर निर्भर व्यक्ति, यहाँ तक कि असंबद्ध लोग भी कटु वचनों द्वारा आपकी आलोचना कर सकते हैं। आपकी अपनी ग्रहस्थी आपके नियंत्रण से बाहर जा सकती है।

दूसरी ओर, यदि आप प्रत्येक परिस्थिति का सामना क्रोध से करते हैं तो उसका प्रतिप्रभाव यह हो सकता है कि आप अविचारी होकर किसी निर्दोष व्यक्ति को दंड दे दें।

एक क्रोधी व्यक्ति के अनेक शत्रु होते हैं। उसका क्रोधपूर्ण स्वभाव उसके अपने भीतर तथा सामने वाले के भीतर शीघ्र ही शत्रुत्व उत्पन्न कर देता है। उसके अपने परिजनों के मन में तथा सर्व सामान्य लोग, जिनसे उसका निरंतर सामना होता है, उनके मन में भी उसके प्रति कुंठा अथवा कुढ़न उत्पन्न हो सकती है।

एक क्रोधी व्यक्ति, अपने स्वभाव के कारण, जाने-अनजाने दूसरों का अपमान कर बैठता है। इस प्रक्रिया में अपना सम्मान खो देता है। किसी अपमानित व्यक्ति की अवांछित प्रतिक्रिया के चलते उसकी संपत्ति भी नष्ट हो सकती है।

किसी पर अत्यधिक क्रोध करने तथा उसे अविचारपूर्ण दंडित करने के स्वभाव के कारण आपकी समृद्धि, आपका स्वास्थ्य तथा आपका परिवार आपसे रुष्ट हो सकते हैं।

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अतः एक संतुलित व्यवहार सदा ही उत्तम होता है। सदा क्रोध करना तथा सदा क्षमा कर देना, दोनों की अनुशंसा नहीं की जा सकती। दोनों ही आपको समान रूप से संकट में डाल सकते हैं। किसी भी प्रसंग में आप अपनी प्रतिक्रिया परिस्थिति, काल एवं स्थान के अनुसार विचारपूर्वक निश्चित करें। जो व्यक्ति माँग के अनुरूप अपना व्यवहार अतिमृदु से अतिकठोर के मध्य सुगमता से दोलित कर सकता है, वही विश्व विजेता होता है।

कब क्षमा करें?

  • यदि किसी व्यक्ति ने भूतकाल में आपके प्रति दयालुता से व्यवहार किया हो तो उसके दोष को क्षमा किया जा सकता है। यह उसकी भद्रता की ओर आपकी मृदु प्रतिक्रिया होगी।
  • यदि कोई व्यक्ति अनजाने में भूल करता है तो उसे क्षमा कर देना चाहिए। कोई भी व्यक्ति सभी परिस्थितियों में बुद्धि का सदुपयोग नहीं कर पाता है। भूल करना मानवी स्वभाव है। किन्तु उसने यह भूल अथवा अपराध अनजाने में की है, यह निश्चित हो जाना चाहिए। इसके लिए आप पर्याप्त संशोधन करें तथा विवेकपूर्ण निर्णय लें।
  • यदि कोई व्यक्ति अभिप्रायपूर्वक अपराध करता है तथा ढोंग करता है कि उससे अजनाने में अपराध हो गया है तो ऐसे व्यक्ति को दंड अवश्य देना चाहिए। ऐसी परिस्थिति में छोटे से छोटा अपराध भी अक्षम्य है।
  • किसी भी व्यक्ति की प्रथम भूल को क्षमा करना उचित होगा। किन्तु, यदि वह अपनी भूल की पुनः पुनः पुनरावृत्ति करता है तो वह कदापि क्षमाप्रार्थी नहीं हो सकता।
  • मृदु व्यवहार साधारणतया शत्रुत्व पर विजय प्राप्त करता है। अतः जब तक संभव हो, मृदु व्यवहार करें।
  • दंड दें अथवा क्षमा करें, यह निर्णय लेने से पूर्व अवस्थिति, काल एवं पारस्परिक सापेक्ष शक्ति का स्पष्ट आकलन कर लें। यदा-कदा समक्ष स्थित व्यक्ति की शत्रुता को निमंत्रण ना देने के लिए तथा उसको प्रसन्न करने के लिए उसे क्षमा करना पड़ता है।

ऐसे अनेक अवसर होते हैं जहाँ क्षमा करना उत्तम सिद्ध होता है। अन्य सभी परिस्थितियों में कठोर व्यवहार उचित होता है।

अंत में द्रौपदी युधिष्ठिर से कहती हैं कि कौरवों ने लालच एवं असम्मानजनक व्यवहार की सीमा पार कर दी है। अब समय आ गया है कि उन्हे उनके व्यवहार के लिए कठोर दंड दिया जाना चाहिए। उन्हे क्षमा करने का कोई भी कारण नहीं है।

इस विषय पर द्रौपदी एवं युधिष्ठिर के मध्य हुए संवादों में क्षमा के गुण-धर्म, कर्म की आवश्यकता आदि पर अनेक चर्चाएँ हुईं। उनके विषय में हम किसी अन्य अवसर पर चर्चा करेंगे।

स्रोत – अध्याय २८, वन पर्व, महाभारत। (गीत प्रेस द्वारा प्रकाशित)

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अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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कॉलरवाली बाघिन – पेंच राष्ट्रीय उद्यान की रानी https://www.inditales.com/hindi/collarwali-baghin-pench-rashtriya-udyan/ https://www.inditales.com/hindi/collarwali-baghin-pench-rashtriya-udyan/#comments Wed, 27 Nov 2024 02:30:29 +0000 https://www.inditales.com/hindi/?p=3723

मध्य भारत के सघन वनों में बाघों का साम्राज्य है। वे अपने मनोहारी रूप द्वारा पर्यटकों का मन मोह लेते हैं। यूँ तो पर्यटकों को उनके साम्राज्य में उन्मुक्त विचरण करने की स्वतंत्रता नहीं है, किन्तु वे पर्यटकों के लिए निर्दिष्ट मार्गों पर स्वयं आकर उन्हें अनुग्रहित करते हैं। उनका चित्ताकर्षक मनमोहक रूप हमें इस […]

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मध्य भारत के सघन वनों में बाघों का साम्राज्य है। वे अपने मनोहारी रूप द्वारा पर्यटकों का मन मोह लेते हैं। यूँ तो पर्यटकों को उनके साम्राज्य में उन्मुक्त विचरण करने की स्वतंत्रता नहीं है, किन्तु वे पर्यटकों के लिए निर्दिष्ट मार्गों पर स्वयं आकर उन्हें अनुग्रहित करते हैं। उनका चित्ताकर्षक मनमोहक रूप हमें इस प्रकार सम्मोहित कर देता है कि हम उनके पुनः पुनः दर्शन करने के लिए आतुर हो जाते हैं। जैसे कान्हा का लोकप्रिय मुन्ना बाघ। बांधवगढ़ में भी बाघों के दर्शन की पक्की संभावना रहती है।

बाघ एक स्वच्छंद वन्यप्राणी है। वह हमें दर्शन दे अथवा नहीं, यह पूर्णतः उसकी इच्छा पर निर्भर करता है। कुछ सफारी भ्रमणों में हमें इनके दर्शन नहीं हो पाते हैं। बांधवगढ़ में मेरा ऐसा ही अनुभव रहा था। बाघ मुझसे लुका-छिपी का खेल खेलते रहे। किन्तु निराश होने के स्थान पर मैंने जंगल को निहारने का निश्चय किया तथा उसके अन्य आयामों को अनुभव किया। विविध प्रकार के वृक्षों एवं वन्य प्राणियों के दर्शनों का आनंद उठाया। जंगल के भीतर स्थित बांधवगढ़ का दुर्ग भी मेरे लिए एक आश्चर्यजनक खोज थी। मेरा सुझाव है कि आप जंगल में एक से अधिक सफारी भ्रमण करने का प्रयास करें जिससे बाघों के दर्शन की संभावना बढ़ जाती है तथा आप जंगल के अन्य आकर्षणों का भी अनुभव प्राप्त कर सकते हैं।

पेंच राष्ट्रीय उद्यान में बाघ दर्शन की तीव्र अभिलाषा होते हुए भी मैंने अपने मन की पूर्व तैयारी कर रखी थी कि कदाचित यहाँ भी बाघ मुझ से लुका-छिपी खेलें। किन्तु संभवतः वे मेरी व्याकुलता को भांप गए तथा उन्होंने मुझे मन भर कर दर्शन देने का निश्चय किया। सोने पर सुहागा! मेरे समक्ष पेंच राष्ट्रीय उद्यान की सर्वाधिक लोकप्रिय कॉलरवाली बाघिन अपने शावकों के साथ गर्व से विचरण कर रही थी।

कॉलरवाली बाघिन - पेंच राष्ट्रीय उद्यान
कॉलरवाली बाघिन – पेंच राष्ट्रीय उद्यान

कॉलरवाली बाघिन एवं उसके शावकों ने हमारे सफारी भ्रमण मार्ग को अनेक बार पार किया। प्रचुर दर्शनों से उन्होंने मुझे अभिभूत कर दिया था। मुझमें साहस होता व उसकी अनुमति होती तो मैं उनके समीप जाकर उन्हें गले से लगा लेती तथा अपनी कृतज्ञता व्यक्त करती। किन्तु उन्हें दूर से ही धन्यवाद कहना उचित है तथा मैंने वही किया।

कॉलरवाली बाघिन की वंशावली

कॉलरवाली बाघिन का नाम ऐसा इसलिए पड़ा क्योंकि सन् २००८ में उसके गले में रेडियो कॉलर या अनुवर्तन पट्टा डाला हुआ है। बाघिन के गले में यह पट्टा तब डाला गया था जब वह स्वयं एक शावक थी। इस पट्टे के द्वारा उसके अनुगमन पर दृष्टि रखी जाती थी। अब यह पट्टा दीर्घकाल से निर्जीव हो चुका है किन्तु वह अब भी बाघिन के गले में लटका हुआ है। यहाँ तक कि यह पट्टा उसकी पहचान बन चुका है।

कालरवाली बाघिन अपने शिशुओं के साथ
कालरवाली बाघिन अपने शिशुओं के साथ

कॉलरवाली बाघिन जन्म सन् २००५ में हुआ था। वह एक काल में लोकप्रिय बाघिन, ‘बड़ी माता’ की पुत्री है। उसके पिता को टी-१ तथा पेंच का चार्जर कहा जाता था। कॉलरवाली बाघिन ने अपनी माता के क्षेत्र के एक बड़े भाग पर अपना अधिपत्य स्थापित किया था। बी बी सी के प्रसिद्ध वृत्तचित्र “Spy in the Jungle’ में इसी बाघिन की जीवनी को प्रदर्शित किया गया है। यह वृत्तचित्र सम्पूर्ण विश्व में अत्यंत लोकप्रिय भी हुआ था।

कॉलरवाली बाघिन को माताराम के नाम से भी जाना जाता है। वनीय नामकरण पद्धति के अनुसार उसे टी-१५ कहते हैं।

मैं कॉलरवाली बाघिन को पेंच के जंगलों की रानी माँ कहती हूँ क्योंकि उसने अब तक २९ बाघ शावकों को सफलतापूर्वक जन्म दिया है। सन् २००८ में उसके प्रथम शावक का जन्म हुआ था। इस संस्करण के विडियो में प्रदर्शित शावकों का जन्म सन् २०१५ में हुआ था जिसके एक वर्ष पश्चात मैंने पेंच राष्ट्रीय उद्यान में उनके दर्शन किये थे। ये उसके छठें प्रसव की संतानें हैं। तब तक उसकी २२ संतानें हो चुकी थीं।

भारत में बाघों की संख्या में वृद्धि करने के लिए अनेक संस्थाएं एवं स्वयंसेवक अनवरत कार्य कर रहे हैं। उनके लिए कॉलरवाली बाघिन एक वरदान सिद्ध हुई है। वन संरक्षक अधिकारियों के अनुसार २९ शावकों को जन्म देना स्वयं में एक कीर्तिमान है। शीघ्र ही पेंच के जंगलों में उसके शावकों का राज होगा। तो अब आप बताइये, क्या कॉलरवाली बाघिन को पेंच राष्ट्रीय उद्यान की ‘रानी माँ’ कहना अतिशयोक्ति है?

पेंच की कॉलरवाली बाघिन से भेंट

पेंच का सर्वोत्तम आकर्षण कॉलरवाली बाघिन का दर्शन है। वो अपने शावकों के साथ आनंद से पर्यटकों को अपने दर्शन देती है। राष्ट्रीय उद्यान में प्रवेश करते ही वहाँ के अधिकृत गाइड अथवा परिदर्शक हमें उस समय की उसकी गतिविधियों की जानकारी देने लगते हैं। मैंने अनेक राष्ट्रीय उद्यानों में भ्रमण किया है तथा वहाँ अनेक सफारी भी की है। सामान्यतः सभी परिदर्शकों की यही शैली होती है। कदाचित वे पर्यटकों की उत्सुकता व अपेक्षाओं को चरम सीमा तक ले जाना चाहते हैं ताकि बाघिन दर्शन ना दे, तब भी हमें उसकी उपस्थिति का रोमांचक अनुभव प्राप्त होता रहे।

हमारे लॉज से आये सभी पर्यटक आश्वस्त थे कि कॉलरवाली बाघिन के दर्शन की संभावना अत्यधिक है। जून का मास चल रहा था। तपती गर्मी में तृष्णा उन्हें जल स्त्रोत तक खींच ही लायेगी, इसलिए हमने सर्वप्रथम उसे जल स्त्रोतों के समीप ही ढूँढना आरम्भ किया।

प्रसिद्ध बाघिन माँ की पुत्री के दर्शन

पेंच राष्ट्रीय उद्यान में उस दिन हमारा भाग्य उन्नत था। हमारी सभी आकांक्षाएँ पूर्ण होने को थीं। कुछ ही क्षणों में हमने देखा कि एक बाघिन एक छोटे से जलाशय की ओर चली जा रही थी। झाड़ियों के झुरमुट के पीछे से पीली पट्टियाँ आगे बढ़ती हुई हमसे आँख मिचौली खेलने लगी। ऊँची-नीची भूमि पर मार्ग खोजती हुई वह जलाशय तक पहुँची। उसने जल में प्रवेश किया तथा वहीं बैठ गयी। वह जल की शीतलता का आनंद उठा रही थी।

जून की तपती सूखी उष्णता में मुझे भी उसके साथ शीतल जल का आनंद उठाने की इच्छा होने लगी थी। वह बाघिन माँ नहीं थी, अपितु उसकी एक वर्ष की आयु की पुत्री थी। जल में कुछ क्षण शीतल होने के पश्चात उसने वन में भ्रमण करने का निश्चय किया। जाते हुए उसने हम पर्यटकों की जीपों के सामने से हमारे मार्ग को पार किया। श्वास रोक कर, स्तब्ध होकर हम उसे देखते रहे। मार्ग के एक ओर से वन से बाहर आकर उसने हमारा मार्ग पार किया तथा मार्ग के दूसरी ओर वन के भीतर प्रवेश कर गयी।

कॉलरवाली बाघिन माँ के प्रथम दर्शन

कुछ क्षणों पश्चात बाघिन माँ हमारे समक्ष प्रकट हो गयी। वह भी उसी मार्ग पर चल रही थी जिस पर कुछ क्षणों पूर्ण उसकी बिटिया गयी थी। ठीक उसी प्रकार जैसे अपने बच्चों के पीछे माँएं दौड़ती हैं। वह भी जलाशय की ओर गयी, जल पिया तथा जल के समीप कुछ क्षण बैठ गयी मानो जल में स्वयं को निहारते कुछ क्षण व्यतीत करना चाहती हो। मैं जल में उसका प्रतिबिम्ब देखना चाहती थी तथा उसके प्रतिबिम्ब के साथ उसका चित्र लेना चाहती थी। किन्तु उसके व हमारे बीच की दूरी तथा प्रतिकूल दिशा होने के कारण वह संभव नहीं हो पाया। कुछ क्षण शान्ति से बैठी माँ को निहारना अत्यंत सुखद था। अचानक जैसे उस माँ को अपनी बिटिया का ध्यान आ गया हो, वह उठी तथा बिटिया की दिशा में आगे बढ़ गयी। कुछ समय के उपरांत माँ व बेटी दोनों साथ साथ चलने लगे।

बाघिन माँ का आकार उस मुन्ना बाघ की तुलना में छोटा था जिसे मैंने गत वर्ष कान्हा राष्ट्रीय उद्यान में देखा था। मेरे परिदर्शक ने बताया कि बाघ व बाघिन के आकारों में भिन्नता अत्यंत सामान्य है।

हम सब के मुखड़ों पर प्रसन्नता व संतोष का भाव स्पष्ट उमड़ रहा था, मानो पेंच यात्रा का समूचा उद्देश्य पूर्ण हो गया हो।

दूसरी भेंट

दूसरे दिवस प्रातः शीघ्र ही हमने राष्ट्रीय उद्यान में प्रवेश किया। हमने वन के अन्य विभिन्न आकर्षणों का अवलोकन करने का निश्चय किया। मुझे विशेषतः विविध पक्षियों को देखने की अभिलाषा थी। वन में सफारी भ्रमण करते समय मार्ग में हमने हिरणों को अठखेलियाँ करते देखा। सांभर के झुण्ड को घास चरते देखा। विभिन्न पक्षियों के दर्शन एवं उनकी चहचहाहट के स्वरों ने हमें आनंद से भर दिया। उन पक्षियों की कथा किसी अन्य दिवस सुनाऊँगी।

हम जैसे ही एक चौरस्ते पर पहुंचे, हमने देखा कि पर्यटकों की ५-६ जीपें एक पंक्ति में शांत खड़ी हैं। एक दिशा में मुड़े उन सबके कैमरों ने हमें भी उस दिशा में देखने के लिए बाध्य कर दिया। बाघिन माँ अपने दो शावकों के साथ शान से जा रही थी। शावकों में एक वही बिटिया थी जिसे हमने गत संध्या को देखा था। दूसरा शावक उसी आयु का उसका पुत्र था।

लजीला पुत्र

हमारे सफारी गाइड ने हमें बताया कि कॉलरवाली बाघिन का पुत्र किंचित संकोची है। वह मानवों से दूर ही रहना चाहता है। वहीं माँ एवं पुत्री वन में पर्यटकों की उपस्थिति से सहज हैं। वे पर्यटकों एवं उनके सफारी वाहनों को देखकर अपना मार्ग परिवर्तित नहीं करतीं। उनकी यह सहजता राष्ट्रीय उद्यान पर्यटन अर्थव्यवस्था के लिए वरदान है। मानो वे इस तथ्य को समझती हैं तथा हमारी सहायता कर रही हैं। वे अत्यंत सहजता से मार्ग पर प्रकट हो जाती हैं, आपस में क्रीड़ा करती हैं ताकि उनके प्रकट होने पर जितने लोग भी निर्भर हैं, उनकी जीविका चलती रहे। जी हाँ, एक ओर जहाँ बाघ पुत्र सफारी जीपों से दूर रहकर लंबा मार्ग अपना रहा था, वहीं बाघिन माँ एवं उसकी पुत्री निडर होकर जीपों के मध्य से शान से जा रही थीं।

बाघिन एवं उसके दोनों शावक मार्ग के एक ओर वन में विचरण करते रहे तथा हमारी दृष्टि व हमारी जीपें वन की शान्ति भंग किये बिना उनका पीछा करती रहीं। वन में शांतता पालना अत्यावश्यक होता है तथा हम उसका पालन भी कर रहे थे। वन के भीतर हमें सदा वन्य प्राणियों एवं उनकी आवश्यकताओं का आदर करना चाहिए। मार्ग में अनेक स्थानों पर हमारा उनसे सामना हुआ। अंततः वे पेंच नदी को पार कर एक शिला पर बैठ गए। जून मास की गर्मी में नदी में जल की मात्रा कम थी। नदी के तल पर स्थित शिलाखंडों के मध्य से मार्ग निकालते हुए वे अपने प्रिय शिलाखंड पर पहुंचे तथा उस पर चढ़कर बैठ गए। अब उनसे विदा लेने का भी समय आ गया था।

बाघिन माँ एवं उसके दोनों शावकों ने हमें उदार दर्शन दिए थे जिसने हमें अभिभूत कर दिया था। लॉज पहुँचने तक रोमांच से हम सब स्तब्ध थे।

पेंच में किया गया रानी बाघिन एवं उसके दोनों शावकों के अद्भुत रूप का दर्शन मेरे स्मृतियों में सदा के लिए रच-बस गया है। मैं जानती हूँ कि पेंच का यह बाघ सफारी मेरे लिए दीर्घ काल तक एक सर्वोत्तम सफारी रहेगा।

कॉलरवाली बाघिन का विडियो देखें

प्रसिद्ध बाघिन माँ को अपने शावकों के साथ स्वच्छंद विचरण करते हुए इस विडियो में देखें।

कॉलरवाली बाघिन का दूसरा विडियो

कॉलरवाली बाघिन की मृत्यु

मैं अत्यंत दुःख के साथ आपको यह जानकारी दे रही हूँ कि पेंच की रानी, माताराम, कॉलरवाली बाघिन आदि नामों से सुप्रसिद्ध टी-१५ बाघिन ने १५ जनवरी २०२२ को संध्या ६.१५ बजे अपना अंतिम श्वास लिया। लगभग साढ़े सोलह वर्ष की आयु पूर्ण कर चुकी बाघिन माँ की मृत्यु वृद्धावस्था के कारण हुई। २९ शावकों को जन्म देने का कीर्तिमान स्थापित करने वाली बाघिन माँ की मृत्यु वन विभाग एवं वन्य प्राणी प्रेमियों के लिए अपूर्णीय क्षति है। सुपर टाईग्रेस मॉम के नाम से भी लोकप्रिय कॉलरवाली बाघिन ने पेंच राष्ट्रीय उद्यान का नाम सम्पूर्ण विश्व में प्रसिद्ध कर दिया है।

रविवार १६ जनवरी को पेंच राष्ट्रीय उद्यान में ही उसका अंतिम संस्कार किया गया. पेंच की रानी को हम सब की ओर से भावपूर्ण श्रद्धांजलि!

भारत के विभिन्न राष्ट्रीय उद्यानों एवं वन्यजीव अभयारण्यों में भ्रमण पर मेरे ये यात्रा संस्मरण अवश्य पढ़ें

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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कुमाऊँ उत्तराखंड के लोकप्रिय स्वादिष्ट व्यंजन https://www.inditales.com/hindi/kumaoon-uttarakhand-ke-lokpriya-vyanjan/ https://www.inditales.com/hindi/kumaoon-uttarakhand-ke-lokpriya-vyanjan/#respond Wed, 20 Nov 2024 02:30:30 +0000 https://www.inditales.com/hindi/?p=3719

उत्तराखंड राज्य अनेक प्रसिद्ध देवालयों से विभूषित होने के कारण गर्व से देवभूमि भी कहलाता है। उत्तराखंड की भूमि एवं उसके मंदिरों का समृद्ध इतिहास है। साथ ही मनोरम चित्ताकर्षक प्रकृति के कारण यह सर्वाधिक लोकप्रिय पर्यटन स्थल भी है। उत्तराखंड के दो प्रमुख विभाग हैं, कुमाऊँ तथा गढ़वाल। राज्य के पूर्व में पसरे भूभाग […]

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उत्तराखंड राज्य अनेक प्रसिद्ध देवालयों से विभूषित होने के कारण गर्व से देवभूमि भी कहलाता है। उत्तराखंड की भूमि एवं उसके मंदिरों का समृद्ध इतिहास है। साथ ही मनोरम चित्ताकर्षक प्रकृति के कारण यह सर्वाधिक लोकप्रिय पर्यटन स्थल भी है। उत्तराखंड के दो प्रमुख विभाग हैं, कुमाऊँ तथा गढ़वाल। राज्य के पूर्व में पसरे भूभाग को कुमाऊँ कहा जाता है जिसके अंतर्गत अनेक नयनाभिराम क्षेत्र हैं। उनमें कुछ लोकप्रिय क्षेत्र हैं, नैनीताल, रानीखेत, अल्मोढ़ा, पिथोरागढ़, जागेश्वर, मुक्तेश्वर, मुन्सियारी आदि। वहीं उत्तराखंड के पश्चिमी क्षेत्र को गढ़वाल कहते हैं। इसके अंतर्गत देहरादून, हरिद्वार, ऋषिकेश, चार धाम, चमोली जैसे लोकप्रिय एवं महत्वपूर्ण क्षेत्र आते हैं।

उत्तराखंड के दोनों भागों में अनेक आयामों में भिन्नता है। उनके इतिहास, परिदृश्य, परम्पराएं, संस्कृति, सामाजिक एवं आर्थिक स्थितियाँ आदि भिन्न हैं। उत्तराखंड के दोनों

दोनों विभागों में अनेक प्रकार के घरेलु स्वादिष्ट व्यंजन बनाए जाते हैं जिनमें प्रमुखता से स्थानीय खाद्य-वस्तुओं का प्रयोग किया जाता है। ऐसे भी अनेक व्यंजन हैं जो मूलतः केवल कुमाऊँ अथवा केवल गढ़वाल से सम्बंधित हैं।

इंडीटेल के इस संस्करण में हम आपको कुमाऊँ के एक अत्यंत स्वादिष्ट आयाम से अवगत करायेंगे। जी हाँ, कुमाऊँ के स्थानीय स्वादिष्ट व्यंजन!

कुमाऊँ के स्वादिष्ट खाद्य

कुमाऊँ के व्यंजन बनाने में आसान हैं। ये खाद्य पदार्थ अनेक पोषक तत्वों के साथ साथ भरपूर उर्जा से परिपूर्ण होते हैं जो पर्वतीय क्षेत्रों में निवास करते एवं जलवायु की कठोर परिस्थितियों का सामना करते कुमाऊँनी जनमानस के लिए अत्यंत आवश्यक है। इस संस्करण का ध्येय है, आप को वहां के व्यंजनों से अवगत करना ताकि आप जब भी वहां जाएँ, उनका आस्वाद अवश्य लें। यह संस्करण उनके लिए भी है जिन्हें नित-नवीन व्यंजन बनाना प्रिय है। वे इन व्यंजनों को अपने घर पर ही बनाकर उनका आनंद ले सकते हैं। निम्न दर्शित खाद्यों में अनेक ऐसे व्यंजन हैं जिन्हें उत्तराखंड के दोनों भागों में बनाया जाता है। अपने उत्तराखंड पर्यटन में इन व्यंजनों का आस्वाद लेना ना भूलें।

आलू के गुटके

आप जब भी गुजरात के दशहरे का स्मरण करें, आपके समक्ष अवश्य जलेबी व फाफडा का दृश्य उभर कर आ जाता होगा। महाराष्ट्र की होली की स्मृतियाँ आपकी जिव्हा पर पूरण-पोली का स्वाद ले आती होंगी। उसी प्रकार उत्तराखंड में हम जब भी आलू के गुटके खाएं अथवा केवल स्मरण करें, हमारे नैनों के समक्ष होली का दृश्य उभर कर आ जाता है। जी नहीं! इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि आप यह स्वादिष्ट व्यंजन वर्ष में केवल एक ही दिवस खा सकते हैं। आप इसे किसी भी ऋतु में तथा किसी भी समय खा सकते हैं।

कुमाऊँ का भोजन - आलू के गुटके
कुमाऊँ का भोजन – आलू के गुटके

होली के उत्सव काल में इसका स्वाद विशेष होता है। यहाँ के पहाड़ी स्थानिक इसे अत्यंत ही स्वादिष्ट, खट्टी व विभिन्न मसालों से परिपूर्ण भांग की चटनी के साथ खाते हैं। भांग की चटनी भी कुमाऊँ का एक प्रसिद्ध खाद्य पदार्थ है। विभिन्न रंगों एवं स्वाद से परिपूर्ण कुमाऊँ के सुप्रसिद्ध आलू के गुटके बनाने के लिए उबले आलू के टुकड़ों को विभिन्न मसालों के साथ भूना जाता है। हिमालयीन क्षेत्रों में उपलब्ध आलुओं को ‘पहाड़ी आलू’ कहा जाता है जो आकार में बड़े होते हैं तथा मैदानी क्षेत्रों में उपलब्ध आलुओं की तुलना में अधिक स्वादिष्ट होते हैं।

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भट्ट की चुड़कानी

जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट होता है, यह भट्ट अर्थात् एक प्रकार के  काले राजमा के दानों से बनता है। सम्पूर्ण उत्तराखंड में इस की उत्तम उपज होती है। यह कुमाऊँ की एक महत्वपूर्ण फसल है। काले राजमा के दानों से बनी भट्ट की चुड़कानी पोषण तत्वों की धनी होते हुए भी बनाने में अत्यंत आसान है।

भट्ट के दानों को जीरे व हींग का तड़का लगाकर दाने फटने तक भूना जाता है। तत्पश्चात गेहूं या चावल का आटा, पिसा अदरक-लहसुन एवं नमक, हल्दी व लाल मिर्च जैसे अन्य मसाले डालकर भूना जाता है। इसके पश्चात पानी डालकर पकाया जाता है। धनिया की पत्ती से सजाकर चावल के साथ परोसा जाता है। यह एक आसान कृति है। आप इसे अवश्य बनाकर देखिये। यह स्वादिष्ट होने के साथ साथ पौष्टिक भी होता है। कुमाऊँवासियों को भट्ट से विशेष प्रेम है। वे इससे अनेक व्यंजन बनाते हैं।

चैंसू – उत्तराखंड का एक स्वादिष्ट व्यंजन

यह कुमाऊँ के सर्वोत्तम व्यंजनों में से एक है। इसे बनाने के लिए मूल सामग्री उड़द की डाल है। सर्वप्रथम उड़द डाल को सूखी कढ़ाई में सुगंध आने तक भूनते हैं। ठंडा होने पर दाल को दरदरा पीस लेते हैं। घी गर्म कर अदरक-लहसुन के टुकड़े, जीरा, कढ़ी पत्ते, प्याज, टमाटर एवं अन्य सूखे मसालों से छोंक लगाकर उसमें पीसी डाल डालकर भूनते हैं। पानी डालकर पकाते हैं। हरी धनिया से सजाकर गर्म चावल के साथ खाते हैं।

यह मूलतः एक गढ़वाली व्यंजन है किन्तु इसे कुमाऊँ में भी चाव से बनाया व खाया जाता है। इसमें प्रोटीन की भरपूर मात्रा होती है। इस दाल को बनाने के लिए सर्वोत्तम पात्र लोहे का होता है। इससे चैंसू अधिक स्वादिष्ट व पौष्टिक हो जाता है। यद्यपि यह शीत ऋतु में खाया जाने वाला व्यंजन है, तथापि पर्वतीय क्षेत्रों के सर्वसामान्य शीतल वातावरण के कारण वहां इसे खाने के लिए मौसम का बंधन नहीं होता है। आप जब भी उत्तराखंड जाएँ, इसका आस्वाद अवश्य लें।

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सना हुआ नींबू मूली/ नींबू सान

शीत ऋतु में प्रत्येक पर्वतीय निवासी की यह हृदयपूर्वक अभिलाषा रहती है कि वह कड़ाके की ठण्ड में बाहर बैठकर धूप सेंके तथा यह सना हुआ नींबू खाए। शीत ऋतु में खाने योग्य यह एक ऐसा नाश्ता है जिसका स्मरण मात्र भी मुंह में पानी ले आता है। इसे बनाने के लिए बड़े आकार के नींबू का प्रयोग किया जाता है जो उत्तराखंड में ही उगाया जाता है। इसमें मूली, दही, भांग का चूर्ण एवं नमक मिलाया जाता है। खट्टे व नमकीन स्वाद से युक्त यह व्यंजन सभी उत्तराखंडियों को अत्यंत प्रिय है। पोषक तत्वों से भरपूर इस व्यंजन का आस्वाद आप शीत ऋतु में अवश्य लें।

भटिया/भट्ट का जौला

आप मुझसे पूर्णतः सहमत होंगे कि कोई भी भारतीय नमकीन व्यंजन मसालों के बिना अधूरा होता है। किन्तु आज में आपको एक ऐसे व्यंजन के विषय में बताने जा रही हूँ जिसे मसालों के बिना बनाया जाता है। जी हाँ, भटिया।

इसे बनाने के लिए केवल दो वस्तुओं का प्रयोग किया जाता है, भट्ट अथवा काला राजमा तथा चावल। जौला में नमक व मसाले नहीं डाले जाते हैं। इसे अधिक स्वादिष्ट बनाने के लिए इसे कढ़ी, जीरा-नमक अथवा ‘हरा धनिया नमक’ के साथ परोसा जाता है। यह मेरा सर्वप्रिय व्यंजन है। इसे मैं कभी भी व कहीं भी खा सकती हूँ।

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पालक का कापा

पालक का कापा अथवा कापा एक अत्यंत पौष्टिक पालक की तरी अथवा रस्सा है जिसे बनाना भी आसान है। सामान्यतः जब हम हरी सब्जियां पकाते हैं, उसकी पौष्टिकता एवं रंग कुछ मात्रा में नष्ट हो जाते हैं। किन्तु कापा में पालक को अधिक नहीं पकाया जाता है। अतः उसमें पोषकता नष्ट नहीं होती है। साथ ही उसका हरा रंग भी बना रहता है जो परोसते समय अत्यंत लुभावना प्रतीत होता है। इसे बनाने के लिए तेल गर्म कर जीरा, अदरक, हरी मिर्च व अन्य मसाले का बघार लगा कर उसमें चावल का आटा भूनते हैं। बारीक कटी पालक व पानी डालकर रस्से को पकाते हैं। इसे भी गर्म चावल के साथ खाया जाता है। पालक का कापा सामान्यतः शीत ऋतु में बनाया जाता है क्योंकि पहाड़ी पालक उन्ही दिवसों में उगता है। किन्तु आपको जब भी पालक उपलब्ध हो, आप इसे पकाकर खा सकते हैं। इसी प्रकार का एक अन्य पदार्थ है, कौफुली।

बाल मिठाई तथा सिंगोड़ी – कुमाऊँ के लोकप्रिय व्यंजन

आप सोच रहे होंगे कि मैं अनवरत आपसे कुमाऊँ के मसाले युक्त नमकीन व्यंजनों के विषय में ही चर्चा कर रही हूँ। क्या कुमाऊँ में मिष्ठान्न नहीं बनते? अवश्य बनते हैं। किसी भी स्थान के विशेष व्यंजनों की सूची तब तक सम्पूर्ण नहीं मानी जाती जब तक उसमें वहां की मिठाई तथा अन्य मीठे व्यंजनों का समावेश ना हो। उसी सूची में मैं बाल मिठाई एवं सिंगोड़ी के नाम सम्मिलित करना चाहती हूँ जो पहाड़ी मिष्टान्न हैं। आप इन्हें विशेष अवसरों पर अवश्य बनाएं, खाएं एवं खिलाएं।

बाल मिठाई
बाल मिठाई

सिंगोड़ी को खोया, शक्कर एवं कसे हुए नारियल से बनाया जाता है। तीनों सामग्रियों को पकाकर एवं इलायची से सुगन्धित कर इस मिठाई को बनाया जता है। मालू के पत्ते को तिकोन आकार में मोड़कर उसमें यह मिठाई भरी जाती है। इससे पत्तों की सुगंध मिठाई में समा जाती है।

बाल मिठाई भीतर से भूरे चोकलेट जैसी दिखाई देती है जिस पर शक्कर के गोल दाने लपेटे जाते हैं। खोये को चीनी के साथ तब तक पकाया जाता है जब तक वह भुनकर भूरे रंग का ना हो जाए। तत्पश्चात चौकोर टुकड़ों में काटकर उस पर शक्कर के छोटे गोलाकार दानों को लपेटते हैं।

उत्तराखंड के इन दोनों मिष्टान्नों का आस्वाद लेना चाहें तो अल्मोड़ा सर्वोत्तम स्थान है जो कुमाऊँ क्षेत्र के अंतर्गत एक जिला है। बच्चे एवं बड़े, दोनों इन्हें चाव से खाते हैं। यदि आप घर पर बैठे बैठे ही उत्तराखंड का आनंद लेना चाहते हैं तो इन्हें घर पर ही बनाएं। इन्हें बनाने की विधियां आसान हैं।

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डुबुक/ डुबके

उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र की गोद से उभरा यह व्यंजन डुबुक प्रमाणिक रूप से एक पारंपरिक व्यंजन है जिसे डुबके भी कहा जाता है। यह एक पतली दाल होती है जिसे गहत/कुल्थी की दाल अथवा भट्ट से बनाया जाता है। इसे अन्य दालों से भी बना सकते हैं, जैसे अरहर, चना, मूंग आदि। इनके अतिरिक्त इसमें जीरा, मेथी के दाने, हिंग, प्याज, लहसुन तथा नमक, हल्दी व लाल मिर्च जैसे अन्य मसाले डाले जाते हैं। यह पर्वतों के तराई क्षेत्र के लोगों द्वारा शीत ऋतु में खाया जाने वाला व्यंजन है जिसे वे गर्म चपाती अथवा गर्म चावल के साथ खाते हैं।

डुबुक पकाने के लिए डुबुक की दाल को रात्र भर पानी में भिगोकर प्रातः उसे मोटा मोटा पीसते हैं। तेल गर्म कर प्याज व अन्य मसालों का छोंक लगाकर दाल को लोहे के पात्र में पकाते हैं। आवश्यकतानुसार पतला रखते हुए हरी धनिया से सजाकर परोसते हैं। देखने में यह एक साधारण दाल प्रतीत होती है। किन्तु इसका स्वाद चखते ही आपकी धारणा परिवर्तित हो जायेगी, यह मेरा विश्वास है।

भांग की चटनी

आप सब ने भांग के विषय में यह सुना ही होगा तथा चित्रपटों में देखा होगा कि कुछ लोग इसे ठंडाई में डालते हैं। आपने यह नहीं सुना होगा कि भांग की चटनी भी बनती है। भांग की चटनी उत्तराखंड में लोकप्रिय है। इसे भांग के गुणकारी बीजों द्वारा बनाया जाता है। इसे बनाने की विधि आसान है। भांग के बीजों को सूखी कढ़ाई में भूना जाता है। तत्पश्चात उन्हें हरी मिर्च, नींबू का रस, पुदीने की पत्तियाँ, हरी धनिया, साबुत लाल मिर्च एवं जीरे के साथ पीसा जाता है। नमक मिलाकर चाट-पकोड़ी के साथ परोसा जाता है।

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मडुआ की रोटी

मडुआ की रोटी उत्तराखंड में खाई जाने वाली एक पौष्टिक व स्वादिष्ट रोटी है। इसका नाम जितना क्लिष्ट है, इसे बनाना उतना ही आसान है। उत्तराखंड के कुमाऊँ में रागी को मडुआ कहा जाता है। विभिन्न पोषक तत्वों से परिपूर्ण रागी की प्रकृति उष्ण होती है। इसीलिए इसे शीत ऋतु में खाया जाता है। मडुआ की रोटी को बाजरे की रोटी के समान बनाया जाता है। इसमें गाजर, हरी मिर्च, हरे प्याज, दही, नमक आदि डालकर भी रोटी बनाई जाती है। मडुआ की रोटी स्वास्थ्य के लिए अत्यंत लाभकारी होती है।

रास/थटवानी अथवा ठठ्वानी

रास-भात अनेक प्रकार की खड़ी दालों से बनाया जाता है, जैसे चना, भट्ट, राजमा, लोबिया तथा गहत। नाम से ही आप अनुमान लगा सकते हैं कि यह एक गाढ़ा तरल व्यंजन है। इसे बनाने के लिए इन दालों को रात्र भर पानी में भिगोकर रखते हैं जिससे ये भीगकर फूल जाती हैं तथा शीघ्र पकती हैं। अब इन्हें खड़े मसाले डालकर उबालते हैं। ठंडा होने पर छानकर पानी एवं दानों को पृथक किया जाता है। लोहे की कढ़ाई में तेल गर्म कर जीरा, खड़े मसाले, प्याज, किसा अदरक, किसा लहसुन, नमक, हल्दी आदि का बघार लगाकर दालों का पानी डाला जाता है तथा एक उबाल आने तक पकाया जाता है। चावल के आटे का घोल डालकर इसे किंचित गाढा किया जाता है। ऊपर से घी एवं हरी धनिया डालकर भात के साथ परोसा जाता है।

पृथक किये गए दालों के दानों को भी जीरा, प्याज व मसालों का छोंक लगाकर रास-भात के साथ परोसा जाता है। इसमें नींबू, चाट मसाला आदि डालकर चाट के समान भी खा सकते हैं। रास थटवानी भी शीत ऋतु में खाया जाने वाला पदार्थ है। आप जब कुमाऊँ जाएँ तो इसका स्वाद अवश्य चखें। चाहें तो इसे घर पर भी बनाकर इसका आनंद उठायें।

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थेचौनी/थेचवानी

इसके नाम से ही अपने अनुमान लगा लिया होगा कि इसे ठेच कर अथवा पीसकर बनाया जाता है। थेच अर्थात् पीसना तथा वानी का अर्थ है रस्सा। इसमें मूली एवं आलुओं को सिलबट्टे अथवा खलबत्ते में कूटकर छोटे छोटे टुकड़ों में कचूमर कर लेते हैं। अदरक, लहसुन व हरी मिर्च का भी कचूमर कर लेते हैं। तेल गर्म कर उसमें पहाड़ी राई अथवा जखिया, जीरा, प्याज, टमाटर, अदरक, लहसुन व हरी मिर्च का कचूमर व अन्य सूखे मसालों का छोंक लगाते हैं। आलू-मूली डालकर भूनते हैं। तत्पश्चात इसमें आवश्यकतानुसार पानी डालकर पकाया जाता है। बेसन अथवा चावल के आटे से गाढ़ा किया जाता है। हरी धनिया से सजाकर चपाती अथवा गर्म भात के साथ खाया जाता है।

ये हैं उत्तराखंड, विशेषतः कुमाऊँ में प्रचलित कुछ पारंपरिक व्यंजन जो पहाड़ी शीतल वातावरण में शरीर को उर्जा प्रदान करते हैं तथा आवश्यक पोषक तत्व भी देते हैं। आप जब भी कुमाऊँ जाएँ, इन व्यंजनों का स्वाद अवश्य चखें। यदि आप पहाड़ों पर नहीं रहते हैं तब भी आप स्वयं इन्हें पकाकर इनका आस्वाद ले सकते हैं।

IndiTales Internship Program के अंतर्गत यह संस्करण निकिता चंदोला द्वारा लिखा तथा इंडीटेल द्वारा प्रकाशित किया गया है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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अनभीष्ट की पिटाई- हांगकांग की विचित्र परंपरा https://www.inditales.com/hindi/hong-kong-mein-pitaai-ka-sanskar/ https://www.inditales.com/hindi/hong-kong-mein-pitaai-ka-sanskar/#respond Wed, 13 Nov 2024 02:30:42 +0000 https://www.inditales.com/hindi/?p=3716

अनभीष्ट व्यक्ति की पिटाई, यह हांगकांग की उन परम्पराओं में से एक है जिसे मैं अपनी हांगकांग यात्रा की लघु अवधि में देखना चाहती थी। हांगकांग में मैंने अनेक मंदिर एवं संग्रहालय देखे। हांगकांग के ऐतिहासिक संग्रहालय में मुझे वहाँ के अनेक रोचक उत्सवों के विषय में जानकारी प्राप्त हुई। एक उत्सव में वे गोल […]

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अनभीष्ट व्यक्ति की पिटाई, यह हांगकांग की उन परम्पराओं में से एक है जिसे मैं अपनी हांगकांग यात्रा की लघु अवधि में देखना चाहती थी। हांगकांग में मैंने अनेक मंदिर एवं संग्रहालय देखे। हांगकांग के ऐतिहासिक संग्रहालय में मुझे वहाँ के अनेक रोचक उत्सवों के विषय में जानकारी प्राप्त हुई। एक उत्सव में वे गोल डबल रोटियों से ऊँचा बुर्ज बनाते हैं। उनका चीनी नव-वर्ष भी एक अनोखा उत्सव होता है। उसका भी अनुभव आपको अवश्य लेना चाहिए। ये सभी उत्सव वर्ष में भिन्न भिन्न समय पर आयोजित किये जाते हैं। उनका अनुभव प्राप्त करने के लिए आपको अपनी यात्रा उसी अनुसार नियोजित करनी पड़ेगी।

अनभीष्ट की पिटाई
अनभीष्ट की पिटाई

मेरी रूचि के केंद्र में दैनन्दिनी अनुष्ठान एवं परम्पराएं थीं। मैं उन्ही की खोज में थी। मेरी खोज मुझे एक उड्डान पुल के नीचे ले गयी जो Causeway Bay में स्थित है। हांगकांग में मैं यहीं ठहरी हुई थी। उड्डान पुल के आधार स्तंभों के चारों ओर महिलायें बैठी हुई थीं। प्रत्येक महिला के पास छोटे से मंदिर जैसी व्यवस्था थी। वे अपने एक हाथ में जूता लेकर ईंटों के ढेर पर मारती हुई आपका ध्यान आकर्षित करने की चेष्टा करती हैं। अपने दूसरे हाथ से वे आपको वहाँ आमंत्रित करती हैं।

ये महिलायें अवांछित शक्तियों एवं आत्माओं को भगाने के अनुष्ठान में निपुण मानी जाती हैं।

अनभीष्ट की पिटाई

अनभीष्ट की पिटाई हांगकांग की एक परंपरा है। एक ऐसा लोक अनुष्ठान जो हांगकांग एवं चीन में लोकप्रिय है। यह अनुष्ठान विशेषतः चीनी भाषी लोगों में प्रचलित है। यह अनुष्ठान उन लोगों को सुख पहुँचाता है जो किसी व्यक्ति विशेष के व्यवहार अथवा कृत्य से आहत हैं। इस अनुष्ठान में इन महिलाओं द्वारा उस अनभीष्ट व्यक्ति विशेष की प्रतीक रूप में पिटाई करवाई जाती है। वह अनभीष्ट व्यक्ति विशेष कोई अवांछित संबंधी हो सकता है अथवा झगड़ालू व ईर्ष्यालू पड़ोसी हो सकता है। कार्यालय या कार्यक्षेत्र का कोई कनिष्ठ अथवा वरिष्ठ सहकर्मी हो सकता है अथवा परिवार का कोई कष्टदायक सदस्य। आप अपनी समस्या लेकर इन महिलाओं के पास जा सकते हैं।

छोटे मंदिर
छोटे मंदिर

वे उन व्यक्तियों के प्रतीकात्मक पुतले बनाकर अथवा उनके चित्र लेकर जूते से उनकी कुटाई करती हैं। साथ ही छोटा अनुष्ठान करते हुए आपके लिए मंगल प्रार्थना करती हैं। इन सब के अंत में आपको अत्यंत आनंद की अनुभूति होना अपेक्षित ही है। आतंरिक पीड़ा से मुक्ति मिलती है। अंतःकरण आश्वस्त हो जाता है कि कोई हमारे शत्रुओं से हमारी रक्षा कर रहा है। ये महिलायें पीड़ित को सभी प्रकार के कष्टों से बचे रहने का आशीष भी देती हैं।

इन महिलाओं में कुछ ज्योतिषी भी होती हैं जो हाथों की रेखाओं को देखकर विपदाओं एवं कष्टों का आकलन करती हैं तथा उनके निवारण के लिए सुझाव भी देती हैं।

इस अनुष्ठान को खलनायक मार(Villain Hitting ) भी कहते हैं। यह हांगकांग के अमूर्त धरोहर(Intangible Heritage of  Hong Kong) की सूची में भी सम्मिलित है। हांगकांग के इस विचित्र अनुष्ठान के दर्शन का यह भी एक उत्तम तर्क हो सकता है।

खलनायक कौन?

वह खलनायक अथवा वह अनभीष्ट कौन है जिसका नाम शमन के लिए दिया जाता है? जिससे भी पीड़ित व्यक्ति त्रस्त हो, वह अनभीष्ट हो सकता है। वह चाहे एक व्यक्ति हो अथवा व्यक्तियों का समूह हो, वह परिवार का कोई सदस्य हो अथवा परिवार के बाहर का कोई हो, वह कार्यक्षेत्र से सम्बंधित हो अथवा सामाजिक क्षेत्र से सम्बंधित हो।

अनभीष्ट की पिटाई का सर्वोत्तम समय

हांगकांग के Causeway सेतु में वर्षभर में कभी भी इन महिलाओं से भेंट की जा सकती है। वे साधारणतः प्रातः ११ बजे से देर रात्रि तक बैठती हैं। अधिकतर भेंटकर्ता वे होते हैं जो अपने कार्यालय के कार्य समाप्त कर संध्या के समय यहाँ आते हैं।

पारंपरिक रूप से JINGZHE की अवधि शत्रु पर विजय प्राप्त करने के अनुष्ठान के लिए सर्वोत्तम माना जाता है। ये JINGZHE क्या है?

चीनी पंचांग सौर पंचांग को २४ भागों में बाँटता है। अर्थात् सूर्य के एक परिभ्रमण के ३६० अंश को १५ अंशों के २४ भागों में बाँटा जाता है। इन २४ भागों में से तीसरे भाग को JINGZHE कहते हैं जब सूर्य ३४५- ३६० अक्षांश के मध्य रहता है। यह एक सामान्य पंचांग के मार्च मास के आसपास स्थित होता है। उसमें भी सटीक रूप से यह ३४५ अक्षांश की ओर संकेत करता है जो सामान्यतः ५-६ मार्च के आसपास पड़ता है। चीन में कृषि पंचांग के अनुसार इसे ‘Awakening of the Insects’ भी कहते हैं जिसका अर्थ है, सुषुप्तावस्था में स्थित कीटों का जागरण। इसका अर्थ है, वसंत ऋतु का वह काल जब निष्क्रिय अथवा सुषुप्तावस्था में स्थित कीट व प्राणी अपनी दीर्घ निद्रा त्याग कर जागृत होते हैं।

अनभीष्ट की पिटाई का शुल्क

जब मैं इनके दर्शन करने गयी थी तब उनका शुल्क ५० हांगकांग डॉलर था। मुझे बताया गया कि ग्राहकों की संख्या के आधार पर वे मोलभाव करने में संकोच नहीं करती हैं। यदि वे ग्राहकों की प्रतीक्षा कर रही हों तो अपना शुल्क घटाने के लिए भी तत्पर रहती हैं।

इन महिलाओं में से अधिकतर केवल चीनी भाषा Cantonese ही बोलती हैं। अन्य लोगों की सुविधा के लिए वे छपा हुआ एक छोटा पर्चा रखती हैं जिस पर शुल्क लिखा होता है।

अनभीष्ट की पिटाई के अनुष्ठान का विडियो

भद्र महिला को उनका इच्छित शुल्क प्रदान करने के पश्चात वे अगरबत्ती जलाकर अनुष्ठान आरम्भ करती हैं।

शमन पीड़ित को पर्चियों का गट्ठा पकड़ा देती हैं। पीड़ित व्यक्ति उस पर्ची पर कष्टकारक व्यक्ति का नाम लिख कर देता है जिसकी पिटाई करवानी है। कष्टदायी कारक के विषय में जितनी अधिक जानकारी प्रदान की जाए, उतना ही वह कष्ट निवारण में सहायक होता है। कष्टकारक व्यक्ति से सम्बंधित कुछ वस्तु भी साथ में दे सकते हैं, जैसे उसके वस्त्र आदि।

वह भद्र महिला उस पर्चे को ईंटों पर रखती हैं तथा जूते से उस पर वार करती हैं। वह उस कागज के पर्चे पर इतना वार करती हैं कि वह फटने लग जाता है। कई बार वार करते हुए वो उसको शापित भी करती हैं।

तदनंतर उस कागज के टुकड़े को जलाया जाता है। उस जले हुए टुकड़े तो सांकेतिक रूप से कागज के बाघ के मुंह में डाला जाता है। तत्पश्चात दोनों को मंदिर में रखे धातु के एक डिब्बे में डाल दिया जाता है।

इस अनुष्ठान के पश्चात वो पीले रंग के एक कागज के द्वारा पीड़ित व्यक्ति को आशीष देती हैं। सर्वप्रथम उस कागज के टुकड़े के द्वारा, तत्पश्चात उसे जलाकर उसके द्वारा वो पीड़ित को आशीर्वाद प्रदान करती हैं।

इसके पश्चात उनसे आवश्यक प्रश्न किये जा सकते हैं। वे आपके हाथों की रेखाएं भी देखती हैं तथा प्रश्नों का उत्तर देती हैं। यदा-कदा पत्थर के दो टुकड़ों को पासे के समान फेंककर उनसे दिव्य समाधान प्राप्त करती हैं।

मेरा अनुभव

हांगकांग की अनेक परम्पराओं के विषय में जानकार मेरी भी इच्छा थी कि यहाँ की कम से कम एक परंपरा का अनुभव लूं। मैंने इसी अनूठे अनुष्ठान को देखने एवं उसका अनुभव लेने का निश्चय किया। किन्तु चीनी भाषा से अनभिज्ञता मेरे लिए एक समस्या थी। हमने अनुष्ठान का आरम्भ तो किया किन्तु मुझे तब यह ज्ञात नहीं था कि मुझे पर्चे पर किसी का नाम लिखकर उन्हें देना है। इसलिए मेरा अनुष्ठान पूर्ण नहीं हो पाया।  मैं थोड़ा समय वहाँ बैठकर कुछ लोगों के अनुष्ठान देखती रही। कुछ समय पश्चात उन्होंने मुझे उनके अनुष्ठान का विडियो लेने की अनुमति दे दी।

जब मैंने उस भद्र महिला को उनका विडियो दिखाया, वो अत्यंत प्रसन्न हो गयीं। उन्होंने मुझे आलिंगन किया तथा मेरे पैसे लौटा दिये क्योंकि मेरा अनुष्ठान पूर्ण नहीं हुआ था। उनकी शुचिता ने मेरा मन मोह लिया।

एक छोटे से स्थान पर कई महिलायें यह अनुष्ठान करने के लिए विराजमान थीं। वे सभी ईंटों पर जूता बजा बजा कर ग्राहकों का ध्यान आकर्षित करने की चेष्टा कर रही थीं।

हांगकांग की जीवंत संस्कृति एवं परम्पराएं

यह अनुभव मेरे लिए हांगकांग की जीवंत संस्कृति एवं परम्पराओं को समीप से जानने का एक अद्भुत अवसर था। लोगों का यह विश्वास है कि अवांछित तत्वों एवं शक्तियों को प्रताड़ित करने व उनको पीटने से जीवन के सभी कष्ट दूर हो जाते हैं तथा सभी बाधाओं से मुक्ति मिल जाती है। पीड़ित व्यक्ति किसी के प्रति अपने क्रोध को यहाँ व्यक्त करता है तथा ये महिलायें अपने अनुष्ठान के द्वारा उस व्यक्ति तक सन्देश पहुँचाती हैं कि वो इस पीड़ित को कष्ट ना दे। मैं उन महिलाओं से वार्तालाप करना चाहती थी तथा इस विषय में उनका अनुभव जानना चाहती थी। मैं उनसे चर्चा तो नहीं कर सकी किन्तु SCMP Article इस आलेख के द्वारा आप उनके कुछ अनुभव अवश्य जान सकते हैं।

मेरे मन में एक रोचक विचार उत्पन्न हुआ! एक दूसरे से रुष्ट दो व्यक्ति एक ही समय में दो भिन्न भिन्न महिलाओं के पास जाकर एक दूसरे के विरुद्ध अनुष्ठान कराएं तथा एक दूसरे को पिटवायें! कदाचित हो सकता है। किसी परिवार के अथवा किसी कार्यालय के दो सदस्यों के बीच मतभेद की स्थिति में यह हो सकता है।

मैं जानती हूँ कि यह अनुष्ठान वास्तव में किसी दूसरे व्यक्ति को पिटवाने के लिए अथवा उसे कष्ट पहुँचाने के लिए नहीं होता है, अपितु यह अपने भीतर स्थित उस व्यक्ति के विरुद्ध क्रोध अथवा द्वेष की भावना को नष्ट करने का एक साधन है।

क्या आपको ऐसे ही किसी अन्य रोचक व विचित्र परंपरा या अनुष्ठान की जानकारी है?

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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प्रसिद्ध कुमारतुली कोलकाता के दक्ष मूर्तिकार https://www.inditales.com/hindi/kolkata-kumartuli-ke-murtikar/ https://www.inditales.com/hindi/kolkata-kumartuli-ke-murtikar/#respond Wed, 06 Nov 2024 02:30:18 +0000 https://www.inditales.com/hindi/?p=3712

बंगाल, विशेषतः कोलकाता के लोकप्रिय दुर्गा पूजा के विषय में आप सब ने सुना ही होगा। बंगाल के दुर्गा पूजा उत्सव का स्मरण होते ही हमारे समक्ष दुर्गा पूजा पंडाल, काली माता की भव्य मूर्ति, उनके भव्य वस्त्र एवं आभूषण, उनके भक्ति में तल्लीन भक्तगण, नौ दिवसों के उत्सव का उल्ल्हास, सिन्दूर खेला एवं अंत […]

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बंगाल, विशेषतः कोलकाता के लोकप्रिय दुर्गा पूजा के विषय में आप सब ने सुना ही होगा। बंगाल के दुर्गा पूजा उत्सव का स्मरण होते ही हमारे समक्ष दुर्गा पूजा पंडाल, काली माता की भव्य मूर्ति, उनके भव्य वस्त्र एवं आभूषण, उनके भक्ति में तल्लीन भक्तगण, नौ दिवसों के उत्सव का उल्ल्हास, सिन्दूर खेला एवं अंत में उनकी प्रतिमा का नदी में विसर्जन, ये सभी दृश्य उभर कर आ जाते हैं। हम में से अधिकाँश लोग दुर्गा पूजा के आनंद में रम जाते हैं, नवीन वस्त्र, नवीन आभूषण, स्वादिष्ट व्यंजन तथा अनेक रंगारंग कार्यक्रमों में खो जाते हैं।

दुर्गा मूर्ति कुमारतुली कोलकाता
दुर्गा मूर्ति कुमारतुली कोलकाता

यहाँ तक कि प्रतिमा की जीवंत सुन्दरता भी हमें भावविभो कर देती है। किन्तु हम में से कितने होंगे जो इन प्रतिमाओं को निहारते हुए उन मूर्तिकारों के विषय में सोचते हैं जिन्होंने ये प्रतिमाएं गढ़ी हैं। कितने लोग होंगे जो इन प्रतिमाओं के दर्शन करते समय उन मूर्तिकारों की कला की सराहना करते होंगे!

ये कोलकाता के कुमारटुली (कुम्हार टोली) क्षेत्र के कुशल मूर्तिकार हैं जिनके अनेक मास के परिश्रम के फलस्वरूप ऐसी सजीव प्रतिमाएं अस्तित्व में आती हैं।

कोलकाता कुमारटुली के मूर्तिकार

जब हम पश्चिम बंगाल में बिश्नुपुर भ्रमण पर जा रहे थे, मार्ग में हमने कोलकाता में एक पड़ाव लिया था। भ्रमण करते करते हम कुमारटुली की गलियों में भी पहुँच गए। यह क्षेत्र मूर्ति गढ़न के लिए विश्व विख्यात है, विशेषतः दुर्गा देवी की मूर्तियों के लिए । आप जैसे ही इस क्षेत्र में प्रवेश करेंगे, आपको पुरातन काल का आभास होने लगेगा। मार्ग के दोनों ओर पुष्प व पुष्पहार विक्री करते विक्रेता। धीमी गति से आती-जाती ट्राम रेलगाड़ी जो इतनी धीमी गति से चलती है कि ऐसा आभास होता है मानो हम पैदल चलकर उससे आगे निकल जायेंगे। जहाँ देखें वहाँ प्रतिमा गढ़ने में मग्न मूर्तिकार। उन पुष्पों में मेरा ध्यान गहरे नीले रंग के अपराजिता पुष्पों ने खींचा। ये पुष्प देश के अन्य भागों में क्वचित ही दृष्टिगोचर होते हैं।

गणेश प्रतिमा का निर्माण
गणेश प्रतिमा का निर्माण

आश्चर्यजनक रूप से, यह सम्पूर्ण क्षेत्र सभी प्रकार की आधुनिकता एवं आधुनिक विश्व के सभी प्रकार के चिन्हों से स्पष्ट रूप से मुक्त प्रतीत हुआ। कहीं कोई आधुनिक पेय की बिक्री नहीं, कहीं कोई ऐसी ठेला गाड़ी नहीं जो अपने चमचमाते नाम पटल से ग्राहकों को आकर्षित कर रहा हो। कहीं कोई जगमगाती रोशनाई नहीं। सम्पूर्ण क्षेत्र अपने मूल रंग में ही लिप्त था।

दुकानें अत्यंत संकरी व लम्बी हैं जो दुकान के साथ साथ कार्यशाला की भूमिका भी निभाती हैं। कारीगर वहीं बैठकर मूर्तियाँ गढ़ते हैं। दुकानों की सम्पूर्ण लम्बाई में मूर्तियाँ भरी हुई रहती हैं। मूर्तिकार एक मूर्ति से दूसरी मूर्ति पर जाते हुए उन पर अपने सधे हाथ चलाता है।

इन गलियों में मूर्तियों के अतिरिक्त विवाह समारोहों में उपयोग में आने वाली वस्तुओं की भी दुकानें हैं।

दुर्गा की प्रतिमाएं

कुमारटुली के दक्ष मूर्तिकार, जिन्हें कुमोर कहते हैं, इनके हाथों जो सर्वोत्तम मूर्तियाँ गढ़ी जाती हैं, वो हैं, दुर्गा देवी तथा उनके साथ दुर्गा पूजा पंडाल में विराजमान उनका सम्पूर्ण जत्था। इनके अतिरिक्त वे विश्वकर्मा, गणेश, लक्ष्मी एवं सरस्वती पूजा के लिए भी मूर्तियाँ बनाते हैं।

दुर्गा प्रतिमा - कुमारतुली
दुर्गा प्रतिमा – कुमारतुली

उस समय मैंने भगवान गणेश की अनेक प्रतिमायें देखीं क्योंकि कुछ दिवसों पश्चात गणेश उत्सव मनाया जाने वाला था। कुछ कारीगर जो मुख्य मार्ग पर बैठकर कार्य कर रहे थे, वे मानव आकृतियों पर भी कार्य कर रहे थे। वे पारंपरिक मिट्टी की प्रतिमाओं के साथ साथ फाइबरग्लास की मूर्तियाँ भी बना रहे थे। आप वहाँ की लगभग सभी दुकानों में रविन्द्र नाथ टैगोर की वक्षप्रतिमा सर्वव्यापी रूप से देखेंगे। उनके साथ कुछ अन्य राष्ट्रीय नेताओं की भी प्रतिमाएं हैं, जैसे इंदिरा गांधी एवं उनका परिवार।

प्रतिमाएं कैसे क्रय करें?

हमें बताया गया कि आप यहाँ आपकी रूचि के अनुसार प्रतिमाएं बनवा सकते हैं। आपको जिस व्यक्ति की प्रतिमा बनवानी है, उसका एक स्पष्ट चित्र मात्र उन्हें देना होगा । मुझे यह जानकार अत्यंत सुखद आश्चर्य हुआ कि कई लोग यहाँ से अपने माता-पिता अथवा अपने पूर्वजों की प्रतिमाएं बनवाते हैं। उन मूर्तियों की कीमत भी सामान्य ही होती है। सामान्य से सामान्य आय पाने वाले व्यक्ति भी उनका आसानी से निर्वाह कर सकते हैं। मुझे बताया गया कि यहाँ से अनेक मूर्तियाँ विदेश भी भेजी जाती हैं जिससे उन्हें उत्तम निर्यात मूल्य प्राप्त हो जाता है।

कुमारटुली की गणेश प्रतिमाएं

एक क्षेत्र में भगवान गणेश की एक समान प्रतिमाएं रखी हुई थीं जिन पर कुछ भागों पर ही रंग किया था। अधूरी रंगी हुई प्रतिमाएं भी एक समान थीं। ये प्रतिमाएं मुझे अत्यंत रोचक लगीं। उन्हें देख ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो कारीगर भगवान को किसी उत्सव के लिए वस्त्र व आभूषणों से अलंकृत कर रहे हों। इन प्रतिमाओं पर की गयी कुछ कारीगरी इतनी सूक्ष्म एवं जटिल थीं कि यह विश्वास करना कठिन हो रहा था कि ये हाथों द्वारा मिट्टी से बनाई गयी हैं।

कुमारतुली के मूर्तिकार
कुमारतुली के मूर्तिकार

वहाँ खड़े हो कर कारीगरों के दक्ष हाथों को उन प्रतिमाओं पर चलते, उन्हें आकार देते, उन्हें रंगते व उन पर सजीव भाव उभारते हुए प्रत्यक्ष देखना एक अविस्मरणीय अनुभव था। उनके आभूषण ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानो असली आभूषण हों। जो प्रतिमाएं अभी रंगी नहीं गयी थीं उन पर भी मिट्टी से बने पुष्प अलंकरण एवं स्वर्ण अलंकरण में भिन्नता स्पष्ट देखी जा सकती थी। कारीगरों की यह दक्षता अचंभित कर देती है। सम्पूर्ण गली में इसी प्रकार की अर्ध-निर्मित प्रतिमाएं थीं तो आपको ही देखती हुई प्रतीत होती हैं।

इन गलियों में सभी प्रतिमाएं तब अपूर्ण थीं। किसी का शरीर मिट्टी से पूर्णतः निर्मित हो चुका था तो रंगा नहीं गया था, किसी का निचला भाग पूर्ण हो चुका था तो शीष नहीं लगा था, कुछ प्रतिमाएं पूर्ण रूप से निर्मित होकर रंगी जा चुकी थीं तो उनको वस्त्रों से सज्ज करना शेष था, वहीं कुछ प्रतिमाएं लगभग पूर्ण हो चुकी थीं, केवल उन पर आभूषण गढ़ना शेष था। गणेश प्रतिमा के साथ जाने के लिए दहाड़ मारते शेर थे तो नन्हे मूषक भी थे। अनेक अन्य प्राणी भी निर्मित किये गए थे। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो वे कारीगर सम्पूर्ण सृष्टि की निर्मिती कर रहे हों।

मूल निवासियों का गाँव

इस क्षेत्र को मूल निवासियों का गाँव भी कहते हैं। यह क्षेत्र कोलकाता के दक्षिण में कालीघाट जाते हुए प्राचीन तीर्थ मार्ग का भाग है। नदी के समीप होने के कारण उन्हें मूर्तियाँ गढ़ने के लिए उत्तम स्तर की मिट्टी आसानी से उपलब्ध हो जाती है। अधिकतर मूर्तिकार ऐसे परिवारों से संबंध रखते हैं जो अनेक पीढ़ियों से मूर्तियाँ बनाते आ रहे हैं। मुझे यह ज्ञात नहीं कि इस कला के लिए उन सब ने पूर्व प्रशिक्षण प्राप्त किया है। मेरा अनुमान है कि वे सब अपने परिवार के अन्य सदस्यों को मूर्तियाँ बनाते देखते होंगे व उनसे ही सीखते होंगे।

गणेश प्रतिमाएं
गणेश प्रतिमाएं

सभी मूर्तियों के मध्य भाग में भूसा भरा जाता है जिसके ऊपर मिट्टी से आकार दिया जाता है। तत्पश्चात मूर्तियों को तपाया जाता है। इसके पश्चात प्रतिमाओं पर गीली मिट्टी द्वारा सूक्ष्म भाव भंगिमाएं प्रदान की जाती हैं। वस्त्र एवं आभूषण उकेरे जाते हैं। तत्पश्चात उन पर रंगाई एवं अन्य साज-सज्जा की जाती है।

सोचा जाए तो इन सभी प्रतिमाओं का निर्मिती एवं विसर्जन का एक वर्षीय चक्र चलता है। वर्ष प्रति वर्ष इन्हें जिस मिट्टी से बनाया जाता है, तत्पश्चात वे उसी मिट्टी में जाकर विलीन हो जाती हैं। वर्तमान समय में जब बंगाल की मिट्टी से बंगाल में बनी देवी की मूर्तियाँ विश्व भर के बंगाली परिवारों को भेजी जाती हैं तथा विश्व भर में विसर्जित की जाती हैं, ऐसा कहा जा सकता है कि बंगाल की मिट्टी विश्व भर में जा रही है।

मुझे बताया गया कि यहाँ से मूर्ति बनवाने के लिए बहुत समय पूर्व ही बताना पड़ता है। बनी बनाई मूर्तियाँ सीधे क्रय करना क्वचित ही संभव हो पाता है।

परम्पराएं

परंपरा के अनुसार पुरातन काल में समृद्ध परिवार इन कारीगरों को अपने निवास पर आमंत्रित करते थे तथा इन कारीगरों से अपनी पारिवारिक परंपरा के अनुसार प्रतिमाएं बनवाते थे। ऐसा कहा जाता है कि प्रतिमा बनाने से पूर्व तथा देवी की प्रतिमा पर तीसरा नेत्र बनाने से पूर्व ध्यान-अनुष्ठान किया जाता था। देवी का तीसरा नेत्र बनना मूर्ति के पूर्णत्व का संकेत होता है। देवी की शक्ति का संकेत होता है।

दुर्गा मूर्ति
दुर्गा मूर्ति

वहीं इस क्षेत्र की सादगी ने मेरा मन मोह लिया था। सभी कारीगर मूर्तियाँ बनाने में व्यस्त थे। विभिन्न चरणों में आगामी कलाकारी की प्रतीक्षा में खड़ी उन प्रतिमाओं के छायाचित्र लेने से किसी ने भी हमें रोका नहीं। इसके फल के रूप में उनकी हमसे कोई आशा भी नहीं दिखाई दे रही थी। हमने जो जो भी जिज्ञासाएं व्यक्त कीं, जो जो भी प्रश्न पूछे, उन्होंने बड़ी ही सादगी से उन सबके उत्तर दिए। हमें कहीं भी ऐसा आभास नहीं हुआ कि हमारे वहाँ रहने से उन्हें किसी भी प्रकार की असुविधा हो रही हो।

कुमारतुली के पुष्प
कुमारतुली के पुष्प

मेरी अभिलाषा है कि अधिक से अधिक लोग इस स्थानीय कला के विषय में जानें, उसे देखें, इन कारीगरों के विषय में जाने व उन्हें प्रोत्साहित करें। विश्व प्रसिद्ध दुर्गा पूजा के पृष्ठभाग में की गयी इन मूर्तिकारों के परिश्रम को देखें व समझें। वहीं, मैं यह भी नहीं चाहती कि यह स्थान पर्यटकों की भीड़ से भरे। इससे इस क्षेत्र का मूल उद्धेश्य भंग हो सकता है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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