देहू – संत तुकाराम की पावन नगरी

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महाराष्ट्र भक्ति आंदोलन के संत-कवियों की भूमि रही है। वहाँ के सर्वाधिक लोकप्रिय संतों में एक नाम है, देहू के संत तुकाराम! उन्हे उनके सर्वप्रिय, सरल व अत्यंत मार्मिक अभंगों के लिए जाना जाता है जिन्हे भक्तगण भक्ति से आज भी गाते हैं। उनकी रचनाएं जितनी कीर्तनों में प्रसिद्ध है, उतनी ही भक्ति एवं उल्हास से उन्हे संगीत कार्यक्रमों में भी गाया जाता है।

संत तुकाराम की लगभग सभी रचनाएं मराठी भाषा में लिखी गयी हैं। मराठी भाषा से अभ्यस्त ना होने के कारण मैं उन्हे पढ़कर समझ नहीं पाती थी। किन्तु उनमें निहित भक्तिभाव के कारण मैं उन्हे सुनती अवश्य थी। उन्हे सुनने में मुझे अत्यंत आनंद आता था। इसीलिए उनकी रचनाओं के हिन्दी भाषा में अनुवाद ढूंढते ढूंढते मैं पुणे के निकट स्थित देहु में उनके गाँव पहुँच गयी।

संत तुकाराम के विषय में तथा उनकी रचनाओं के विषय में अधिक ज्ञान प्राप्त करने की उत्सुकता मन में उत्पन्न हो रही थी। उनकी केवल एक छवि देखी थी जिसमें वे अपने हाथों में इकतारा उठाए हुए भजन गा रहे हैं। ठीक मीरा बाई जैसे, जो उनकी समकालीन संत-कवियित्री रही होंगी।

देहु का भक्तिमय इतिहास

संत तुकाराम १७ वीं सदी के आरंभिक काल के संत थे। देहु श्री क्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध हो चुका था। उसे पांडुरंग विट्ठल का प्रिय स्थल माना जाता था।

हम सब जानते हैं कि भगवान विष्णु के विट्ठल स्वरूप का निवास स्थान पंढ़रपुर रहा है जहाँ पत्नी रखमा के साथ उनकी पूजा आराधना की जाती रही है। फिर देहु कब एवं कैसे पवित्र नगरी की श्रेणी में आ गया?

देहू इंद्रायणी नदी के तट पर स्थित है। इन्द्र के आगमन की कथा से इसका संबंध माना जाता है। इंद्रायणी नदी भीमा नदी की सहायक नदी है। आप सब जानते हैं कि भीमा नदी वह लोकप्रिय नदी है जिसके उद्गम स्थल पर प्रसिद्ध भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग स्थित है। आगे चल कर भीमा नदी पंढ़रपुर भी जाती है।

संत तुकाराम कीर्तनकार विश्वम्भर बुवा के आठवें वंशज है जो देहु में निवास करते थे। विश्वम्भर बुवा पांडुरंग के असीम भक्त थे। वे प्रत्येक पक्ष की एकादशी के दिवस अपने पांडुरंग से भेंट करने पंढ़रपुर अवश्य जाते थे। हम सब जानते हैं कि एकादशी के दिन सभी विष्णु भक्त उपवास करते हैं तथा आत्मसंयम का पालन करते हैं।

जब विश्वम्भर बुवा वयोवृद्ध होने लगे तब उन्हे प्रत्येक एकादशी के दिवस पंढ़रपुर पहुँचने में कठिनाई होने लगी। उन्होंने पांडुरंग से निवेदन किया कि वे उनका मार्गदर्शन करें तथा उन्हे इस दुविधा से बाहर निकालें। पांडुरंग, जिन्हे विठोबा भी कहते हैं, उन्होंने उनके स्वप्न में प्रकट होकर उन्हे दर्शन दिये तथा उन्हे आज्ञा दी कि वे एक ऐसे स्थान की खोज करें जहाँ उन्हे तुलसी के पत्ते, पुष्प एवं बुक्का दिखाई दें। विठोबा ने उन्हे उस स्थान को उत्खनित करने की आज्ञा भी दी।

आगामी प्रातः को विश्वम्भर बुवा इन तीनों वस्तुओं की खोज में निकाल गये। मार्ग में एक आमराई के मध्य उन्हे ये तीनों वस्तुएं दृष्टिगोचर हुईं। उन्होंने उस स्थान को उत्खनित करना आरंभ किया। महत् आश्चर्य! तत्काल  वहाँ से उन्हे श्री विट्ठल एवं रखमाबाई की मूर्तियाँ प्राप्त हुईं। तात्पर्य, भगवान ने स्वयं भक्त के समीप जाने का निर्णय लिया क्योंकि वह भक्त अब यात्रा करने में असमर्थ होने लगा था।

इंद्रायणी नदी के तट पर इन मूर्तियों की विधिविधान से स्थापना की गयी तथा चहुँओर मंदिर का निर्माण किया गया। इन मूर्तियों को स्वयंभू माना जाता है।

संत तुकाराम

बालक तुकाराम का जन्म एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। उन्होंने अपने पिता से व्यापार एवं कृषि संबंधी शिक्षा ग्रहण की थी। किन्तु उनके अल्प वय में ही उनके माता-पिता का स्वर्गवास हो गया। पारिवारिक व्यापार का पूर्ण उत्तरदायित्व उनके कंधों पर आ गया था। वे अपने व्यापार में कुशल थे। किन्तु परिवार में हुए कई आकस्मिक मृत्यु शोकों के पश्चात उन्हे अपने व्यापारिक गतिविधियों से विरक्ति होने लगी थी।

संत तुकाराम महाराज देहू
संत तुकाराम महाराज देहू

उन्होंने भंगिरी पर्वत पर बिना अन्न-जल ग्रहण किये १५ दिवसों तक तपस्या की। इसके पश्चात जब वे पर्वत से नीचे उतरे, उनका मुख-मंडल एक संत के अनुरूप तेजस्वी प्रतीत होने लगा था। उन्होंने अभंग लिखना एवं उन्हे गाना आरंभ किया। वे संत ज्ञानेश्वर, नामदेव, एकनाथ तथा कबीर जैसे कवि-संतों से अत्यधिक प्रभावित थे।

एक दिवस एक मनमुटाव के चलते खिन्न मन से उन्होंने अपने अभंगों की पुस्तकों को इंद्रायणी नदी में बहा दिया तथा नदी के तट पर एक शिलाखंड के ऊपर बैठकर तपस्या करने लगे। बिना अन्न-जल ग्रहण किये उन्होंने १३ दिवसों तक तपस्या की। उनकी सभी पुस्तकें जल पर तैरती रहीं। उनका तनिक भर भी क्षय नहीं हुआ था। इस शिलाखंड के चारों ओर अब एक मंदिर बनाया गया है।

ऐसी मान्यता है कि संत तुकाराम ने अभंग गाते हुए सदेह ही परलोक प्रस्थान किया था। इसी कारण कहीं भी उनकी समाधि नहीं है।

देहू वह स्थल है जहाँ संत तुकाराम का जन्म हुआ था तथा जहाँ उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत किया था।

देहू दर्शन

देहू पुणे के निकट, लगभग ३० किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। मैंने पुणे से एक टैक्सी किराये पर ली तथा हम इंद्रायणी नदी के तट पर स्थित इस छोटी सी नगरी के दर्शन के लिए निकल गये।

गाथा मंदिर

गूगल मानचित्र की सहायता से हम देहू पहुँचे। सर्वप्रथम हम एक अपेक्षाकृत नवीन मंदिर में पहुँचे जिसे गाथा मंदिर कहते हैं। गाथा मंदिर की ओर जाते मार्ग के दोनों ओर गन्ने के रस की रसवन्तियाँ हैं। वहाँ से आगे जाकर हमने मंदिर परिसर में प्रवेश किया। हमारे समक्ष सम्पूर्ण परिसर श्वेत रंग से ओतप्रोत था। मेरी दाहिनी ओर एक विशाल मंदिर स्थित था।

गाथा मंदिर देहू
गाथा मंदिर देहू

परिसर भव्य था। मैं सोचने लगी कि क्या तुकाराम जी इतने वैभवशाली स्थान पर रहे होंगे? इसने मुझे वाराणसी के कबीर चौराहे का स्मरण करा दिया। वह भी कबीर के शब्दों में निहित सादगी की तुलना में कहीं अधिक वैभवपूर्ण है।

दो विशाल गजों के मध्य स्थित सोपानों की सहायता से मैं एक अष्टभुजाकार कक्ष के भीतर पहुँची। उस विस्तृत कक्ष के मध्य संत तुकाराम की एक विशाल प्रतिमा स्थित है जो पंच धातु में निर्मित है। आसन ग्रहण किये तुकाराम अपनी भक्ति में लीन हैं। उनके एक हाथ में वह चिरपरिचित इकतारा तथा दूसरे में पोथी है।

गाथा मंदिर में संत तुकाराम की भव्य प्रतिमा
गाथा मंदिर में संत तुकाराम की भव्य प्रतिमा

उनकी प्रतिमा के चारों ओर अनेक कक्ष हैं जिनकी भित्तियाँ संगमरमर की हैं। उन पर उनके ४१४५ अभंग लिखे हुए हैं। कुछ भित्तियाँ तुकाराम के १०८ नामों से भी अलंकृत है। उनके मध्य कई चित्र हैं जिनमें उनके अभंगों में वर्णित कुछ दृश्य चित्रित हैं। सम्पूर्ण कलाकृतियाँ दो तलों में प्रदर्शित हैं।

प्रथम तल पर एक मंदिर है जो संत तुकाराम के इष्ट देव पांडुरंग विट्ठल एवं रखमा बाई को समर्पित है। परिसर में भ्रमण करते हुए हमें आभास होता है कि संत तुकाराम अपने पीछे अपनी असीमित भक्ति से ओतप्रोत एक समृद्ध धरोहर छोड़ गये हैं। सम्पूर्ण परिसर में भ्रमण करते हुए मैं आत्मविभोर हो गई थी।

इस परिसर में भ्रमण करते हुए मुझे वाराणसी के तुलसी दास मंदिर एवं अयोध्या के वाल्मीकि मंदिर का भी स्मरण हो रहा था। इन मंदिरों की भित्तियों पर भी क्रमशः सम्पूर्ण रामचरितमानस एवं रामायण के दोहे-छंद उत्कीर्णित हैं।

एक विशाल पटल पर भगवान विष्णु के विविध अवतारों के चित्र हैं।

एक पटल पर गाथा मंदिर का सुंदर विवरण लिखा हुआ है जो इस प्रकार है:

  • धनाढ्य का दानतीर्थ
  • जनता का सांस्कृतिक केंद्र
  • भक्तों का पावन तीर्थ स्थल
  • वारकरियों की संपत्ति
  • महाराष्ट्र का गौरव
  • भारत का सार
  • सभी के लिए मार्गदर्शक प्रकाशपुंज

गुरुकुल, अन्नपूर्णा भवन एवं गौशाला

गाथा मंदिर परिसर के भीतर, मुख्य मंदिर के निकट विद्यार्थियों के लिए संत तुकोबाराया गुरुकुल स्थित है। मैं इसके भीतर नहीं गयी। बाहर से देखकर यह एक आधुनिक व उत्तम रखरखाव युक्त गुरुकुल प्रतीत हो रहा था।

आगे जाकर मातोश्री बहिणाबाई अन्नपूर्णा भवन है जहाँ दर्शनार्थी भक्तों को भोजन कराया जाता है। यह भोजन निशुल्क उपलब्ध है। आप चाहें तो कुछ धनराशि का दान कर सकते हैं। भोजन कक्ष के ऊपर एक कक्ष है जहाँ आध्यात्मिक सभाएं आयोजित किये जाते हैं। ‘जय जय राम कृष्ण हरि’, सम्पूर्ण परिसर में इस संकीर्तन का अनवरत जयघोष होता रहता है। मुझे सदा से ही प्रत्यक्ष कीर्तनों से प्रेम रहा है। आपके लिए यहाँ अयोध्या में आयोजित कीर्तन की भेंट लेकर आयी हूँ।

कुछ आगे जाकर नदी के समक्ष श्रीधर गौशाला है।

मुझे केवल मुख्य गाथा मंदिर के चारों ओर हरियाली एवं वृक्षों का अभाव प्रतीत हुआ। इस मंदिर का कार्य अभी सम्पूर्ण नहीं हुआ है। कदाचित कुछ काल पश्चात यहाँ हरियाली एवं वृक्ष भी आ जाएंगे। मंदिर के विषय में अधिक जानकारी के लिए उनके वेबस्थल पर देखें।

इंद्रायणी के तट पर विट्ठल मंदिर

इंद्रायणी नदी के तट पर स्थित गाथा मंदिर के समीप ही एक छोटा किन्तु प्राचीन विट्ठल रुक्मिणी मंदिर है। इस मंदिर तक पहुँचने के लिए कुछ सोपान उतरकर घाट तक जाना पड़ता है। मंदिर के चारों ओर शैल मंडप हैं जहाँ बैठकर भक्तगण कुछ क्षण विश्राम कर सकते हैं।

देहू में इंद्रायणी नदी
देहू में इंद्रायणी नदी

इस मंदिर में विट्ठल एवं रखमा के विग्रह हैं। साथ ही गणेश एवं हनुमान की प्राचीन शैल प्रतिमाएं भी हैं। चारों ओर स्थित अनेक वृक्ष वातावरण को आनंदमयी बनाते हैं। यहाँ भक्तों की संख्या अधिक नहीं थी। मुझे यह स्थान अत्यंत शांतिमय प्रतीत हुआ। चिंतन, मनन तथा साधना के लिए सर्वोत्तम स्थल। इंद्रायणी नदी का शांत जल तथा विठोबा की करुणामयी आभा हमारे चित्त को इस पावन वातावरण से एकाकार कर देती हैं।

समीप ही एक छोटा सा स्मारिका विक्री केंद्र है जहाँ से आप विट्ठल-रखमा, संत तुकाराम, संत ज्ञानेश्वर महाराज आदि की छोटी छोटी मूर्तियाँ ले सकते हैं।

जगद्गुरु संत श्री तुकाराम महाराज संस्थान

यह मुख्य मंदिर है जिसका निर्माण संत तुकाराम के पूर्वज विश्वम्भर बुवा ने किया था। ठेठ महाराष्ट्र शैली में निर्मित यह एक शैल मंदिर है। इस मंदिर की ओर संकेत करता एक तोरण मुख्य मार्ग पर स्थापित है। मंदिर परिसर के समक्ष स्थित महाद्वार पर संत तुकाराम की प्रतिमा है।

जगद्गुरु संत श्री तुकाराम महाराज संस्थान
जगद्गुरु संत श्री तुकाराम महाराज संस्थान

परिसर के भीतर प्रवेश करते ही हमारी दृष्टि सर्वप्रथम एक छोटे हनुमान मंदिर पर पड़ी। इसके पश्चात राम मंदिर है। परिसर के मध्य में एक मंदिर है जिसके भीतर विठोबा-रखमा के विग्रह हैं जो इसी स्थल से प्राप्त हुई थीं। सूक्ष्म उत्कीर्णन से परिपूर्ण यह एक आकर्षक मंदिर है। इसे देखने के पश्चात यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यह संत तुकाराम के काल से लगभग २०० वर्ष प्राचीन होगा। अर्थात यह मंदिर १५ वीं शताब्दी में निर्मित होगा।

मंदिर से नदी की ओर शैल सोपान बने हुए हैं। किन्तु किसी कारणवश अभी यहाँ से नदी की ओर जाने का मार्ग बंद कर दिया गया है। मंदिर के चारों ओर स्थित गलियारे में संत तुकाराम की जीवनी को प्रदर्शित करते कई आकर्षक चित्रपटल हैं।

तुकाराम महाराज शिला मंदिर

विठोबा मंदिर के पार्श्व भाग में स्थित यह एक महत्वपूर्ण मंदिर है। इसके भीतर वही शिला रखी हुई है जिस पर बैठकर तुकाराम जी ने १३ दिवसों तक तपस्या की थी। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि यह तुकाराम के भक्तों के लिए अत्यंत पावन एवं आदरणीय स्थल है।

हस्तलिखित लेख शिला मंदिर में
हस्तलिखित लेख शिला मंदिर में

परिसर के एक कोने में स्थित एक छोटे से मंदिर के भीतर संत तुकाराम की रचनाओं की हस्तलिखित प्रतिलिपियाँ हैं।

परिसर के भीतर महाराष्ट्र शैली में निर्मित एक दीपस्तंभ तथा एक तुलसी वृंदावन भी है। समीप ही एक वृक्ष के नीचे एक छोटा गरुड मंदिर है।

एक मंडप के भीतर आप चांदी की एक पालकी देख सकते हैं। मेरे अनुमान से यह वारकरी यात्रा की पालकी है। भित्ति पर एक एकतारा लटका हुआ है। किन्तु मुझे यह ज्ञात नहीं हो पाया कि यह एकतारा वास्तव में संत तुकाराम जी का ही है।

संत तुकाराम मंदिर देहू की यात्रा के लिए कुछ सुझाव

संत तुकाराम डाक टिकट पर
संत तुकाराम डाक टिकट पर
  • देहू पुणे नगरी के समीप स्थित है। आप पुणे में ठहरकर वहाँ से एक दिवसीय यात्रा के रूप में देहू भ्रमण कर सकते हैं।
  • मुझे मंदिर के आसपास भोजन अथवा जलपान के लिए बड़े केंद्र दिखाई नहीं दिए। किन्तु मंदिर के आसपास मुझे फल एवं फलों के रस के लिए छोटी दुकानें अवश्य दिखीं।
  • सभी मंदिरों एवं संस्थानों में प्रवेश निशुल्क है। यदि आप दान में कुछ धनराशि देना चाहें तो अवश्य दे सकते हैं।
  • सभी मंदिर सम्पूर्ण दिवस खुले रहते हैं।
  • एकादशी एवं पंढ़रपुर वारी पालकी के दिवसों में यहाँ भक्तों की भारी भीड़ रहती है। अपनी यात्रा नियोजित करते समय इसका ध्यान रखें।

अनुवाद: मधुमिता ताम्हणे

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