तिरुवन्नमलई में अरुणाचलेश्वर मंदिर और पर्वत – अग्नि लिंग

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अरुणाचलेश्वर अथवा आरुल्मिगु का मंदिर तमिल नाडू के पावन नगर तिरुवन्नमलई में स्थित है। शैवों अर्थात् शिव भक्तों के लिए यह अत्यंत महत्वपूर्ण मंदिर है। इसे विश्व के विशालतम शिव मंदिरों में से एक माना जाता है। अरुणाचल पर्वत की तलहटी पर स्थित इस मंदिर की भव्य संरचना तथा अद्भुत वास्तुकला किसी विशाल गढ़ के समान है।

श्री अरुणाचलेश्वर मंदिर भगवान शिव के पंचभूत क्षेत्रों अथवा स्थलों में से एक है। जीवन के पंचभूत तत्व इस प्रकार हैं, , आकाश, वायु, ,अग्नि, जल तथा पृथ्वी । ऐसी मान्यता है कि भगवान शिव स्वयं अग्नि तत्व के रूप में इस मंदिर में विराजमान हैं। जीवन के अन्य तत्वों से सम्बंधित मंदिर इस प्रकार हैं:

पंचभूत स्थल – जीवन के पंच तत्वों से सम्बंधित मंदिर

जीवन के पंच तत्वों से सम्बंधित भगवान शिव के पांच मंदिर हैं। वे हैं,

  • श्री अरुणाचलेश्वर मंदिर, तिरुवन्नमलई, तमिल नाडू – अग्नि लिंग
  • नटराज मंदिर, चिदंबरम, तमिल नाडू – आकाश लिंग
  • कालाहस्ती मंदिर, कालाहस्ती, आन्ध्र प्रदेश – वायु लिंग
  • जम्बुकेश्वर मंदिर, तिरुवनैकवल, तमिल नाडू – अप्पु लिंग/जम्बु लिंग (जल)
  • एकम्बरेश्वर मंदिर, कांचीपुरम, तमिल नाडू – पृथ्वी लिंग

तिरुवन्नमलई का श्री अरुणाचलेश्वर मंदिर – अग्नि लिंग

इस मंदिर का इतिहास लगभग सहस्त्र वर्ष प्राचीन है। पुराणों में तथा थेवरम एवं थिरुवासगम जैसे तमिल साहित्यों में भी इस मंदिर का गुणगान किया गया है।

तिरुवन्नमलई की इस देवभूमि में आठ दिशाओं में आठ प्रसिद्ध लिंग हैं जिन्हें अष्ट लिंग कहा जाता है। ये लिंग हैं, इन्द्रलिंग, अग्निलिंग, यमलिंग, निरुतिलिंग(नैऋत्य), वरुणलिंग, वायुलिंग, कुबेरलिंग तथा ईशान्यलिंग। ये आठों लिंग पृथ्वी के आठ दिशाओं के द्योतक हैं। ऐसी मान्यता है कि ये आठों शिवलिंग गिरिवलम अथवा गिरिपरिक्रमा कर रहे भक्तों को आशीर्वाद देते हैं। अरुणाचल पर्वत की परिक्रमा को गिरिवलम अथवा गिरिपरिक्रमा कहा जाता है। अनेक भक्तगण यह परिक्रमा करते हैं।

अरुणाचलेश्वर मंदिर की कथा

एक समय सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा तथा सृष्टि के पालनकर्ता विष्णु के मध्य उनकी श्रेष्ठता के विषय पर विवाद उत्पन्न हो गया। इस विवाद पर निष्कर्ष प्राप्त करने के लिए वे भगवान शिव के समक्ष उपस्थित हुए तथा उनसे निर्णय प्रदान करने का निवेदन किया। भगवान शिव ने दोनों की परीक्षा लेने का निर्णय लिया। वे दोनों के मध्य एक विशाल अग्नि स्तम्भ के रूप में प्रकट हो गए जिसके दोनों छोर दृष्टिगोचर नहीं हो रहे थे। उन्होंने ब्रह्मा एवं विष्णु से कहा कि जो उस अग्नि स्तम्भ का छोर सर्वप्रथम खोज निकलेगा, वही सर्वश्रेष्ठ होगा। विष्णु ने वराह का रूप लिया तथा स्तम्भ का छोर ढूँढने के उद्देश्य से धरती के भीतर प्रवेश किया। धरती के भीतर दीर्घ काल तक जाने के पश्चात भी उन्हें उस अग्नि रूपी लिंग का छोर नहीं दिखा। तब भगवान शिव के समक्ष उपस्थित होकर उन्होंने अपनी पराजय स्वीकार कर ली।

अरुणाचलेश्वर मंदिर और अरुणाचलेश्वर पर्वत
अरुणाचलेश्वर मंदिर और अरुणाचलेश्वर पर्वत

वहीं ब्रह्मा ने हंस का रूप धरा तथा स्तम्भ के ऊपरी छोर तक पहुँचने के उद्देश्य से आकाश में ऊपर उड़ गए। दीर्घ काल तक ऊपर की ओर जाने के पश्चात भी उन्हें लिंग का ऊपरी छोर  दृष्टिगोचर नहीं हुआ। वे थक कर चूर हो गए थे किन्तु पराजय स्वीकार करने की मनस्थिति में नहीं थे। तभी अनायास उन्होंने ऊपर से गिरते केतकी पुष्प को देखा। तुरंत उन्होंने उससे स्तम्भ के छोर के विषय में जानना चाहा। केतकी पुष्प ने कहा कि वह चालीस हजार वर्षों से नीचे की ओर गिर रहा है किन्तु उसे स्तम्भ का छोर दिखाई नहीं दिया है। इस पर ब्रह्मा ने केतकी को अपने छल में सम्मिलित करते हुए उसे झूठा साक्षी बनने की आज्ञा दी। ब्रह्मा ने शिव के समक्ष अग्नि लिंग के छोर का दर्शन करने का दावा किया तथा केतकी को साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया। ब्रह्मा के असत्य कथन पर शिव अत्यंत क्रोधित हो गए तथा ब्रह्मा का एक सिर काट दिया। विष्णु के निवेदन पर उन्होंने ब्रह्मा के अन्य सिरों पर प्रहार नहीं किया किन्तु किसी भी मंदिर पर उनकी आराधना पर प्रतिबन्ध लगा दिया। उन्होंने केतकी पुष्प को भी श्राप दिया कि अब शिव आराधना में उसका उपयोग कभी नहीं किया जाएगा। जिस स्थान पर ब्रह्मा व विष्णु के अहंकार को नष्ट करने के लिए यह अग्नि लिंग प्रकट हुआ था, उस स्थान को तिरुवन्नमलई कहते हैं।

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अन्य कथाएं

एक अन्य कथा के अनुसार, देवी पार्वती ने एक क्षण के लिए भगवान शिव के नेत्रों को बंद किया। इससे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में अन्धकार छा गया। अपनी भूल का आभास होते ही वे पश्चात्ताप करने के उद्देश्य से अरुणाचल पर्वत के समीप अपने अनेक भक्तों के साथ बैठकर कठोर तपस्या में लीन हो गयीं। उस समय भगवान शिव पर्वत के ऊपर एक अग्नि स्तम्भ के रूप में प्रकट हुए तथा देवी पार्वती में विलीन हो गए जिससे उनका अर्धनारीश्वर रूप उत्पन्न हुआ। अतः यह पर्वत अत्यंत पावन है तथा इसे भी एक लिंग ही माना जाता है।

इतिहास

इस देवनगरी पर भिन्न भिन्न काल में अनेक राजवंशों का शासन रहा है।  उनमें प्रमुख थे, चोल वंश, होयसल वंश, संगमा वंश, सलवा वंश, तुलु वंश तथा विजयनगर शासन। अधिकाँश शासकों ने इस मंदिर में अनेक प्रकार के चढ़ावे चढ़ाए, जैसे भूदान, धन, गौदान तथा अन्य उपयोगी वस्तुएं। मंदिर में स्थित शिलालेखों पर उन राजवंशों की गौरवगाथाएं आलेखित हैं।

१७वीं सदी में यह मंदिर मुगल शासन के अंतर्गत कर्णाटक के नवाब के आधीन आ गया। अल्प समयावधि के लिए यह टीपू सुलतान के शासन के आधीन भी था। कालांतर में इस पर फ्रांसीसियों तथा उसके कुछ वर्ष उपरान्त अंग्रेजों का अधिपत्य स्थापित हो गया।

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अरुणाचलेश्वर मंदिर की वास्तुकला

यह मंदिर २५ एकड़ के क्षेत्रफल में फैला हुआ है। वर्तमान में जिस विस्तीर्णता व भव्यता से यह मंदिर खड़ा है, वह अनेक सदियों से की जा रही संरचना, विस्तार एवं नवीनीकरण का परिणाम है। अरुणाचल पर्वत की पृष्ठभूमि में स्थित इस मंदिर की संरचना द्रविड़ शैली में की गयी है। मंदिर के सभी भागों में आप हमारे पूर्वजों की अद्भुत कला व कारीगरी प्रत्यक्ष देख सकते हैं।

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अरुणाचलेश्वर मंदिर के प्रमुख तत्व

अरुणाचलेश्वर मंदिर के दर्शन करते समय इन प्रमुख तत्वों को ध्यान में रखें ताकि आप इस मंदिर की अद्भुत वास्तु एवं संरचना की सूक्ष्मता को जान सकें तथा उनका आनंद ले सकें।

गोपुरम

अरुणाचलेश्वर मंदिर का गोपुरम
अरुणाचलेश्वर मंदिर का गोपुरम

मंदिर का मुख पूर्व की ओर है तथा इसके चार प्रमुख दिशाओं में चार गोपुरम हैं। पूर्व दिशा में स्थित गोपुरम सर्वाधिक विशाल है। इसे राज गोपुरम कहते हैं। ग्रेनाईट द्वारा निर्मित इस गोपुरम की ऊँचाई लगभग २१७ फीट है। इसमें ग्यारह तल हैं। अन्य गोपुरमों के नाम हैं, थिरुमंजन गोपुरम ( दक्षिण दिशा), पैगोपुरम(पश्चिम दिशा) तथा अम्मनी अम्मन गोपुरम(उत्तर दिशा)। सभी गोपुरम विभिन्न शिल्पों द्वारा अलंकृत हैं।

प्राकारम

प्राकारम अथवा प्राकार मंदिर के बाहरी क्षेत्र को कहा जाता है जो खुला अथवा ढंका हुआ हो सकता है। यह मंदिर के चारों ओर बनाया जाता है जहां भक्तगण मंदिर की परिक्रमा करते हैं। इस मंदिर में सात प्राकार हैं। उनमें पांच प्राकार मंदिर परिसर के भीतर हैं। मंदिर के परिसर को चारों ओर से घेरती सड़क छठा प्राकार है तथा सम्पूर्ण अरुणाचल पर्वत की परिक्रमा करते पथ को सातवाँ प्राकार माना जाता है।

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मंदिर का जलकुंड

मंदिर परिसर के भीतर दो जलकुंड हैं। राजगोपुरम के निकट शिवगंगई तीर्थम है तथा दक्षिणी गोपुरम की ओर ब्रह्म तीर्थम है।

सहस्त्र स्तम्भ मंडप

मंदिर के मंडप का निर्माण विजयनगर साम्राज्य के राजा कृष्णदेवराया के शासनकाल में किया गया था। इस मंडप में सहस्त्र स्तम्भ हैं। राजगोपुरम से प्रवेश करते समय यह मंडप दायीं दिशा में स्थित है। इन स्तंभों पर भिन्न भिन्न देवी-देवताओं के सुन्दर शिल्प हैं। इस मंडप का प्रयोग विशेष रूप से थिरुमंजनम के समय किया जाता है। थिरुमंजनम के आयोजन में अर्ध-नक्षत्र के अवसर पर भगवान का अभिषेक किया जाता है। इस दिन श्री अरुणाचलेश्वर के अभिषेक के दर्शन हेतु सहस्त्रों भक्तगण इस मंडप में एक साथ बैठते हैं।

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पाथाल लिंगम

पाथाल लिंगम अथवा पाताल लिंग एक भूमिगत कक्ष है। ऐसा कहा जाता है कि रमण महर्षि ने यहाँ ध्यान साधना की थी। रमण महर्षि एक प्रख्यात संत थे जिन्होंने अल्प वय में मृत्यु को पराजित किया था।

कम्बत्तु इल्लैयनार सन्निधि

राजा कृष्णदेवराया द्वारा निर्मित यह सन्निधि अथवा मंदिर सहस्त्र स्तम्भ मंडप के समक्ष स्थित है। इसके भीतर चार कक्ष हैं। सबसे भीतरी कक्ष मूलस्थान है जहां श्री मुरुगन की प्रतिमा स्थापित है। तीसरे कक्ष का प्रयोग पूजा आराधना के लिए किया जाता है। प्रथम एवं द्वितीय कक्ष में ग्रेनाईट पर उत्कृष्ट रूप से उत्कीर्णित संरचनाएं हैं।

शिव गंगा विनायक संनाथी

शिव गंगा सन्निधि
शिव गंगा सन्निधि

विनायक अथवा गणपति को समर्पित यह मंदिर इल्लैयनार संनाथी के पृष्ठभाग में स्थित है। इस मंदिर के ऊपर एक भव्य व विशाल विमान है जिस पर देवी-देवताओं की रंगबिरंगी छवियाँ हैं।

अरुणगिरीनाथर मंडपम

अरुणगिरीनाथर मंडपम अथवा अरुणगिरीनाथ मंडप तमिल संत अरुणगिरीनाथ को समर्पित है। उन्हें सामान्यतः भगवान मुरुगन के समक्ष हाथ जोड़कर नतमस्तक मुद्रा में खड़े हुए दर्शाया जाता है।

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कल्याण सुदर्शन सन्निधि

इस सन्निधि में एक शिवलिंग है। साथ ही देवी पार्वती एवं नंदी के विग्रह भी हैं। इसमें एक विवाह मंडप भी है जहां अनेक भक्तगण विवाह समारोह आयोजित करते हैं।

वल्लला महाराज गोपुरम

इस गोपुरम का निर्माण होयसल राजा वीर वल्लला अथवा वीर बल्लाल ने किया था। इस अटारी में उनकी प्रतिमा भी स्थापित की गयी है। इसी कारण इसका नामकरण वल्लला महाराज गोपुरम हुआ। यहाँ श्री अरुणाचलेश्वर स्वयं वीर वल्लला का श्राद्ध करते हैं क्योंकि राजा की कोई संतान नहीं थी।

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किल्ली गोपुरम

किल्ली गोपुरम का अर्थ है, तोता अटारी। यह गोपुरम श्री अरुणाचलेश्वर की भीतरी गर्भगृह से जुड़ा हुआ है। इस गोपुरम के ऊपर, एक आले के भीतर, गारे में निर्मित तोते का शिल्प है। ऐसी मान्यता है कि संत अरुणगिरीनाथ स्वयं एक तोते के रूप में इस गोपुरम पर विश्राम कर रहे हैं। इस गोपुरम पर राजा राजेन्द्र चोल तथा इस गोपुरम के निर्माता भास्करमूर्ती व उनकी पत्नी की भी प्रतिमाएं हैं। मंदिर में आयोजित शोभायात्राओं के समय सभी उत्सव मूर्तियों को इसी गोपुरम से बाहर लाया जाता है।

कत्ती मंडपम

किल्ली गोपुरम को पार कर सोलह स्तम्भ युक्त एक विस्तृत कक्ष में पहुँचते हैं जिसे कत्ती मंडपम कहते हैं। प्रमुख उत्सवों के समय यहाँ से सभी देवों के दर्शन होते हैं। कार्तिकई दीपम उत्सव पर पावन अरुणाचल पर्वत के शिखर पर दीप स्तम्भ प्रज्ज्वलित किया जाता है। भक्तगण इसी मंडप से उस प्रकाश पुंज के दर्शन करते हैं। इसी मंडप से ध्वज स्तम्भ एवं श्री अरुणाचलेश्वर मंदिर के समक्ष विराजमान एक छोटे नंदी के भी दर्शन होते हैं।

श्री सम्बन्ध विनायक मंदिर

यह मंदिर कत्ती मंडपम के समीप स्थित है। मंदिर के भीतर चटक लाल रंग में भगवान गणेश अथवा विनायक की बैठी मुद्रा में विग्रह है। यह प्रतिमा सम्पूर्ण तमिल नाडू के मंदिरों में स्थापित विशालतम गणेश प्रतिमाओं में से एक है। पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान् गणेश ने एक दानव का वध किया था तथा उसके रक्त से अपने शरीर का लेप किया था। इसी कारण उनकी देह रक्तवर्ण है.

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उन्नमलाई अम्मन मंदिर

इस मंदिर में देवी उन्नमलाईअम्मन के रूप में देवी पार्वती की आराधना की जाती है। यह मंदिर श्री अरुणाचलेश्वर मंदिर संकुल के उत्तर-पश्चिमी कोने में स्थित है। इस मंदिर में नवग्रह मंदिर, कोडेमरा मंडपम, अष्टलक्ष्मी मंडपम तथा गर्भगृह हैं।

श्री अरुणाचलेश्वर मंदिर

श्री अरुणाचलेश्वर मंदिर इस संकुल का सर्वाधिक भीतरी मंदिर है जो पूर्व मुखी है। वे इस मंदिर के प्रमुख देव हैं। इसके गर्भगृह में शिवलिंग है। मंदिर की चारों ओर स्थित भित्तियों पर लिंगोद्भव, नटराज,  दुर्गा तथा अन्य देव-देवताओं के शिल्प हैं। मंदिर के दूसरे प्राकारम में पल्लियारै नामक एक लघु कक्ष है। यह कक्ष शिव-पार्वती का विश्राम कक्ष है। मंदिर में दिवस भर के सभी अनुष्ठानों की समाप्ति के पश्चात, रात्रि के समय देवी पार्वती की प्रतिमा को पालकी में बैठाकर इस कक्ष में लाया जाता है। श्री अरुणाचलेश्वर का प्रतिनिधित्व करती एक प्रतिमा को भी इस कक्ष में लाया जाता है। तत्पश्चात दोनों विग्रहों को एक झूले पर विराजमान किया जाता है। कुछ अतिरिक्त अनुष्ठानों के पश्चात कक्ष को बंद कर दिया जाता है। भगवान् शिव एवं देवी पार्वती प्रातःकाल तक कक्ष में विश्राम करते हैं।

आप यहाँ सुन्देरश्वर, अर्धनारीश्वर तथा अन्य उत्सव मूर्तियों को भी देख सकते हैं जिन्हें विभिन्न उत्सवों में शोभायात्रा के लिए लिया जाता है। दूसरी प्राकारम में ६३ नेयनर तथा शिवलिंग के विभिन्न रूपों के शिल्प हैं। गणपति का एक लघु मंदिर, स्थल विनायक, भी यहाँ स्थित है।

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समयसारिणी

श्री अरुणाचलेश्वर मंदिर के पट प्रातः ५:३० बजे खुलते हैं तथा रात्रि ९:३० बजे बंद होते हैं।

श्री अरुणाचलेश्वर मंदिर के उत्सव

महाशिवरात्रि, नवरात्रि, वैकुण्ठ एकादशी आदि ऐसे उत्सव हैं जो अन्य मंदिरों के समान इस मंदिर में भी मनाये जाते हैं। किन्तु अनेक ऐसे महत्वपूर्ण उत्सव हैं जो विशेष रूप से श्री अरुणाचलेश्वर मंदिर में आयोजित किये जाते हैं। वे हैं:

  • ब्रह्मोत्सवम – यह उत्सव नवम्बर व दिसंबर मास के मध्य, तमिल पंचांग के कार्तिकई मास में मनाया जाता है। इस दस-दिवसीय उत्सव का समापन कार्तिकई दीपम उत्सव से किया जाता है। कार्तिकई दीपम उत्सव पर पावन अरुणाचल पर्वत के शिखर पर दीप स्तम्भ प्रज्ज्वलित किया जाता है। श्री अरुणाचलेश्वर की उत्सव मूर्ति को लकड़ी के रथ पर विराजमान कर अरुणाचल पर्वत की परिक्रमा की जाती है। शिलालेख दर्शाते हैं कि यह उत्सव चोलवंश के काल से मनाया जा रहा है।
  • गिरिवलम – प्रत्येक पूर्णिमा के दिन भक्तगण नंगे पैर अरुणाचल पर्वत की परिक्रमा करते हैं। इस परिक्रमा को गिरिवलम अथवा गिरिपरिक्रमा कहते हैं। यह परिक्रमा में १४ किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती है। ऐसी मान्यता है कि इस परिक्रमा के द्वारा भक्तगणों के पाप धुल जाते हैं तथा उन्हें जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति प्राप्त होती है। परिक्रमा पथ पर अनेक छोटे-बड़े मंदिर, गुफाएं तथा जलकुंड हैं जहां भक्त भेंट चढ़ाते हैं। परिक्रमा पथ के आठ दिशाओं में अष्टलिंग स्थापित हैं।
  • तिरुवूदल – यह उत्सव तमिल पंचांग के थाई मास में मनाया जाता है जो अंग्रेजी पंचांग के जनवरी मास में आता है। इस दिन नंदी को फलों, भाजियों एवं मिष्ठान से बने पुष्पहार से अलंकृत किया जाता है। मंदिर के विभिन्न उत्सव मूर्तियों की शोभायात्रा निकाली जाती है। भगवान शिव एवं देवी पार्वती के मध्य हुए दिव्य विवाद को अभिनीत किया जाता है। विवाद के पश्चात देवी अकेली ही कक्ष के भीतर जाती हैं तथा कक्ष का द्वार बंद कर देती हैं। भगवान शिव समीप स्थित मुरुगन मंदिर में रात्रि व्यतीत करते हैं।

यात्रा सुझाव

  • श्री अरुणाचलेश्वर मंदिर में पारंपरिक परिधान की अपेक्षा की जाती है। अतः आप इस पर विशेष रूप से ध्यान केन्द्रित करें। छोटे वस्त्रों की अनुमति पुरुष एवं स्त्रियों दोनों को नहीं है।
  • चेन्नई एवं बंगलुरु से यहाँ आसानी से पहुंचा जा सकता है।
  • ठहरने के लिए भरपूर्ण संख्या में उत्तम सुविधाएं उपलब्ध हैं। किन्तु उत्सवों के समय पूर्व नियोजन आवश्यक है।
  • भक्तगण यदि गिरिवलम करना चाहें तो मंदिर संस्थान एवं नगर प्रशासन द्वारा विभिन्न सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती हैं।
  • मंदिर संस्थान द्वारा भी मंदिर के विश्राम गृह में नाममात्र शुल्क पर ठहरने की सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती हैं।
  • मंदिर परिसर के भीतर सभी सूचनाएं तमिल भाषा में हैं। अतः आप आवश्यक जानकारियाँ एवं सूचनाएं गोपुरम के सुरक्षाकर्मियों से अथवा मंदिर के कार्यालय से प्राप्त कर सकते हैं।
  • उन्नमलाईअम्मन मंदिर के समीप स्थित प्रसाद खिड़की पर मंदिर का प्रसाद उपलब्ध होता है।

अन्य निकटवर्ती पर्यटन स्थल

रमण महर्षि आश्रम

रमण महर्षि आश्रम
रमण महर्षि आश्रम

रमण महर्षि एक महान संत थे जिन्होंने १६ वर्ष की अल्पायु में मृत्यु को चुनौती दी थी। रमण महर्षि का आश्रम गिरिवलम पथ पर स्थित है। आश्रम में उनकी समाधि है। रमण महर्षि द्वारा दी गयी शिक्षा का उनके अनुयायी पूर्ण श्रद्धा से पालन करते हैं। वे उनका आशीष प्राप्त करने के लिए इस आश्रम में आते हैं। आश्रम में विश्राम गृह की सुविधा उपलब्ध है। आश्रम में पुस्तकालय, भोजन कक्ष, गौशाला तथा एक विक्री केंद्र भी हैं। इस आश्रम में मातृभाषेश्वर मंदिर भी है। रमण महर्षी आश्रम अत्यंत रम्य व मनोरम है। यहाँ आप एक दिव्यात्मा की उपस्थिति एवं शान्ति का अनुभव करेंगे।

स्कंदाश्रम

यह आश्रम मंदिर के समक्ष एक पहाड़ी पर स्थित है। रमण महर्षी ने सन् १९१६ से सन् १९२२ तक इस आश्रम में निवास किया था। स्कंदाश्रम जाते समय आप ऊंचाई से श्री अरुणाचलेश्वर मंदिर का भव्य परिदृश्य देख सकते हैं।

विरूपाक्ष गुफा

ऐसी मान्यता है कि यह गुफा ऋषि विरूपाक्ष की समाधि स्थल है। यह गुफा ॐ के आकार की है।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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