मधुबनी चित्रकला बिहार के मिथिला क्षेत्र की सर्वाधिक महत्वपूर्ण कला शैली है। मधुबनी वास्तव में मिथिला क्षेत्र में स्थित एक ऐसी नगरी है जिसने वहाँ की एक स्थानीय चित्रकला शैली को वैश्विक स्तर तक लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसी के फलस्वरूप आज यह चित्रकला सम्पूर्ण विश्व में मधुबनी चित्रकला के नाम से जानी जाती है।
मिथिला का संक्षिप्त इतिहास
बिहार का मिथिला क्षेत्र मुख्यतः गंगा के उत्तरी घाटों एवं नेपाल स्थित हिमालय की तलहटी क्षेत्रों के मध्य स्थित है।
मिथिला का सर्वाधिक महत्वपूर्ण परिचय माता सीता के पीहर के रूप में दिया जाता है। मिथिला क्षेत्र को माता सीता का जन्म स्थान माना जाता है। इसी कारण उन्हें मैथिली के नाम से भी संबोधित किया जाता है। उनके पिता राजा जनक के राज्य का नाम जनकपुरी था जो वर्तमान में नेपाल का भाग है। जनकपुरी भारत-नेपाल सीमा से केवल कुछ ही किलोमीटर भीतर स्थित है।
सीता माता जिस स्थान पर शिशु रूप में प्रकट हुई थीं, वह स्थान सीतामढ़ी में है, परन्तु जिस क्षेत्र में भगवान राम से उनकी सर्वप्रथम भेंट हुई, तत्पश्चात उनसे विवाह संपन्न हुआ, वह क्षेत्र जनकपुरी में है। मिथिला चित्रों में राम-जानकी विवाह का दृश्य एक लोकप्रिय विषयवस्तु है।
मिथिला क्षेत्र की अन्य विशेषताएं हैं, यहाँ स्थित असंख्य जलाशय, उनमें तैरती विविध प्रकार की मछलियाँ जिन्हें यहाँ रूचिपूर्वक ग्रहण किया जाता है, मखाने जिनकी यहाँ प्रचुर मात्रा में खेती की जाती है, यहाँ की मधुर भाषा तथा यहाँ के आनंदमय निवासी। यह मुख्यतः एक कृषि प्रधान क्षेत्र है।
मिथिला एवं मधुबनी चित्रकला की अनमोल धरोहर
मिथिला चित्रकला पारंपरिक रूप से एक भित्तिचित्र कलाशैली थी जो स्त्रियाँ अपने घरों की भित्तियों पर चित्रित करती थीं। वे अनुष्ठानिक चित्र हुआ करते थे जिन्हें बहुधा विवाहोत्सवों, प्रसवोत्सवों तथा अन्य पावन उत्सवों पर चित्रित किया जाता था।
मिथिला चित्रों को स्थायी रूप से चित्रित करने का उद्देश्य नहीं होता था। जब भी घर में कोई नवीन उत्सव अथवा अनुष्ठान होता था तब उन्हें पुनः नवीन रूप से चित्रित किया जाता था।
किसी भी अन्य लोककला के अनुसार मिथिला चित्रों में भी विविध कथानकों एवं प्रस्तुतीकरण शैलियों का समावेश किया जाता था। इस परंपरा से संयुक्त प्रत्येक समुदाय के स्वयं के विशेष रूपांकन आकृतियाँ एवं चिन्ह होते थे जिन्हें वे अपने चित्रों में चित्रित करते थे।
वर्तमान में मिथिला चित्रकला शैली का इस स्तर तक व्यवसायीकरण हो गया है कि अब सामुदायिक वैशिष्ठ्य लुप्त होने लगा है। अब स्थिति यह है कि कलाकारों की स्वयं की व्यक्तिगत चित्रण शैलियाँ अवश्य हैं किन्तु चित्रों के विषय, उपभोक्ता माँग द्वारा ही निर्धारित होते हैं।
मधुबनी चित्रों का आधुनिक रूप
मधुबनी चित्रों ने सर्वप्रथम मिथिला के बाहर के प्रेक्षकों का ध्यान अपनी ओर तब आकर्षित किया जब सन् १९३० में आये भूकंप के पश्चात भूकंप में हुए विनाश का सर्वेक्षण करने के लिए कुछ अंग्रेज सर्वेक्षकों ने इस क्षेत्र की यात्रा की थी। किन्तु मिथिला के इन मधुबनी चित्रों को मिथिला का प्रतीक बनने के लिए एक अन्य भूकंप के आने तक की प्रतीक्षा करनी पड़ी।
सन् १९६० में आये एक अन्य भूकंप के पश्चात सामाजिक कार्यकर्ता एवं लेखक पुपुल जयकर ने छायाचित्रकार भास्कर कुलकर्णी को मधुबनी क्षेत्र में हुए विनाश का सर्वेक्षण करने के लिए वहाँ भेजा। उन्होंने विचार किया कि एक नवीन व्यवसाय के रूप में यदि इन भित्ति चित्रों को अन्य माध्यमों पर भी चित्रित किया जाए तो ये भूकंप से पीड़ित किसानों के लिए उनके दुष्काल में आजीविका का एक उत्तम स्त्रोत उत्पन्न कर सकते हैं।
तब से कलाकारों ने इन चित्रों को कागज जैसे अन्य माध्यमों पर चित्रित करना आरम्भ किया जिनकी वे आसानी से विक्री कर सकते थे। विश्व स्तर पर कई प्रदर्शनियों का आयोजन किया गया ताकि इस अप्रतिम कला शैली को विश्व भर में पहुँच प्राप्त हो सके। तात्कालिक विदेश मंत्री ललित नारायण मिश्र, जो इसी क्षेत्र के निवासी थे, उनके अथक प्रयास से इस कलाशैली को अंतर्राष्ट्रीय मंच उपलब्ध हुआ। Ethnic Arts Foundation जैसी संस्थाओं ने भी इस कार्य में अपना योगदान दिया।
शनैः शनैः मधुबनी चित्रों ने वैश्विक कला जगत में अपने लिए एक सुदृढ़ स्थान निर्मित कर लिया। अब सम्पूर्ण विश्व में भित्ति चित्रों पर मधुबनी चित्र का भी समावेश दृष्टिगोचर होता है। चूँकि अधिकाँश देशी-विदेशी कला प्रेमियों ने मधुबनी के माध्यम से ही इन चित्रों को जाना है, इसलिए इन्हें मधुबनी चित्रकला कहा जाता है। अन्यथा पारंपरिक रूप से देखें तो ये अनुष्ठानिक कला शैली थी जिसका प्रचलन सम्पूर्ण मिथिलांचल में था।
कदाचित उन्होंने स्वप्न में भी नहीं सोचा होगा कि एक दिवस सम्पूर्ण विश्व में मधुबनी चित्रकला उनकी सांकेतिक परिचय के रूप में प्रसिद्धी प्राप्त करेगी।
मधुबनी चित्रों के विविध प्रकार
मधुबनी चित्रों को दो आधारों पर विभाजित किया जा सकता है।
प्रथम आधार है, जाति अथवा समुदाय। प्रत्येक चित्रकार अपने समुदाय के ऐतिहासिक धरोहरों एवं सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने पर आधारित विषयवस्तुओं को अपने भित्तिचित्रों के माध्यम से साकार करता है। किन्तु उन सभी समुदायों अथवा जातियों की कलाशैली में एक तत्व सार्व है। वे चाहे ब्राह्मण हो, क्षत्रिय हों, कायस्थ हों अथवा पासवान हों, वे सभी एक ही कलाशैली में भित्ति चित्रण करते हैं। वह है, मधुबनी चित्रकला शैली।
चित्रों के विभाजन का दूसरा आधार है, चित्रकला शैली। इस आधार के तीन अवयव हैं।
कछनी शैली – इस शैली में कलाकार मुक्त हाथों से रेखाचित्र बनाते हैं।
भरनी – भरनी का अर्थ है भरना। रेखाचित्र के भीतर विविध रंगों को भरा जाता है।
मधुबनी चित्रों की रचना कछनी एवं भरनी इन दोनों के संगम से ही होती है। मधुबनी चित्रकला शैली में अधिकाँश दृश्य इन दो तकनीकों द्वारा ही साकार किये जाते हैं।
गोदना – गोदना एक पारंपरिक कला है जो सम्पूर्ण भारत में लगभग सभी समुदायों में प्रचलित थी। इस कला में शरीर के विभिन्न अंगों पर पारंपरिक आकृतियाँ गुदवायी जाती थीं। चूँकि ये आकृतियाँ शरीर के उन भागों पर गुदवायी जाती थीं जो बहुधा ढंके हुए नहीं होते थे, जैसे हाथ, गला, मुख आदि, ये आकृतियाँ आकार में लघु होती हैं।
जब इन गुदना आकृतियों को कागज पर चित्रित करने का क्रम आरम्भ हुआ तब अनेक आकृतियों को संयुक्त कर एक चित्र बनाने की परंपरा आरम्भ हुई। गुदना आकृतियों से निर्मित चित्र अधिक ज्यामितीय होते हैं तथा अधिक भरे हुए प्रतीत होते हैं।
तांत्रिक चित्र – ये चित्र वे कलाकार चित्रित करते हैं जो उपासना के अंतर्गत तंत्र पथ के अनुयायी हैं। ये अधिकांशतः शक्ति के उपासक होते हैं। उनके चित्रों में सामान्यतः दश महाविद्या जैसे देव एवं उनके यंत्र होते हैं। कभी कभी वे केवल यंत्रों को ही चित्रित करते हैं।
साधना एवं उपासना में इन चित्रों का प्रयोग किया जाता है।
कोहबर – विवाहोत्सवों के लिए अनुष्ठानिक चित्र
ये विवाहोत्सव अनुष्ठानिक चित्र वर-वधु के कक्ष की भित्तियों पर चित्रित किये जाते हैं। यह परंपरा मिथिला के सभी समुदायों में प्रचलित है। इन चित्रों में विभिन्न प्रजनन एवं समृद्धि चिन्ह होते हैं। इन्हें सामान्यतः कक्ष की पूर्वी भित्ति पर चित्रित किया जाता है।
इन चित्रों के प्रमुख अवयव हैं:-
- चित्र के मध्य में कमल का पुष्प होता है जिसकी पंखुड़ियां बाहर की ओर खुलती हैं।
- वनस्पतियों एवं प्राणियों के चित्र जैसे बांस, मोर आदि।
- शिव एवं पार्वती
- विवाह सम्बन्धी अनुष्ठान जैसे वर-वधु द्वारा पूजा आदि।
- विवाह उत्सव का दर्शन करते तथा वर-वधु को आशीष देते सूर्य, चन्द्र तथा अन्य ग्रह।
भिन्न भिन्न समुदायों एवं परिवारों में प्रचलित चित्रों की सूक्ष्मताओं में भिन्नता हो सकती है किन्तु व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो इन चित्रों का मुख्य उद्देश्य होता है, नव वर-वधु के लिए संरक्षण, सौभाग्य एवं आशीष की मांग करना।
पूर्व में कोहबर चित्रों को विवाह उत्सवों के उपलक्ष्य में भित्तियों पर नवीन रंगा जाता था। किन्तु अब अधिकतर लोग कागज में पूर्व में ही चित्रित चित्रों को क्रय कर लाते हैं तथा अपनी भित्तियों पर चिपकाते हैं। यहाँ तक कि दिग्गज चित्रकारों के घरों में भी हमने कागज पर चित्रित चित्र ही देखे।
व्यक्तिगत शैलियाँ
प्रत्येक कलाकार अथवा चित्रकार की एक व्यक्तिगत शैली होती है जिसमें आकृतियों एवं रंगों का उसका व्यक्तिगत चयन होता है। यद्यपि गंगा देवी जैसे ख्यातिप्राप्त कलाकारों की शैलियों का रीतिसर अभ्यास हुआ है एवं प्रलेखन हुआ है, तथापि प्रत्येक चित्रकार की अपनी विशिष्ट शैली होती है जिनका रीतिसर अभ्यास एवं प्रलेखन अभी शेष है।
मधुबनी चित्रों में प्रयुक्त रंग
आप सबने कभी ना कभी कहीं ना कहीं मधुबनी चित्र अवश्य देखे होंगे। यदि मैं आपसे आग्रह करूँ कि आप अपने नेत्र बंद कर लें , तथा यह बताएं कि उन चित्रों में कौन से रंगों का प्रयोग किया गया था, तो आप अवश्य यह कहेंगे कि आपने मुख्यतः काले रंगों की रेखाएं देखी हैं जिनके मध्य कुछ रंग भरे गए हैं। आपको गहरे पीले अथवा मटमैले श्वेत रंग की पृष्ठभूमि पर श्याम एवं लाल रंग में कलाकृतियाँ दृश्यमान होंगी।
कागज पर गाय के गोबर का लेप लगाकर धूप में सुखाया जाता है जिससे गहरे पीले रंग की पृष्ठभूमि तैयार होती है।
अधिकाँश भारतीय चित्रण परम्पराओं के अनुरूप मिथिला चित्रों में भी प्राकृतिक रंगों का प्रयोग किया जाता है जो प्राकृतिक स्त्रोतों द्वारा प्राप्त होते हैं, जैसे वनस्पति, पुष्प, पत्तियाँ, फल तथा कालिख जैसी अन्य गृह वस्तुएं। यद्यपि कुछ चित्रकार अब भी गेरु का प्रयोग करते हैं, तथापि अधिकाँश चित्रकारों का रुझान आसान, सुलभ एवं चिरस्थायी कृत्रिम रंगों के प्रयोग की ओर होने लगा है।
भारत एक ऐसा देश है जहाँ लोगों को विविध रंग अत्यंत प्रिय हैं, वह भी चटक उजले रंग। इसलिए पारंपरिक चित्रों में चटक उजले रंगों का प्रयोग किया जाता था, जैसे बैंगनी, उजला पीला, चटक हरा आदि।
श्वेत-श्याम मधुबनी चित्र
जैसे जैसे यह कला व्यावसायीकरण के चंगुल में फंसने लगी है, रंगों के चयन पर ग्राहकों का अधिपत्य बढ़ने लगा है। अब उपभोक्ताओं की मांग के अनुसार रंगों का चयन किया जा रहा है। सन् १९६० के पश्चात के दशकों से हमें इन चित्रों में श्वेत एवं श्याम रंगों की प्राधान्यता दृष्टिगोचर होने लगी है। इनके साथ कुछ सौम्य रंगों का प्रयोग किया जाता है। उन्हें देख यह अनुमान लगा सकते हैं कि इन रंगों का चयन पाश्चात्य देशों की मांग पर किया गया होगा क्योंकि वहाँ इन रंगों का प्रचलन अधिक है।
इन कलाकारों एवं वैश्विक बाजार के मध्य मध्यस्थता करने वाले बिचौलिये भी इन रंगों के चयन को प्रभावित करने लगे। यहाँ तक कि ये बिचौलिये विभिन्न समुदायों के कलाकारों से विशेष रंगों एवं आकृतियों का ही प्रयोग करने का आग्रह करने लगे हैं ताकि वे विभिन्न शैलियों को स्पष्ट रूप से परिभाषित कर सकें।
जहाँ तक लोक कला शैलियों का प्रश्न है, वे कभी किसी सीमा में नहीं बंधे हैं। वे किसी सीमा के भीतर विकसित नहीं हुए हैं। ना ही उन्हें कभी किसी सीमा में बांधकर रखा जा सका है। किन्तु कला क्षेत्र से सम्बंधित बाजार में इन कलाकृतियों की मांग को उत्पन्न करने के लिए उनकी शैलियों को सीमाबद्ध करना आवश्यक हो जाता है। गत कुछ दशकों से मिथिला चित्रकला का विकास इसी सीमाबद्ध शैली के अंतर्गत हो रहा है।
मिथिला में मधुबनी चित्रकारों के गाँवों का भ्रमण
हमारी मिथिला यात्रा के समय हमारी तीव्र अभिलाषा थी कि हमें कुछ ऐसे गाँवों के भ्रमण का अवसर प्राप्त हो जहाँ से ऐसी महिला कलाकारों का उदय हुआ हो जिन्हें पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।
मैं ऐसे एक गाँव की कल्पना करने लगी जहाँ प्रत्येक गृह की भित्तियों पर मधुबनी चित्रकारी की गयी है। उस समय हम दरभंगा में ठहरे हुए थे। दरभंगा में तो मुझे कहीं भी ये चित्र दृष्टिगोचर नहीं हुए, अपवाद स्वरूप कुछ सरकारी संरचनाओं को छोड़कर। इन संरचनाओं पर पारंपरिक एवं आधुनिक दोनों दृश्यों को चित्रित किया गया था। मुझे कोई गाँव मेरी कल्पना के अनुरूप दिखाई नहीं दिया।
हमने मधुबनी नगरी का भ्रमण करने का निश्चय किया। मुझे यह जानकारी थी कि कम से कम मधुबनी रेल स्थानक की भित्तियों पर अत्यंत सूक्ष्मता एवं दक्षता से मधुबनी चित्रों का चित्रण किया गया है। मुझे अब भी महाराष्ट्र के रत्नागिरी रेल स्थानक का स्मरण है जहाँ की भित्तियों पर वारली चित्रों का प्रदर्शन किया गया है।
अंततः हमारे भाग्य ने हमारा साथ दिया जब हमारी भेंट इतिहासकार डॉ. नरेन्द्र नारायण सिंग ‘निराला’ जी से हुई जो मधुबनी चित्रकला शैली के विशेषज्ञ हैं। उन्होंने मिथिला चित्रों के आधुनिक स्वरूप का विस्तार से वर्णन किया। उन्होंने हमें बताया कि किस प्रकार Ethnic Arts Foundation जैसी संस्थाएं इसके विकास में अपना योगदान दे रही हैं।
निराला जी ने हमें ऐसी कई संस्थाओं के विषय में बताया जिनकी स्थापना विशेष रूप से इस कला शैली का प्रशिक्षण देने के लिए ही की गयी है। उन्होंने बताया कि यूँ तो मिथिला चित्र मिथिला में सर्वत्र दृष्टिगोचर होते हैं किन्तु बाह्य विश्व में जिन चित्रों की विक्री होती है वे मधुबनी चित्र के नाम से जाने जाते हैं।
निराला जी हमें विभिन्न ग्रामों में ले गए जहाँ हमारी भेंट भिन्न भिन्न चित्रकारों से हुई। हमने प्रत्येक गाँव की विशेष शैलियों को भी देखा व समझा। इसके पश्चात उन्होंने हमें कुछ पुरातन मिथिला चित्र भी दिखाए जो उनके व्यक्तिगत संग्रह थे।
जितवारपुर ग्राम
जितवारपुर ग्राम मुख्यतः मधुबनी चित्रों के लिए जाना जाता है।
हमने सर्वप्रथम कृष्ण कान्त झा जी से उनके निवासस्थान पर ही भेंट की। वे एक महापात्रा ब्राह्मण हैं। वे मुख्यतः रामायण एवं महाभारत जैसे महाकाव्यों के भव्य दृश्यों का चित्रण करते हैं। हम जब वहाँ गए थे तब वे हनुमान के चित्रों पर कार्य कर रहे थे। उन्होंने हमें उनको इन चित्रों को रंगते हुए देखने की अनुमति भी दे दी थी।
उन्होंने सर्वप्रथम अनेक सीधी रेखाओं द्वारा चित्र के सीमावर्ती भागों को रेखांकित किया। तत्पश्चात उन्होंने उन सीधी रेखाओं के मध्य भागों को त्रिकोणीय आकृतियों से भर कर चित्र की किनारी तैयार की। उन्हें देख कर यह बोध हुआ कि सभी मिथिला चित्रों की यही किनारी होती है।
इसके पश्चात उन्होंने रेखांकन करते हुए पर्वत धारी हनुमान जी की छवि को चित्रपटल पर उतारा। मुक्त हाथों से रेखांकन करते उनके हाथ स्वच्छंदता से चित्रपटल पर हनुमान जी की छवि को साकार कर रहे थे। काली स्याही में डूबी कूची के अतिरिक्त वे किसी भी अन्य चित्रकारी सामग्री का प्रयोग नहीं कर रहे थे।
श्याम रंग द्वारा रेखांकन समाप्त होते ही वे अथवा उनके परिवार के सदस्य उन में रंगों को भरने का कार्य करते हैं जिसके पश्चात वह चित्र पूर्ण होगा। अधिकाँश चित्र सम्पूर्ण परिवार के संयुक्त प्रयासों का फल होते हैं। मुख्य चित्रकार दृश्य अथवा छवि को रेखांकित करता है। इसके पश्चात परिवार के अन्य सदस्य उनमें रंग भरते हैं।
कृष्ण कान्त झा जी हमें अत्यंत निर्मल व निश्छल व्यक्ति प्रतीत हुए। यदि आप उनके निवास के सामने से जायेंगे तो आपको यह अनुभव ही नहीं होगा कि यह एक सफल व्यावसायिक कलाकार का घर है। वे अपने घर से ही अपने चित्रों की विक्री करते हैं। इसके अतिरिक्त वे विद्यार्थियों को इस कला शैली का प्रशिक्षण देने के लिए भिन्न भिन्न स्थलों का भ्रमण भी करते हैं। अनेक सार्वजनिक अथवा व्यक्तिगत स्थानों की भित्तियों पर मधुबनी चित्र बनाने के लिए उन्हें आमंत्रित भी किया जाता है।
शानू पासवान का गृह
कृष्ण कान्त झा जी से भेंट करने के पश्चात हमने एक गाँव के भीतर प्रवेश किया। हम पासवान समुदाय की चित्रकला शैली से अवगत होना चाहते थे। यहाँ अवश्य हमें कुछ घर ऐसे दिखे जिनकी भित्तियों पर मधुबनी चित्रकारी की हुई थी। शानू पासवान जी के निवास में हमने गोदना शैली में चित्रित अनेक चित्र देखे। शीला देवी जी से भी हमारी भेंट हुई जिनका बाह्य कक्ष चित्रों से भरा हुआ था। उनमें कुछ पर अब भी कार्य शेष था।
हमने पासवान समुदाय के स्थानीय अनुष्ठान सम्बन्धी चित्र भी देखे, जैसे राहु पूजा आदि। पासवान समुदाय के लोक देवता राजा सलहेस अथवा सल्हेश से संबंधित कथाओं पर आधारित चित्र भी देखे। इस समुदाय के मधुबनी चित्रों में बाघों की छवि का प्रयोग बहुलता से किया जाता है।
उन चित्रों को देख मुझे तेलंगाना के चेरियल चित्रों का स्मरण हो आया।
कृष्णानंद झा के तांत्रिक चित्र
चित्रकार कृष्णानंद झा के निवास तक पहुँचने के लिए हमें खेतों के मध्य से होकर जाना पड़ा। इन खेतों के अंतिम छोर पर उनका निवासस्थान था। वहाँ स्व. कृष्णानंद झा की पत्नी ने हमारा अतिथी सत्कार किया। उन्होंने हमें अपने पति द्वारा चित्रित सभी चित्रों के छायाचित्र दिखाए।
इसके पश्चात उन्होंने हमारे समक्ष चित्रों की एक गड्डी खोली। उनमें दश महाविद्या एवं भगवान विष्णु के दशावतारों पर चित्रित अनेक चित्र थे। ये सभी चित्र भिन्न भिन्न अनुष्ठानों से संबंधित थे जो ग्राहकों की विशेष मांग पर बनाए गए थे।
पद्मश्री गोदावरी दत्त
अंत में हम पद्मश्री गोदावरी दत्त जी से भेंट करने रांटी गाँव पहुँचे। उनके आगंतुक कक्ष की भित्ति पर जो कोहबर चित्र चित्रित था, वो मेरे देखे अब तक के सर्वाधिक सुन्दर कोहबर चित्रों में से एक था। ९० वर्ष को पार कर चुकी गोदावरी जी की सक्रियता अब ढलान पर थी। फिर भी उन्होंने प्रसन्नता से हमारा स्वागत किया एवं माता सुलभ प्रेम से हमारा अतिथि सत्कार किया।
उनकी पुत्रवधु अंजनी देवी जी ने हमें उनके निवासस्थान में प्रदर्शित सभी कोहबर चित्र दिखाए तथा उस शैली के विषय में जानकारी दी। वे कायस्थ समुदाय से संबंध रखती हैं। उनके चित्रों में श्वेत, श्याम एवं लाल रंगों की प्राधान्यता थी।
गोदावरी दत्त जी द्वारा चित्रित अनेक चित्रों को जापान के टोकामाची नगर में स्थित मिथिला संग्रहालय में प्रदर्शित किया गया है। इस संग्रहालय के संग्रह को विकसित करने के लिए उन्होंने जापान की अनेक यात्राएं की हैं।
दरभंगा में मधुबनी साड़ी कलाकेन्द्र
दरभंगा में हमने राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त मधुबनी कलाकार आशा झा जी के कला केंद्र का अवलोकन किया। चित्रों के साथ साथ उन्हें साड़ियों एवं दुपट्टों पर मधुबनी चित्रण का भी वैशिष्ठ्य प्राप्त है।
उनकी पुत्री ने मुझे एक पाग एवं एक दुपट्टा भेंट स्वरूप प्रदान किया। अतिथियों को मधुबनी चित्रों द्वारा सज्जित ये उपहार वस्तुएं प्रदान करने की उनकी विशेष परंपरा है। मैथिलि ब्राह्मण ये पाग तथा दुपट्टे औपचारिक अवसरों व उत्सवों पर धारण करते हैं। आप यदि इन्हें अपने सर पर धारण कर लें तो आप अपना सर अधिक हिला-डुला नहीं सकते।
आशा झा के कला केंद्र में निर्मित विशेष साड़ियों की अत्यधिक मांग है। उन साड़ियों पर उनके द्वारा चित्रित मधुबनी चित्र भी विशेष रूप से आग्रहीत होते हैं। इनके विषय में अधिक जानकारी के लिए आशा झा की मधुबनी पेंट्स इस वेबस्थल पर जाएँ अथवा उनके IG हैंडल से संपर्क करें।
मधुबनी यात्रा के लिए कुछ आवश्यक सुझाव
मधुबनी देश के अन्य भागों से रेल मार्ग तथा सड़क मार्ग द्वारा सुगमता से जुड़ा हुआ है। निकटतम नगर तथा हवाई अड्डा दरभंगा है।
जितवारपुर का मुख्य परिचय है, मधुबनी कलाकारों का ग्राम।
स्वयं अपने बलबूते पर इन गाँवों तक पहुँचना आसान नहीं है। इन गाँवों तक आपको पहुँचाने के लिए किसी भी प्रकार के यात्रा नियोजक उपलब्ध नहीं है। इसके लिए सर्वोत्तम साधन है कि आप किसी स्थानीय व्यक्ति से संपर्क करें जो आपको इन कलाकारों से भेंट करवा सके।
यदि किसी चित्रकार से भेंट करने में आपकी रूचि नहीं है, आप केवल मधुबनी चित्रों को क्रय करना चाहते हैं तो दिल्ली का ‘दिल्ली हाट’ आपके लिए सर्वोत्तम गंतव्य होगा। मिथिला के अधिकाँश चित्रकार अपनी रचनाएँ नियमित रूप से उस हाट में प्रदर्शित करते हैं।
इन में से कई चित्रकार अपने चित्र ऑनलाइन भी विक्री करते हैं। इसके लिए अमेज़न सर्वोत्तम साधन है।
मधुबनी चित्रकला शैली में प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए पटना के उपेन्द्र महारथी शिल्प अनुसंधान संस्थान से संपर्क करें जो मधुबनी चित्रकला में निशुल्क पाठ्यक्रम संचालित करते हैं।
मधुबनी चित्रकला अवलोकन एवं मिथिला के गाँवों का भ्रमण करने के लिए आप दरभंगा में ठहर सकते हैं जहाँ सुलभ विश्रामगृह उपलब्ध हैं।
आपके द्वारा बहुत अच्छी जानकारी मिली इसके लिए आपका धन्यवाद |